विदुर नीति चौथा अध्याय :-Vidur niti chapter 4.
(चौथा अध्याय )
विदुर उवाच।
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।
आत्रेयस्य च संवादं साध्यानां चेति नः श्रुतम् ॥ १ ॥
विदुरजी कहते हैं- इस विषय में दरतात्रेय और साध्य देवताओं के संवाद रूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं यह मेरा भी सुना हुआ है॥ १ ॥
चरन्तं हंसरूपेण महर्षिं संशितव्रतम् ।
साध्या देवा महाप्राज्ञं पर्यपृच्छन्त वै पुरा ॥ २ ॥
प्राचीन कालकी बात है, उत्तम वरत वाले महाबुद्धिमान् महर्षि दत्तात्रेय जी साध्या देवा हंस (परमहंस) रूप से विचर रहे थे, उस समय साध्य देवताओं ने उनसे पूछा ॥ २ ॥
साध्या ऊचुः ।
साध्या देवा वय्मस्मो महर्षे दृष्ट्वा भवन्तं न शक्नुमोऽनुमातुम् ।
श्रुतेन धीरो बुद्धिमांस्त्वं मतो नः काव्यां वाचं वक्तुमर्हस्युदाराम् ॥ ३ ॥
महर्षे ! हम सब लोग साध्य देवता हैं, आपकी केवल देखकर हम आपके विषय में कुछ अनुमान नहीं कर सकते। हमें तो आप शास्त्र ज्ञान से बुक्त, धीर एव्ं बुद्धिमान् जान पड़ते हैं, अतः हम लोगों को विद्वत्तापूर्ण अपनी उदार बाणी सुनाने की कृपा करें॥ ३ ॥
हंस उवाच ।
एतत्कार्यममराः संश्रुतं मे धृतिः शमः सत्यधर्मानुवृत्तिः ।
ग्रन्थिं विनीय हृदयस्य सर्वं प्रियाप्रिये चात्मवशं नयीत ॥ ४ ॥
हंस ने कहा-देवताओ। मैंने सुना है कि धैर्य धारण, मनोनिग्रह तथा सत्य-धर्मो का पालन ही कर्तव्य हैं, इसके द्वारा पुरुष को चाहिये कि हृदय की सारी गाँठ खोलकर प्रिय और अप्रिय को अपने आत्मा के समान समझे ॥ ४ ॥
आक्रुश्यमानो नाक्रोशेन्मन्युरेव तितिक्षितः ।
आक्रोष्टारं निर्दहति सुकृतं चास्य विन्दति ॥ ५ ॥
दूसरों से गाली सुनकर भी स्वयं उन्हें गाली न दे । क्षमा करने वाले का रोका हुआ क्रोध ही गाली देने वाले को जला डालता है और उसके पुण्य को भी ले लेता है ॥ ५॥
नाक्रोशी स्यान्नावमानी परस्य मित्रद्रोही नोत नीचोपसेवी ।
न चातिमानी न च हीनवृत्तो रूक्षां वाचं रुशतीं वर्जयीत ॥ ६ ॥
दूसरे को न तो गाली दे और न उसका अपमान करे, मित्रों से द्रोह तथी नीच पुरुषों की सेवा न करे, सदाचारसे हीन एवं अभिमानी न हो, रूखी तथा रोष भरी वाणी का परिल्याग करे ॥ ६ ॥।
मर्माण्यस्थीनि हृदयं तथासून् घोरा वाचो निर्दहन्तीह पुंसाम् ।
तस्माद्वाचं रुशतीं रूक्षरूपां धर्मारामो नित्यशो वर्जयीत ॥ ७ ॥
इस जगत् में रूखी बातें मनुष्यों के मर्मस्थान, हड़ी, हुदय तथा प्राणीं को दग्ध करती रहती हैं; इसलिये धर्मानुरागी पुरुष जलाने वाली रूखी बातों को सदा के लिये परित्याग कर दे।। ७॥
अरुं तुरं परुषं रूक्षवाचं वाक्कण्टकैर्वितुदन्तं मनुष्यान् ।
विद्यादलक्ष्मीकतमं जनानां मुखे निबद्धां निरृतिं वहन्तम् ॥ ८ ॥
जिसकी वाणी रूखी और स्वभाव कठोर है, जो मर्म पर आघात करता और वाग्बाणों से मनुष्यों को पीड़ा पहुँचाता है, उसे ऐसा समझना चाहिये कि वह मनुष्यों में महादरिद्र है और वह अपने मुख में दरिद्रता अथवा मौत को बाँधे हुए ढो रहा है। ८ ॥
परश्चेदेनमधिविध्येत बाणैर् भृशं सुतीक्ष्णैरनलार्क दीप्तैः ।
विरिच्यमानोऽप्यतिरिच्यमानो विद्यात्कविः सुकृतं मे दधाति ॥ ९ ॥
यदि दूसरा कोई इस मनुष्य को अग्नि और सूर्यक समान दग्ध करने वाले तीखे याग्याणों से बहुत चोट पहुँचावे तो वह विद्वान् पुरुष चौट खाकर अल्यन्त वेदना सहते हुए भी ऐसा समझे कि वह मेरे पुण्यो को पुष्ट कर रहा है ॥ १ ॥
यदि सन्तं सेवते यद्यसन्तं तपस्विनं यदि वा स्तेनमेव ।
वासो यथा रङ्ग वशं प्रयाति तथा स तेषां वशमभ्युपैति ॥ १० ॥
जैसे वस्त्र जिस रंग में रंगा जाय वैसा ही हो जाता है, उसी प्रकार यदि कोई सज्जन, असजन, तपस्वी अथवा चोर की सेवा करता है तो वह उन्हीं के वश में हो जाता है, उस पर उन्ही का रंग चढ़ जाता है।। १०।।
वादं तु यो न प्रवदेन्न वादयेद् यो नाहतः प्रतिहन्यान्न घातयेत् ।
यो हन्तुकामस्य न पापमिच्छेत् तस्मै देवाः स्पृहयन्त्यागताय ॥ ११ ॥
जो स्वयं किसी के प्रति बुरी बात नहीं कहता, दूसरों से भी नहीं कहलाता, विना मार खाये स्वयं न तो किसी को मारता है और न दूसरों से ही मरवाता हैं, मार खाकर भी अपराधी को जा मारना नहीं चाहता, देवता भी उसके आगमन की बाट जोहते रहते हैं ॥ ११ ॥
अव्याहृतं व्याहृताच्छ्रेय आहुः सत्यं वदेद्व्याहृतं तद्द्वितीयम् ।
प्रियंवदेद्व्याहृतं तत्तृतीयं धर्म्यं वदेद्व्याहृतं तच्चतुर्थम् ॥ १२ ॥
बोलने से न बौलना अच्छा बताया गया है; किंतु सत्य बोलना वाणी की दूसरी विशेषता है, यानी मौन की अपेक्षा भी दूना लाभप्रद है । सत्य भी यदि प्रिय बोला जाय तो तीसरी विशेषता है और वह भी यदि धर्म सम्मत कहा जाय तो वह बचन की चौथी विशेषता है ॥ १२ ॥
यादृशैः संविवदते यादृशांश् चोपसेवते ।
यादृगिच्छेच्च भवितुं तादृग्भवति पूरुषः ॥ १३ ॥
मनुष्य जैसे लोगो के साथ रहता है, जैसे लोगों की सेवा करता है और जैसा होना चाहता है, वैसा ही हो जाता है ॥ १३ ॥
यतो यतो निवर्तते ततस्ततो विमुच्यते ।
निवर्तनाद्धि सर्वतो न वेत्ति दुःखमण्वपि ॥ १४ ॥
मनुष्य जिन जिन विषयो से मन को हटाता जाता उन-उनसे उसके मुक्ति होती जाती है, इस प्रकार यदि सब ओरस निवृत हो जाय तो उसे लेशमात्र दुःस्त का भी कभी अनुभव नहीं होता ।। १४ ॥
न जीयते नोत जिगीषतेऽन्यान् न वैरक्कृच्चाप्रतिघातकश् च ।
निन्दा प्रशंसासु समस्वभावो न शोचते हृष्यति नैव चायम् ॥ १५ ॥
जो नं तो स्वयं किसी से जीता जाता न. दूसरो को जातने की इच्छा करता है न किसी के साथ लेर करता, न दूसरो की चोट पहुचाना चाहता है, जो निन्द आर पशसाम समान माव रखता है, बेह हुए-किल पर हो जाता है ।। १५ ।।
भावमिच्छति सर्वस्य नाभावे कुरुते मतिम् ।
सत्यवादी मृदुर्दान्तो यः स उत्तमपूरुषः ॥ १६ ॥
जो सबका कल्याण चाहता है, किसीके अकल्याणकी बात मन में भी नहीं लाता; जो सत्यवादी कोमल और जितेन्द्रिय है, वह उत्तम पुरुष माना गया है ॥ १६ ॥
नानर्थकं सान्त्वयति प्रतिज्ञाय ददाति च ।
राद्धापराद्धे जानाति यः स मध्यमपूरुषः ॥ १७ ॥
जो झुठी सान्त्वना नहीं देता, देने की प्रतिज्ञा कर के दे ही डालता है, दूसरों के दोषों को जानता है, वह मध्यम श्रेणी का पुरुष है ॥ १७ ॥
दुःशासनस्तूपहन्ता न शास्ता नावर्तते मन्युवशात्कृतघ्नः ।
न कस्य चिन्मित्रमथो दुरात्मा कलाश्चैता अधमस्येह पुंसः ॥ १८ ॥
जिसका शासन अल्यन्त कठोर हो, जो अनेक दोषों से दृषित हो, कलंकित हो, जो क्रोधवश किसी की बुराई करने से नहीं हटता हो, दूसरोंक े किये हुए उपकार को नहीं मानता हो, जिसकी किसी के साथ मित्रता नहीं हो ये अधम पुरुष के भेद हैं।। १८ ॥
न श्रद्दधाति कल्याणं परेभ्योऽप्यात्मशङ्कितः ।
निराकरोति मित्राणि यो वै सोऽधम पूरुषः ॥ १९ ॥
जो अपने ही ऊपर संदह होने के कारण दूसरों से भी कल्याण होने का विश्वार नहीं करता, मित्रो को भी दूर रखता है, अवश्य ही बह अधम पुरुष है।। १९ ॥
उत्तमानेव सेवेत प्राप्ते काले तु मध्यमान् ।
अधमांस्तु न सेवेत य इच्छेच्छ्रेय आत्मनः ॥ २० ॥
जो अपनी उन्नति चाहता है, उत्तम पुरुषों की हो सवा करे, समय आ पड़ने पर मध्यम पुरुषों की भी सेवा कर ले, परंतु अधम पुरुषों की सेवा कदापि न करे ।। २० ॥
प्राप्नोति वै वित्तमसद्बलेन नित्योत्थानात्प्रज्ञया पौरुषेण ।
न त्वेव सम्यग्लभते प्रशंसां न वृत्तमाप्नोति महाकुलानाम् ॥ २१ ॥
मनुष्य दुष्ट पुरुषों के बल से, निरन्तर के उद्योग से, बुद्धिस े तथा पुरुषार्थ से धन भले ही प्राप्त कर ले, परन्तु इससे उत्तम कुलीन पुरुषोंके सम्मान और सदाचार को बह पूर्ण रूप से कदापि नहीं प्राप्त कर सकता ॥ २१ ।।
धृतराष्ट्र उवाच ।
महाकुलानां स्पृहयन्ति देवा धर्मार्थवृद्धाश्च बहुश्रुताश् च ।
पृच्छामि त्वां विदुर प्रश्नमेतं भवन्ति वै कानि महाकुलानि ॥ २२ ॥
धृतराष्ट्र ने कहा- विदुर । धर्म और अर्थके नित्य ज्ञाता एवं बहुश्रुत देवता भी उत्तम कुल में उत्पन्न पुरुषोंकी इच्छा करते हैं। इसलिये मैं तुमसे यह प्रश्न करता हूँ कि महान् (उत्तम) कुल कौन है ? ॥ २२ ॥
विदुर उवाच ।
तमो दमो ब्रह्मवित्त्वं वितानाः पुण्या विवाहाः सततान्न दानम् ।
येष्वेवैते सप्तगुणा भवन्ति सम्यग्वृत्तास्तानि महाकुलानि ॥ २३ ॥
विदुर जी बोले-जिन में तप, इन्द्रिय संयम वेदोंका स्वाध्याय, यज्ञ, पवित्र विवाह, सदा अन्नदान और सदाचार- ये सात गुण वर्तमान हैं, उन्हें महान् (उतम) कुल कहते हैं ॥ २३ ॥
येषां न वृत्तं व्यथते न योनिर् वृत्तप्रसादेन चरन्ति धर्मम् ।
ये कीर्तिमिच्छन्ति कुले विशिष्टां त्यक्तानृतास्तानि महाकुलानि ॥ २४ ॥
जिनका सदाचार शिथिल नहीं होता, जो अपने दोषों से माता-पिता को कष्ट नहीं पहुँचाते, प्रसन्न चित्त से धर्म का आाचरण करते हैं तथा असत्य का परित्याग कर अपने कुल की विशेष कीर्ति चाहते हैं, वे ही महान् कुलीन हैं ॥ २४ ॥
अनिज्ययाविवाहैर्श्च वेदस्योत्सादनेन च ।
कुलान्यकुलतां यान्ति धर्मस्यातिक्रमेण च ॥ २५ ॥
यज्ञ न होने से, निन्दित कुल में विवाह करने से, वेद का त्याग और धर्म का उल्लङ्खन करने से उत्तम कुल भी अधम हो जाते हैं।। २५ ।।
देव द्रव्यविनाशेन ब्रह्म स्वहरणेन च ।
कुलान्यकुलतां यान्ति ब्राह्मणातिक्रमेण च ॥ २६ ॥
देवताओंके धनका नाश, ब्राह्मणके धनका अपहरण और ब्राह्मणोंकी मर्यादा को उल्लङ्कन करने से उत्तम कुल भी अधम हो जाते हैं ॥ २६ ॥
ब्राह्मणानां परिभवात्परिवादाच्च भारत ।
कुलान्यकुलतां यान्ति न्यासापहरणेन च ॥ २७ ॥
भारत ! ब्राह्माणो के अनादर और निन्दा से तथा धरोहर रखी हुई वस्तु को छिपा लेने से अच्छे कुल भी निन्दनीय हो जाते हैं।।२७ ।।
कुलानि समुपेतानि गोभिः पुरुषतोऽश्वतः ।
कुलसङ्ख्यां न गच्छन्ति यानि हीनानि वृत्ततः ॥ २८ ॥
गोओ, गनुष्यों और धनसे सम्पन्न होकर भी जी कुल सदा नीरस होन हैं, व अच्छ कुल की गणना मे नहीं आ सकता ॥ २८ ॥
वृत्ततस्त्वविहीनानि कुलान्यल्पधनान्यपि ।
कुलसङ्ख्यां तु गच्छन्ति कर्षन्ति च मयद्यशः ॥ २९ ॥
थोड़े धनवाले कुल भी यदि सदाचार से सम्पन्र हैं, तो वे अच्छे कुलों की गणना में आ जाते हैं और महान् यश प्राप्त करते हैं ।। २१ ।।
वृत्त यत्नेन संरक्षेद् वित्तमेति च याति च ।
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः ॥ ३० ॥
सदाचार की रक्षा यत्नपूर्वक करनी चाहिये; धन तो आता और जाता रहता है। धन क्षीण हो जानेपर भी सदाचारी मनुष्य क्षीण नहीं माना जाता; किन्तु जो सदाचार से भ्रष्ट हो गया, उसे तो नष्ट ही समझना चाहिये| ३० ॥
गोभि: पशुभिरश्रैश्च कृष्या च सुसमृद्धया ।
कुलानि न प्ररोहन्ति यानि हीनानि वृत्ततः ॥ ३१ ॥
जो कुल सदाचार से हीन हैं, वे गौओं, पशुओं, घोड़ों तथा हरी-भरी खेती से सम्पतन्न होने पर भी उन्रति नहीं कर पाते ॥ ३१ ॥
मा नः कुले वैरकृत्कश् चिदस्तु राजामात्यो मा परस्वापहारी ।
मित्रद्रोही नैकृतिकोऽनृती वा पूर्वाशी वा पितृदेवातिथिभ्यः ॥ ३२ ॥
हमारे कुल में कोई बैर करने वाला न हो, दूसरों के धन का अपहरण करने वाला राजा अथवा मन्त्री न हो और मित्र द्रोही, कपटी तथा असल्यवादी न हो। इसी प्रकार माता-पिता, देवता एवं अतिथियों को भोजन कराने से यहले भोजन करने वाला भी न हो ॥ ३२ ।
यश्च नो ब्राह्मणं हन्याद्यश्च नो ब्राह्मणान्द्विषेत् ।
न नः स समितिं गच्छेद्यश्च नो निर्वपेत्कृषिम् ॥ ३३ ॥
हम लोगों में से जो ब्राह्मणों क हल्या कर, बह्मण के साथ द्वेष कर तथा पितृ को पि्डदान एवं त्पण न कर; वह हमारी सभामे न जाয ॥ ३३.॥
तृणानि भूमिरुदकं वाक्चतुर्थी च सूनृता ।
सतामेतानि गेहेषु नोच्छिद्यन्ते कदा चन ॥ ३४ ॥
तृण का आसन, पृथ्वी, जल और चौथी मीठी चाणी- इन चार चीजों की कभी कमी नहीं होती॥ ३४ ॥
श्रद्धया परया राजन्नुपनीतानि सत्कृतिम् ।
प्रवृत्तानि महाप्राज्ञ धर्मिणां पुण्यकर्मणाम् ॥ ३५ ॥
महाप्राज्ञ राजन् ! पुण्यकर्म करने वाले धर्मात्मा पुरुषों के यहाँ ये तृण आदि वस्तुएँ बड़ी श्रद्धा के साथ सत्कार के लिये उपस्थित की जाती हैं ॥ ३५ ॥
सूक्ष्मोऽपि भारं नृपते स्यन्दनो वै शक्तो वोढुं न तथान्ये महीजाः ।
एवं युक्ता भारसहा भवन्ति महाकुलीना न तथान्ये मनुष्याः ॥ ३६ ॥
नृपवर ! छोटा-सा भी रथ भार ढो सकता है, किन्तु दूसरे काठ बड़े-बड़े होने पर भी ऐसा नहीं कर सकते । इसी प्रकार उत्तम कुल में उत्पन्न उत्साही पुरुष भार सह सकते हैं, दूसरे मनुष्य वेसे नहीं होते॥ ३६ ॥
न तन्मित्रं यस्य कोपाद्बिभेति यद्वा मित्रं शङ्कितेनोपचर्यम् ।यस्मिन्मित्रे पितरीवाश्वसीत तद्वै मित्रं सङ्गतानीतराणि ॥ ३७ ॥
जिसके कोप से भयभीत होना पड़े तथा शङ्कित होकर जिसकी सेवा की जाय, वह मित्र नहीं है । मित्र तो वही है, जिस पर पिताकी भाँति विश्वास किया जा सके, दूसरे तो सङ्गमात्र हैं ॥ ३७॥
यदि चेदप्यसम्बन्धो मित्रभावेन वर्तते ।
स एव बन्धुस्तन्मित्रं सा गतिस्तत्परायणम् ॥ ३८ ॥
पहले से कोई सम्बन्ध न होनेपर भी जो मित्रता को बत्ताच करे, वही बन्धु, वही मित्र, बही संहारा और बही आश्रय हैं ॥ ३८ ॥
चलचित्तस्य वै पुंसो वृद्धाननुपसेवतः ।
पारिप्लवमतेर्नित्यमध्रुवो मित्र सङ्ग्रहः ॥ ३९ ॥
जिसका चित्त चञ्चल है, जो वद्धों की सेवा नहीं करता, उस अनिश्चितमति पुरुष के लिये मित्रों का संग्रह स्थायी नहीं होता ॥ ३९ ॥
चलचित्तमनात्मानमिन्द्रियाणां वशानुगम् ।
अर्थाः समतिवर्तन्ते हंसाः शुष्कं सरो यथा ॥ ४० ॥
जैसे हंस सुखे सरोवर के आस-पास ही मंड़राकर रह जाते हैं, भीतर नहीं प्रवेश करते उसी प्रकार जिसका चित्त चञ्चल है; जो अज्ञानी और इन्द्रियों का गुलाम है, उसे अर्थ की प्राप्ति नहीं होती।॥४० ॥
अकस्मादेव कुप्यन्ति प्रसीदन्त्यनिमित्ततः ।
शीलमेतदसाधूनामभ्रं पारिप्लवं यथा ॥ ४१ ॥
दुष्ट पुरुषों का स्वभाव मेध के समान चञ्चल होता है, वे सहसा क्रध कर बैठते हैं और अकारण ही प्रसन्न हो जाते हैं ॥ ४१ ॥
सत्कृताश्च कृतार्थाश्च मित्राणां न भवन्ति ये ।
तान्मृतानपि क्रव्यादाः कृतघ्नान्नोपभुञ्जते ॥ ४२ ॥
जो मित्रो से सत्कार पाकर और उनकी सहायता में कृत काय होकर भी उनके नहीं होते, ऐसे कृतघों के मरने पर उनका मांस माँसभोजी जन्तु भी नहीं खाते ।॥ ४२ ॥
अर्थयेदेव मित्राणि सति वासति वा धने ।
नानर्थयन्विजानाति मित्राणां सारफल्गुताम् ॥ ४३ ॥
धन हो या न हो, मित्रों का तो सत्कार करे हो । मित्रोरे कुछ भी न माँगले हुए उनके सार-असार की परीक्ष न कर ॥ ४३ ॥
सन्तापाद्भ्रश्यते रूपं सन्तापाद्भ्रश्यते बलम् ।
सन्तापाद्भ्रश्यते ज्ञानं सन्तापाद्व्याधिमृच्छति ॥ ४४ ॥
संताप से रूप नष्ट होता है, संतापन बल नषट होना है, सेताप से ञान नष्ट होता है और संताप से मनुष्य रेग को परप्त होता है ।।४४ ।।
अनवाप्यं च शोकेन शरीरं चोपतप्यते ।
अमित्राश्च प्रहृष्यन्ति मा स्म शोके मनः कृथाः ॥ ४५ ॥
अभीष्ट चस्तु शोक करने से नहीं मिलती; उससे तो केवल शरीर को कष्ट होता है और शत्रु प्रसन्न होते हैं। इसलिये आप मन में शोक न करें ॥ ४५ ॥
पुनर्नरो म्रियते जायते च पुनर्नरो हीयते वर्धते पुनः ।
पुनर्नरो याचति याच्यते च पुनर्नरः शोचति शोच्यते पुनः ॥ ४६ ॥
मनुष्य बार-बार मरता और जन्म लेता है, बार- बार हानि उठाता और बड़ता है, बार-बार स्वयं दूसरे से याचना करता है और दूसरे उससे यांचना करते हैं तथा बारम्बार वह दूसरों के लिये शोक करता है और टूसरे उसके लिये शोक करते हैं ॥ ४६ ।।
सुखं च दुःखं च भवाभवौ च लाभालाभौ मरणं जीवितं च ।
पर्यायशः सर्वमिह स्पृशन्ति तस्माद्धीरो नैव हृष्येन्न शोचेत् ॥ ४७ ॥
सुख-दुःख, उत्पत्ति-विनाश, लाभ-हानि और जीवन मरण- ये वारी: बारी से सबको प्राप्त होते रहते हैं, इसंलिये धीर पुरुष को इनके लिये हर्ष और शोक नहीं करना चाहिये।॥ ४७ ॥
चलानि हीमानि षडिन्द्रियाणि तेषां यद्यद्वर्तते यत्र यत्र ।
ततस्ततः स्रवते बुद्धिरस्य छिद्रोद कुम्भादिव नित्यमम्भः ॥ ४८ ॥
ये छः इन्द्रियाँ बहुत ही चक्ञल हैं, इनमे से जो-जो इन्द्रिय जिस-जिस विषय की ओर बढ़ती है, वहाँ- वृहाँ बुद्धि उसी प्रकार क्षीण होती है; जैसे फूटे घड़े से पानी सदा चू जाता है॥ ४८ ॥
धृतराष्ट्र उवाच ।
तनुरुच्छः शिखी राजा मिथ्योपचरितो मया ।
मन्दानां मम पुत्राणां युद्धेनान्तं करिष्यति ॥ ४९ ॥
धृतराष्ट्र ने कहा-काठ में छिपी हुई आग के समान सूक्ष्म धर्म से बँधे हुए राजा युधिष्ठिर के साथ मैंने मिथ्या व्यवहार किया है । अतः वे मेरे मूर्ख पुत्रों का नाश कर डालेंगे ॥ ४९ ॥
नित्योद्विग्नमिदं सर्वं नित्योद्विग्नमिदं मनः ।
यत्तत्पदमनुद्विग्नं तन्मे वद महामते ॥ ५० ॥
महामते ! यह सब कुछ सदा ही भय से उद्विम् है, मेरा यह मन भी भयसे उद्विम्र है, इसलिये जो उद्वेगशून्य और शान्त पद हो, वही मुझे बताओ ॥ ५० ॥
विदुर उवाच ।
नान्यत्र विद्या तपसोर्नान्यत्रेन्द्रिय निग्रहात् ।
नान्यत्र लोभसन्त्यागाच्छान्तिं पश्याम तेऽनघ ॥ ५१ ॥
विदुरजी बोले-पापशून्य नरेश ! विद्या, तप, इन्द्रियनिग्रह और लोभ त्याग के सिवा और कोई आपके लिये शान्ति का उपाय मैं नहीं देखता।। ५१ ॥
बुद्ध्या भयं प्रणुदति तपसा विन्दते महत् ।
गुरुशुश्रूषया ज्ञानं शान्तिं त्यागेन विन्दति ॥ ५२ ॥
बुद्धि से मनुष्य अपने भव को दूर करता है, तपस्या से महत् पद को प्राप्त होता है, गुरुशुश्रूपाले ज्ञान और योग से शान्ति पाता है ॥ ५२ ॥
अनाश्रिता दानपुण्यं वेद पुण्यमनाश्रिताः ।
रागद्वेषविनिर्मुक्ता विचरन्तीह मोक्षिणः ॥ ५३ ॥
मोक्ष की इच्छा रखनेवाले मनुष्य दान के पुण्य का आश्रय नहीं लेते, वेद के पुण्य का भी आश्रय नहीं लेते, किंतु निष्कामभाव से राग-द्वेष से रहित हो इस विचरन्तीह लोक मे विचरते रहते हैं।। ५३ ।।
स्वधीतस्य सुयुद्धस्य सुकृतस्य च कर्मणः ।
तपसश्च सुतप्तस्य तस्यान्ते सुखमेधते ॥ ५४ ॥
सम्यक् अध्ययन, न्यायोचित युद्ध, पुण्यकर्म और अच्छी तरह की हुई तपस्या के अन्त में सुख की वृद्धि होती है ॥ ५४ ॥
स्वास्तीर्णानि शयनानि प्रपन्ना न वै भिन्ना जातु निद्रां लभन्ते ।
न स्त्रीषु राजन्रतिमाप्नुवन्ति न मागधैः स्तूयमाना न सूतैः ॥ ५५ ॥
राजन ! आपस में फूट रखने वाले लोग अच्छे बिछौनों से युक्त पलंग पाकर भी कभी सुख की नींद नहीं सोने पाते, उन्हें स्त्रियों के पास रहकर तथा सूत-मागधों द्वारा की हुई स्तुति सुनकर भी प्रसन्नता नहीं होती ५५ ॥
न वै भिन्ना जातु चरन्ति धर्मं न वै सुखं प्राप्नुवन्तीह भिन्नाः ।
न वै भिन्ना गौरवं मानयन्ति न वै भिन्नाः प्रशमं रोचयन्ति ॥ ५६ ॥
जो परस्पर भेदभाव रखते हैं, वे कभी धर्म का आचरण नहीं करते । सुख की नहीं पाते। उन्हें गौरव नहीं प्राप्त होता तथा शाक्ति की वार्ता भी नहीं सुहाती ।। ५६ ॥।
न वै तेषां स्वदते पथ्यमुक्तं योगक्षेमं कल्पते नोत तेषाम् ।
भिन्नानां वै मनुजेन्द्र परायणं न विद्यते किं चिदन्यद्विनाशात् ॥ ५७ ॥
हित की बात भी कही जाय तो उन्हें अन्छी नहीं लगती उनके योगक्षेम की भी सिद्धि नहीं हो पाती। राजन् ! भटभाव वाले पुरुषों की विनाश के सिवा और कोई गति नहीं है।। ५৬.।।
सम्भाव्यं गोषु सम्पन्नं सम्भाव्यं ब्राह्मणे तपः ।
सम्भाव्यं स्त्रीषु चापल्यं सम्भाव्यं ज्ञातितो भयम् ॥ ५८ ॥
जैसे गोओं में दूध, बाह्मण में तप और युवती स्त्रियों में चञ्चलता का होना अधिक सम्भव है, उसी प्रकार अपने जाति-बन्धुओं से भय होना भी सम्भव ही है॥ ५८ ॥
तन्तवोऽप्यायता नित्यं तन्तवो बहुलाः समाः ।
बहून्बहुत्वादायासान्सहन्तीत्युपमा सताम् ॥ ५९ ॥
नित्य सींचकर बढ़ायी हुई पतली लताएँ बहुत होने के कारण बहुत वर्षों तक नाना प्रकार के झाके सहती है; यही बात सत्पुरुषों कि विषय में भी समझनी चाहिये। (वे दुर्बल होने पर भी सामूहिक शक्तिसे बलवान् जाते हैं) ॥ ५९ ॥
धूमायन्ते व्यपेतानि ज्वलन्ति सहितानि च ।
धृतराष्ट्रोल्मुकानीव ज्ञातयो भरतर्षभ ॥ ६० ॥
भरतश्रेष्ठ धृतराष्ट्र ! जलती हुई लकड़ियाँ अलग-अलग होने पर धुआँ फेंकती हैं और एक साथ होने पर प्रज्वलित हो उठती हैं। इसी प्रकार जाति जन्धु ज्ञातयो भी फूट होने पर दुःख उठाते और एकता होने पर सुखी रहते हैं । ६० ॥।
ब्राह्मणेषु च ये शूराः स्त्रीषु ज्ञातिषु गोषु च ।
वृन्तादिव फलं पक्वं धृतराष्ट्र पतन्ति ते ॥ ६१ ॥
धृतराष्ट्र जो लोग ब्राह्मण, स्त्रियों, जाति वालों और गोओ पर ही शुरता प्रकट करते हैं, वे डठल से पर्क हुए फला की भाँति नीचे निरते हैं ६१ ॥
महानप्येकजो वृक्षो बलवान्सुप्रतिष्ठितः ।
प्रसह्य एव वातेन शाखा स्कन्धं विमर्दितुम् ॥ ६२ ॥
यदि वृक्ष अकला है तो वह बलवान्, दृढ़मूल तथा बहुत बड़ा होने पर भी एक ही क्षण ने आँधीके द्वारा बिलपूर्वक शाखाओ सहित धरोशायी किया जा सकता है ।। ६२ ।।
अथ ये सहिता वृक्षाः सङ्घशः सुप्रतिष्ठिताः ।
ते हि शीघ्रतमान्वातान्सहन्तेऽन्योन्यसंश्रयात् ॥ ६३ ॥
किन्तु जो बहुत-से बृक्ष एक साथ रहकर समूह के रूप में जुड़े हैं, वे एक-टूसरे के सहारे बड़ी-से-बड़ी आँधी को भी सह सकते है ॥ ६३ ॥
एवं मनुष्यमप्येकं गुणैरपि समन्वितम् ।
शक्यं द्विषन्तो मन्यन्ते वायुर्द्रुममिवौकजम् ॥ ६४ ॥
समस्त गुणो से सम्पन्न अकेले होने पर शत्रु अपनी शक्ति के अन्दर समझते हैं, जैसे अकेले वृक्ष को मनुष्य को वायु ॥ ६४ ॥
अन्योन्यसमुपष्टम्भादन्योन्यापाश्रयेण च ।
ज्ञातयः सम्प्रवर्धन्ते सरसीवोत्पलान्युत ॥ ६५ ॥
किन्तु परस्पर मेल होने से और एक से दूसरे को सहारा मिलने से जाति वाले लोग इस प्रकार वृद्धि को प्राप्त होते हैं, जैसे तालाब में कमल ॥ ६५ ॥
अवध्या ब्राह्मणा गावो स्त्रियो बालाश्च ज्ञातयः ।
येषां चान्नानि भुञ्जीत ये च स्युः शरणागताः ॥ ६६ ॥
ब्राह्मण, गौ, कुटम्बी, बालक, स्त्री, अन्नदाता और शरणागत-ये अवध्य होते हैं॥ ६६ ॥
न मनुष्ये गुणः कश्चिदन्यो धनवताम् अपि ।
अनातुरत्वाद्भद्रं ते मृतकल्पा हि रोगिणः ॥ ६७ ॥
राजन् ! आपका कल्याण हो, मनुष्य में धन और आरोग्य को छोड़कर दूसरा कोई गुण नहीं है, क्योंकि रोगी तो मुर्दे के समान है ॥ ६७॥
अव्याधिजं कटुकं शीर्ष रोगं पापानुबन्धं परुषं तीक्ष्णमुग्रम् ।
सतां पेयं यन्न पिबन्त्यसन्तो मन्युं महाराज पिब प्रशाम्य ॥ ६८ ॥
महाराज ! जो बिना रोग के उत्पन्न, कड़वा, सिर में दर्द पैदा करने वाला, पाप से सम्बद्ध, कठोर, तीखा और गरम है, जो सज्जनों द्वारा पान करने योग्य है औ जिसे दुर्जन नहीं पी सकते – उस क्रोध को आप पी जाइये और शा होइये ॥ ६८ ॥
रोगार्दिता न फलान्याद्रियन्ते न वै लभन्ते विषयेषु तत्त्वम् ।
दुःखोपेता रोगिणो नित्यमेव न बुध्यन्ते धनभोगान्न सौख्यम् ॥ ६९ ॥
रोग से पीड़ित मनुष्य मधुर फल का आदर नहीं करते, विषयों में भी कुछ सुख या सार नहीं मिलता। रोगी सदा ही दुःखी रहते हैं, वे न धन सम्बन्धी भोगों का और न सुख का ही अनुभव करते हैं। ६९ ॥
पुरा ह्युक्तो नाकरोस्त्वं वचो मे द्यूते जितां द्रौपदीं प्रेक्ष्य राजन् ।
दुर्योधनं वारयेत्यक्षवत्यां कितवत्वं पण्डिता वर्जयन्ति ॥ ७० ॥
राजन् ! पहले जुए में द्रौपदी को जीती गयी देखकर मैंने आपसे का था- आप छूत क्रीडा में. आसक्त दर्योधन को रोकिये; विद्वान लोग इ प्रवज्जना के लिये मना करते हैं। कितु आपने मैरा कहना नहीं माना ॥ ७० ॥
न तद्बलं यन्मृदुना विरुध्यते मिश्रो धर्मस्तरसा सेवितव्यः ।
प्रध्वंसिनी क्रूरसमाहिता श्रीर् मृदुप्रौढा गच्छति पुत्रपौत्रान् ॥ ७१ ॥
यह बल नहीं, जिसका मुदल स्वभाव के साथ विरोध हो; सूक्ष्म धर्म व शी् ही रोवन करना चाहिये। कृरतापूर्वक उपाज्जन को हुई लक्ष्मी नश्चर हो है. यदि बह मृदुलतापूर्वक बढ़ायी गयी हो तो पुत्र-पौत्रो तक रहती है।। ७१ ।।
धार्तराष्ट्राः पाण्डवान्पालयन्तु पाण्डोः सुतास्तव पुत्रांश्च पान्तु ।
एकारिमित्राः कुरवो ह्येकमन्त्रा जीवन्तु राजन्सुखिनः समृद्धाः ॥ ७२ ॥
राजन् ! आपके पुत्र पाण्डवों की रक्षा करें और पाण्डु के पुत्र आपके पुत्रों की रक्षा करें सभी कौरव एक-दूसरे के शत्रु को शत्रु और मित्र को मित्र समझे। सबका एक ही कर्तव्य हो, सभी सुखी और समृद्धिशाली होकर जीवन व्यतीत करें ॥ ७२ ॥
मेढीभूतः कौरवाणां त्वमद्य त्वय्याधीनं कुरु कुलमाजमीढ ।
पार्थान्बालान्वनवास प्रतप्तान् गोपायस्व स्वं यशस्तात रक्षन् ॥ ७३ ॥
अज़मीढकुलनन्दन ! इस समय आप ही कौरवों के आधार स्तम्भ हैं, कुरुवंश आपके ही अधीन है। तात ! कुन्तीके पुत्र अभी बालक हैं और वनवास से बहुत कष्ट पा.चुके हैं, इस समय अपने यश की रक्षा करते हुए पाण्डवों का पालन कीजिये ॥ ७३ ॥।
सन्धत्स्व त्वं कौरवान्पाण्डुपुत्रैर् मा तेऽन्तरं रिपवः प्रार्थयन्तु ।
सत्ये स्थितास्ते नरदेव सर्वे दुर्योधनं स्थापय त्वं नरेन्द्र ॥ ७४ ॥
कुरुराज ! आप पाएडवो से सन्धि कर ले; जिससे शत्रुओं को आपका छिद्र देखने का अवसर न मिल । नरदेव । समस्त पाण्डव सल्य पर डुटे हाए है, अब आप अपने पुत्र दुर्याधन को राकिये ।। ७४ ।।
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि प्रजागरपर्वणि विदुरहितवाक्ये षट्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३६ ॥