Shiv puran vidyeshwar samhita chapter 18(श्रीशिवमहापुराण विद्येश्वरसंहिता  अध्याय 18 बन्धन और मोक्षका विवेचन, शिवपूजाका उपदेश, लिंग आदिमें शिवपूजनका विधान, भस्मके स्वरूपका निरूपण और महत्त्व, शिव एवं गुरु शब्दकी व्युत्पत्ति तथा शिवके भस्मधारणका रहस्य)

Shiv puran vidyeshwar samhita chapter 18(श्रीशिवमहापुराण विद्येश्वरसंहिता  अध्याय 18 बन्धन और मोक्षका विवेचन, शिवपूजाका उपदेश, लिंग आदिमें शिवपूजनका विधान, भस्मके स्वरूपका निरूपण और महत्त्व, शिव एवं गुरु शब्दकी व्युत्पत्ति तथा शिवके भस्मधारणका रहस्य)

(अध्याय 18)

 

:-ऋषि बोले-सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ सूतजी ! बन्धन और मोक्षका स्वरूप क्या है? यह हमें बताइये।

 

सूतजीने कहा-महर्षियो ! मैं बन्धन और मोक्षका स्वरूप तथा मोक्षके उपायका वर्णन करूँगा। तुमलोग आदरपूर्वक सुनो। जो प्रकृति आदि आठ बन्धनोंसे बँधा हुआ है, वह जीव बद्ध कहलाता है और जो उन आठों बन्धनोंसे छूटा हुआ है, उसे मुक्त कहते हैं।

 

प्रकृति आदिको वशमें कर लेना मोक्ष कहलाता है। बन्धन आगन्तुक है और मोक्ष स्वतः सिद्ध है। बद्ध जीव जब बन्धनसे मुक्त हो जाता है तब उसे मुक्तजीव कहते हैं। प्रकृति, बुद्धि (महत्तत्त्व), त्रिगुणात्मक अहंकार और पाँच तन्मात्राएँ – इन्हें ज्ञानी पुरुष प्रकृत्याद्यष्टक मानते हैं। प्रकृति आदि आठ तत्त्वोंके समूहसे देहकी उत्पत्ति हुई है।

 

देहसे कर्म उत्पन्न होता है और फिर कर्मसे नूतन देहकी उत्पत्ति होती है। इस प्रकार बारंबार जन्म और कर्म होते रहते हैं। शरीरको स्थूल, सूक्ष्म और कारणके भेदसे तीन प्रकारका जानना चाहिये।

 

स्थूल शरीर (जाग्रत् अवस्थामें) व्यापार करानेवाला, सूक्ष्म शरीर (जाग्रत् और स्वप्न- अवस्थाओंमें) इन्द्रिय-भोग प्रदान करनेवाला तथा कारण शरीर (सुषुप्तावस्थामें) आत्मानन्द- की अनुभूति करानेवाला कहा गया है।

 

जीवको उसके प्रारब्ध-कर्मानुसार सुख- दुःख प्राप्त होते हैं। वह अपने पुण्यकर्मोंके फलस्वरूप सुख और पापकर्मोंके फलस्वरूप दुःखका उपभोग करता है। अतः कर्मपाशसे बँधा हुआ जीव अपने त्रिविध शरीरसे होनेवाले शुभाशुभ कर्मोंद्वारा सदा चक्रकी भाँति बारंबार घुमाया जाता है।

 

इस चक्रवत् भ्रमणकी निवृत्तिके लिये चक्रकर्ताका स्तवन एवं आराधन करना चाहिये। प्रकृति आदि जो आठ पाश बतलाये गये हैं, उनका समुदाय ही महाचक्र है और जो प्रकृतिसे परे हैं, वे परमात्मा शिव हैं।

 

भगवान् महेश्वर ही प्रकृति आदि महाचक्रके कर्ता हैं; क्योंकि वे प्रकृतिसे परे हैं। जैसे बकायन नामक वृक्षका थाला जलको पीता और उगलता है, उसी प्रकार शिव प्रकृति आदिको अपने वशमें करके उसपर शासन करते हैं।

 

उन्होंने सबको वशमें कर लिया है, इसीलिये वे शिव कहे गये हैं। शिव ही सर्वज्ञ, परिपूर्ण तथा निःस्पृह हैं। सर्वज्ञता, तृप्ति, अनादि बोध, स्वतन्त्रता, नित्य अलुप्त शक्तिसे संयुक्त होना और अपने भीतर अनन्त शक्तियोंको धारण करना – महेश्वरके इन छः प्रकारके मानसिक ऐश्वर्योंको केवल वेद जानता है।

 

अतः भगवान् शिवके अनुग्रहसे ही प्रकृति आदि आठों तत्त्व वशमें होते हैं। भगवान् शिवका कृपाप्रसाद प्राप्त करनेके लिये उन्हींका पूजन करना चाहिये।

 

यदि कहें शिव तो परिपूर्ण हैं, निःस्पृह हैं; उनकी पूजा कैसे हो सकती है? तो इसका उत्तर यह है कि भगवान् शिवके उद्देश्यसे- उनकी प्रसन्नताके लिये किया हुआ सत्कर्म उनके कृपाप्रसादको प्राप्त करानेवाला होता है।

 

शिवलिंगमें, शिवकी प्रतिमामें तथा शिवभक्तजनोंमें शिवकी भावना करके उनकी प्रसन्नताके लिये पूजा करनी चाहिये। वह पूजन शरीरसे, मनसे, वाणीसे और धनसे भी किया जा सकता है।

 

उस पूजासे महेश्वर शिव, जो प्रकृतिसे परे हैं, पूजकपर विशेष कृपा करते हैं और उनका वह कृपाप्रसाद सत्य होता है। शिवकी कृपासे कर्म आदि सभी बन्धन अपने वशमें हो जाते हैं।

 

कर्मसे लेकर प्रकृतिपर्यन्त सब कुछ जब वशमें हो जाता है, तब वह जीव मुक्त कहलाता है और स्वात्मारामरूपसे विराजमान होता है। परमेश्वर शिवकी कृपासे जब कर्मजनित शरीर अपने वशमें हो जाता है, तब भगवान् शिवके लोकमें निवासका सौभाग्य प्राप्त होता है।

 

इसीको सालोक्य-मुक्ति कहते हैं। जब तन्मात्राएँ वशमें हो जाती हैं, तब जीव जगदम्बासहित शिवका सामीप्य प्राप्त कर लेता है। यह सामीप्य मुक्ति है, उसके आयुध आदि और क्रिया आदि सब कुछ भगवान् शिवके समान हो जाते हैं।

 

भगवान्‌का महाप्रसाद प्राप्त होनेपर बुद्धि भी वशमें हो जाती है। बुद्धि प्रकृतिका कार्य है। उसका वशमें होना साष्टिमुक्ति कहा गया है। पुनः भगवान्‌का महान् अनुग्रह प्राप्त होनेपर प्रकृति वशमें हो जायगी। उस समय भगवान् शिव- का मानसिक ऐश्वर्य बिना यत्नके ही प्राप्त हो जायगा।

 

सर्वज्ञता और तृप्ति आदि जो शिवके ऐश्वर्य हैं, उन्हें पाकर मुक्त पुरुष अपने आत्मामें ही विराजमान होता है। वेद और शास्त्रोंमें विश्वास रखनेवाले विद्वान् पुरुष इसीको सायुज्यमुक्ति कहते हैं। इस प्रकार लिंग आदिमें शिवकी पूजा करनेसे क्रमशः मुक्ति स्वतः प्राप्त हो जाती है।

 

इसलिये शिवका कृपाप्रसाद प्राप्त करनेके लिये तत्सम्बन्धी क्रिया आदिके द्वारा उन्हींका पूजन करना चाहिये। शिवक्रिया, शिवतप, शिवमन्त्र-जप, शिवज्ञान और शिवध्यानके लिये सदा उत्तरोत्तर अभ्यास बढ़ाना चाहिये।

 

प्रतिदिन प्रातःकालसे रातको सोते समयतक और जन्मकालसे लेकर मृत्युपर्यन्त सारा समय भगवान् शिवके चिन्तनमें ही बिताना चाहिये। सद्योजातादि मन्त्रों तथा नाना प्रकारके पुष्पोंसे जो शिवकी पूजा करता है, वह शिवको ही प्राप्त होगा।

 

ऋषि बोले-उत्तम व्रतका पालन करनेवाले सूतजी ! लिंग आदिमें शिवजीकी पूजाका क्या विधान है, यह हमें बताइये।

 

सूतजीने कहा-द्विजो ! मैं लिंगोंके क्रमका यथावत् वर्णन कर रहा हूँ तुम सब लोग सुनो। वह प्रणव ही समस्त अभीष्ट वस्तुओंको देनेवाला प्रथम लिंग है। उसे सूक्ष्म प्रणवरूप समझो। सूक्ष्म लिंग निष्कल होता है और स्थूल लिंग सकल।

 

पंचाक्षर- मन्त्रको ही स्थूल लिंग कहते हैं। उन दोनों प्रकारके लिंगोंका पूजन तप कहलाता है। वे दोनों ही लिंग साक्षात् मोक्ष देनेवाले हैं। पौरुष-लिंग और प्रकृति-लिंगके रूपमें बहुत- से लिंग हैं। उन्हें भगवान् शिव ही विस्तारपूर्वक बता सकते हैं। दूसरा कोई नहीं जानता। पृथ्वीके विकारभूत जो-जो लिंग ज्ञात हैं,

 

– उन-उनको मैं तुम्हें बता रहा हूँ। उनमें – स्वयम्भूलिंग प्रथम है। दूसरा बिन्दुलिंग, – तीसरा प्रतिष्ठितलिंग, चौथा चरलिंग और – पाँचवाँ गुरुलिंग है। देवर्षियोंकी तपस्यासे – सन्तुष्ट हो उनके समीप प्रकट होनेके लिये पृथ्वीके अन्तर्गत बीजरूपसे व्याप्त हुए भगवान् शिव वृक्षोंके अंकुरकी भाँति भूमिको भेदकर नादलिंगके रूपमें व्यक्त हो जाते हैं।

 

वे स्वतः व्यक्त हुए शिव ही स्वयं प्रकट होनेके कारण स्वयम्भू नाम धारण करते हैं। ज्ञानीजन उन्हें स्वयम्भूलिंगके रूपमें जानते हैं। उस स्वयम्भूलिंगकी पूजासे उपासकका ज्ञान स्वयं ही बढ़ने लगता है।

 

सोने-चाँदी आदिके पत्रपर, भूमिपर अथवा वेदीपर अपने हाथसे लिखित जो शुद्ध प्रणव मन्त्ररूप लिंग है, उसमें तथा मन्त्रलिंगका आलेखन करके उसमें भगवान् शिवकी प्रतिष्ठा और आवाहन करे।

 

ऐसा बिन्दुनादमय लिंग स्थावर और जंगम दोनों ही प्रकारका होता है। इसमें शिवका दर्शन भावनामय ही है, ऐसा निस्संदेह कहा जा सकता है। जिसको जहाँ भगवान् शंकरके प्रकट होनेका विश्वास हो, उसके लिये वहीं प्रकट होकर वे अभीष्ट फल प्रदान करते हैं।

 

अपने हाथसे लिखे हुए यन्त्रमें अथवा अकृत्रिम स्थावर आदिमें भगवान् शिवका आवाहन करके सोलह उपचारोंसे उनकी पूजा करे। ऐसा करनेसे साधक स्वयं ही ऐश्वर्यको प्राप्त कर लेता है और इस साधनके अभ्याससे उसको ज्ञान भी होता है।

 

देवताओं और ऋषियोंने आत्मसिद्धिके लिये अपने हाथसे वैदिक मन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक शुद्ध मण्डलमें शुद्ध भावनाद्वारा जिस उत्तम शिवलिंगकी स्थापना की है, उसे पौरुषलिंग कहते हैं तथा वही प्रतिष्ठितलिंग कहलाता है।

 

उस लिंगकी पूजा करनेसे सदा पौरुष ऐश्वर्यकी प्राप्ति होती है। महान् ब्राह्मण और महाधनी राजा किसी कारीगरसे शिवलिंगका निर्माण कराकर जो मन्त्रपूर्वक उसकी स्थापना करते हैं, उनके द्वारा स्थापित हुआ वह लिंग भी प्रतिष्ठितलिंग कहलाता है।

 

किंतु वह प्राकृतलिंग है। इसलिये प्राकृत ऐश्वर्य-भोगको ही देनेवाला होता है। जो शक्तिशाली और नित्य होता है, उसे पौरुष कहते हैं तथा जो दुर्बल और अनित्य होता है, वह प्राकृत कहलाता है।

 

लिंग, नाभि, जिह्वा, नासाग्रभाग और शिखाके क्रमसे कटि, हृदय और मस्तक तीनों स्थानोंमें जो लिंगकी भावना की गयी है, उस आध्यात्मिक लिंगको ही चरलिंग कहते हैं। पर्वतको पौरुषलिंग बताया गया है और भूतलको विद्वान् पुरुष प्राकृतलिंग मानते हैं।

 

वृक्ष आदिको पौरुषलिंग जानना चाहिये और गुल्म आदिको प्राकृतलिंग। साठी नामक धान्यको प्राकृतलिंग समझना चाहिये और शालि (अगहनी) एवं गेहूँको पौरुषलिंग। अणिमा आदि आठों सिद्धियोंको देनेवाला जो ऐश्वर्य है, उसे पौरुष ऐश्वर्य जानना चाहिये।

 

सुन्दर स्त्री तथा धन आदि विषयोंको आस्तिक पुरुष प्राकृत ऐश्वर्य कहते हैं। चरलिंगोंमें सबसे प्रथम रसलिंगका वर्णन किया जाता है। रसलिंग ब्राह्मणोंको उनकी सारी अभीष्ट वस्तुओंको देनेवाला है। शुभकारक बाणलिंग क्षत्रियोंको महान् राज्यकी प्राप्ति करानेवाला है।

 

सुवर्णलिंग वैश्योंको महाधनपतिका पद प्रदान करनेवाला है तथा सुन्दर शिवलिंग शूद्रोंको महाशुद्धि देनेवाला है। स्फटिकमय लिंग तथा बाणलिंग सब लोगोंको उनकी समस्त कामनाएँ प्रदान करते हैं। अपना न हो तो दूसरेका स्फटिक या बाणलिंग भी पूजाके लिये निषिद्ध नहीं है।

 

स्त्रियों, विशेषतः सधवाओंके लिये पार्थिव लिंगकी पूजाका विधान है। प्रवृत्ति- मार्गमें स्थित विधवाओंके लिये स्फटिक- लिंगकी पूजा बतायी गयी है। परंतु विरक्त विधवाओंके लिये रसलिंगकी पूजाको ही श्रेष्ठ कहा गया है।

 

उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महर्षियो ! बचपनमें, जवानीमें और बुढ़ापेमें भी शुद्ध स्फटिकमय शिवलिंगका पूजन स्त्रियोंको समस्त भोग प्रदान करनेवाला है। गृहासक्त स्त्रियोंके लिये पीठपूजा भूतलपर सम्पूर्ण अभीष्टको देनेवाली है। प्रवृत्तिमार्गमें चलनेवाला पुरुष सुपात्र गुरुके सहयोगसे ही समस्त पूजाकर्म सम्पन्न करे।

 

इष्टदेवका अभिषेक करनेके पश्चात् अगहनीके चावलसे बने हुए खीर आदि पक्वान्नोंद्वारा नैवेद्य अर्पण करे। पूजाके अन्तमें शिवलिंगको सम्पुटमें पधराकर घरके भीतर पृथक् रख दे। जो निवृत्तिमार्गी पुरुष हैं, उनके लिये हाथपर ही शिवलिंग-पूजाका विधान है।

 

उन्हें भिक्षादिसे प्राप्त हुए अपने भोजनको ही नैवेद्यरूपमें निवेदित करना चाहिये। निवृत्त पुरुषोंके लिये सूक्ष्म लिंग ही श्रेष्ठ बताया जाता है। वे विभूतिके द्वारा पूजन करें और विभूतिको ही नैवेद्यरूपसे निवेदित भी करें।

 

पूजा करके उस लिंगको सदा अपने मस्तकपर धारण करें।विभूति तीन प्रकारकी बतायी गयी है-लोकाग्निजनित, वेदाग्निजनित और शिवाग्निजनित।

 

लोकाग्निजनित या लौकिक भस्मको द्रव्योंकी शुद्धिके लिये लाकर रखे। मिट्टी, लकड़ी और लोहेके पात्रोंकी, धान्योंकी, तिल आदि द्रव्योंकी, वस्त्र आदिकी तथा पर्युषित वस्तुओंकी भस्मसे शुद्धि होती है।

 

कुत्ते आदिसे दूषित हुए पात्रोंकी भी भस्मसे ही शुद्धि मानी गयी है। वस्तु- विशेषकी शुद्धिके लिये यथायोग्य सजल अथवा निर्जल भस्मका उपयोग करना चाहिये। वेदाग्निजनित जो भस्म है, उसको उन-उन वैदिक कर्मोंके अन्तमें धारण करना चाहिये।

 

मन्त्र और क्रियासे जनित जो होमकर्म है, वह अग्निमें भस्मका रूप धारण करता है। उस भस्मको धारण करनेसे वह कर्म आत्मामें आरोपित हो जाता है। अघोर- मूर्तिधारी शिवका जो अपना मन्त्र है, उसे पढ़कर बेलकी लकड़ीको जलाये। उस मन्त्रसे अभिमन्त्रित अग्निको शिवाग्नि कहा गया है।

 

उसके द्वारा जले हुए काष्ठका जो भस्म है, वह शिवाग्निजनित है। कपिला गायके गोबर अथवा गायमात्रके गोबरको तथा शमी, पीपल, पलाश, बड़, अमलतास और बेर- इनकी लकड़ियोंको शिवाग्निसे जलाये। वह शुद्ध भस्म शिवाग्निजनित माना गया है अथवा कुशकी अग्निमें शिवमन्त्रके उच्चारणपूर्वक काष्ठको जलाये।

 

फिर उस भस्मको कपड़ेसे अच्छी तरह छानकर नये घड़ेमें भरकर रख दे। उसे समय-समयपर अपनी कान्ति या शोभाकी वृद्धिके लिये धारण करे। ऐसा करनेवाला  पुरुष सम्मानित एवं पूजित होता है।

 

पूर्वकालमें  भगवान् शिवने भस्म शब्दका ऐसा ही अर्थ- प्रकट किया था। जैसे राजा अपने राज्यमें – सारभूत करको ग्रहण करता है, जैसे मनुष्य सस्य आदिको जलाकर (राँधकर) उसका सार ग्रहण करते हैं तथा जैसे जठरानल नाना प्रकारके भक्ष्य, भोज्य आदि पदार्थोंको भारी मात्रामें ग्रहण करके जलाता, जलाकर सारतर वस्तु ग्रहण करता और उस सारतर वस्तुसे स्वदेहका पोषण करता है, उसी प्रकार प्रपंचकर्ता परमेश्वर शिवने भी अपनेमें आधेयरूपसे विद्यमान प्रपंचको जलाकर भस्मरूपसे उसके सारतत्त्वको ग्रहण किया है।

 

प्रपंचको दग्ध करके शिवने उसके भस्मको अपने शरीरमें लगाया है। राख, भभूत पोतनेके बहाने जगत्‌के सारको ही ग्रहण किया है। अपने शरीरमें अपने लिये रत्नस्वरूप भस्मको इस प्रकार स्थापित किया है-आकाशके सारतत्त्वसे केश, वायुके सारतत्त्वसे मुख, अग्निके सारतत्त्वसे हृदय, जलके सारतत्त्वसे कटिभाग और पृथ्वीके सारतत्त्वसे घुटनेको धारण किया है।

 

इसी तरह उनके सारे अंग विभिन्न वस्तुओंके साररूप हैं। महेश्वरने अपने ललाटमें तिलकरूपसे जो त्रिपुण्ड्र धारण किया है, वह ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रका सारतत्त्व है। वे इन सब वस्तुओंको जगत्‌के अभ्युदयका हेतु मानते हैं।

 

इन भगवान् शिवने ही प्रपंचके सार-सर्वस्वको अपने वशमें किया है। अतः इन्हें अपने वशमें करनेवाला दूसरा कोई नहीं है। जैसे समस्त मृगोंका हिंसक मृग सिंह कहलाता है और उसकी हिंसा करनेवाला दूसरा कोई मृग नहीं है, अतएव उसे सिंह कहा गया है।

 

शकारका अर्थ है नित्यसुख एवं आनन्द, इकारका अर्थ है पुरुष और वकारका अर्थ है अमृतस्वरूपा शक्ति। इन सबका सम्मिलित रूप ही शिव कहलाता है।

 

अतः इस रूपमें भगवान् शिवको अपना आत्मा मानकर उनकी पूजा करनी चाहिये; अतः पहले अपने अंगोंमें भस्म मले।  फिर ललाटमें उत्तम त्रिपुण्ड्र धारण करे। पूजाकालमें सजल भस्मका उपयोग होता है और द्रव्यशुद्धिके लिये निर्जल भस्मका। गुणातीत परम शिव राजस आदि सविकार गुणोंका अवरोध करते हैं- दूर हटाते हैं, इसलिये वे सबके गुरुरूपका आश्रय लेकर स्थित हैं।

 

गुरु विश्वासी शिष्योंके तीनों गुणोंको पहले दूर करके फिर उन्हें शिवतत्त्वका बोध कराते हैं, इसीलिये गुरु कहलाते हैं। गुरुकी पूजा परमात्मा शिवकी ही पूजा है। गुरुके उपयोगसे बचा हुआ सारा पदार्थ आत्मशुद्धि करनेवाला होता है।

 

गुरुकी आज्ञाके बिना उपयोगमें लाया हुआ सब कुछ वैसा ही है, जैसे चोर चोरी करके लायी हुई वस्तुका उपयोग करता है। गुरुसे भी विशेष ज्ञानवान् पुरुष मिल जाय तो उसे भी यत्नपूर्वक गुरु बना लेना चाहिये।

 

अज्ञानरूपी बन्धनसे छूटना ही जीवमात्रके लिये साध्य पुरुषार्थ है। अतः जो विशेष ज्ञानवान् है, वही जीवको उस बन्धनसे छुड़ा सकता है।

 

जन्म और मरणरूप द्वन्द्वको भगवान् शिव  की मायाने ही अर्पित किया है। जो इन दोनोंको शिवकी मायाको ही अर्पित कर देता है, वह फिर शरीरके बन्धनमें नहीं पड़ता। जबतक शरीर रहता है, तबतक जो क्रियाके ही अधीन है, वह जीव बद्ध कहलाता है।

 

स्थूल, सूक्ष्म और कारण -तीनों शरीरोंको वशमें कर लेनेपर जीवका मोक्ष हो जाता है, ऐसा ज्ञानी पुरुषोंका कथन है। मायाचक्रके निर्माता भगवान् शिव ही परम कारण हैं। वे अपनी मायाके दिये हुए द्वन्द्वका स्वयं ही परिमार्जन करते हैं। अतः शिवके द्वारा कल्पित हुआ द्वन्द्व उन्हींको समर्पित कर देना चाहिये।

 

जो शिवकी पूजामें तत्पर हो, वह मौन रहे, सत्य आदि गुणोंसे संयुक्त हो तथा क्रिया, जप, तप, ज्ञान और ध्यानमेंसे एक-एकका अनुष्ठान करता रहे। ऐश्वर्य, दिव्य शरीरकी प्राप्ति, ज्ञानका उदय, अज्ञानका निवारण और भगवान् शिवके सामीप्यका लाभ – ये क्रमशः क्रिया आदिके फल हैं।

 

निष्काम कर्म करनेसे अज्ञानका निवारण हो जानेके कारण शिवभक्त पुरुष उसके यथोक्त फलको पाता है। शिवभक्त पुरुष देश, काल, शरीर और धनके अनुसार यथायोग्य क्रिया आदिका अनुष्ठान करे।

 

न्यायोपार्जित उत्तम धनसे निर्वाह करते हुए विद्वान् पुरुष शिवके स्थानमें निवास करे। जीवहिंसा आदिसे रहित और अत्यन्त क्लेशशून्य जीवन बिताते हुए पंचाक्षर-मन्त्रके जपसे अभिमन्त्रित अन्न और जलको सुखस्वरूप माना गया है अथवा कहते हैं कि दरिद्र पुरुषके लिये भिक्षासे प्राप्त हुआ अन्न ज्ञान देनेवाला होता है।

 

शिवभक्तको भिक्षान्न प्राप्त हो तो वह शिवभक्तिको बढ़ाता है। शिवयोगी पुरुष भिक्षान्नको शम्भुसत्र कहते हैं। जिस किसी भी उपायसे जहाँ-कहीं भी भूतलपर शुद्ध अन्नका भोजन करते हुए सदा मौन- भावसे रहे और अपने साधनका रहस्य किसीपर प्रकट न करे। भक्तोंके समक्ष ही  शिवके माहात्म्यको प्रकाशित करे। शिवमन्त्रके रहस्यको भगवान् शिव ही जानते हैं, दूसरा नहीं।

 

(अध्याय १८)

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