Shiv puran vidyeshwar samhita chapter 15(श्रीशिवमहापुराण विद्येश्वरसंहिता  अध्याय 15 देश, काल, पात्र और दान आदिका विचार)

Shiv puran vidyeshwar samhita chapter 15(श्रीशिवमहापुराण विद्येश्वरसंहिता  अध्याय 15 देश, काल, पात्र और दान आदिका विचार)

(अध्याय 15)

 

:-ऋषियोंने कहा- समस्त पदार्थोंके ज्ञाताओंमें श्रेष्ठ सूतजी ! अब आप क्रमशः देश, काल आदिका वर्णन करें।

 

सूतजी बोले-महर्षियो ! देवयज्ञ आदि कर्मोंमें अपना शुद्ध गृह समान फल देनेवाला होता है अर्थात् अपने घरमें किये हुए देवयज्ञ आदि शास्त्रोक्त फलको सममात्रामें देनेवाले होते हैं। गोशालाका स्थान घरकी अपेक्षा दसगुना फल देता है।

 

जलाशयका तट उससे भी दसगुना महत्त्व रखता है तथा जहाँ बेल, तुलसी एवं पीपलवृक्षका मूल निकट हो, वह स्थान जलाशयके तटसे भी दसगुना फल देनेवाला होता है।

 

देवालयको उससे भी दसगुने महत्त्वका स्थान जानना चाहिये। देवालयसे भी दसगुना महत्त्व रखता है तीर्थभूमिका तट। उससे दसगुना श्रेष्ठ है नदीका किनारा। उससे दसगुना उत्कृष्ट है तीर्थनदीका तट और उससे भी दसगुना महत्त्व रखता है सप्तगंगा नामक नदियोंका तीर्थ।

 

गंगा, गोदावरी, कावेरी, ताम्रपर्णी, सिन्धु, सरयू और नर्मदा – इन सात नदियोंको सप्तगंगा कहा गया है। समुद्रके तटका स्थान इनसे भी दसगुना पवित्र माना गया है और पर्वतके शिखरका प्रदेश समुद्रतटसे भी दसगुना पावन है।

सबसे अधिक महत्त्वका वह स्थान जानना चाहिये, जहाँ मन लग जाय।यहाँतक देशका वर्णन हुआ, अब कालका तारतम्य बताया जाता है -सत्ययुगमें यज्ञ, दान आदि कर्म पूर्ण फल देनेवाले होते हैं, ऐसा जानना चाहिये। त्रेतायुगमें उसका तीन चौथाई फल मिलता है।

 

द्वापरमें सदा आधे ही फलकी प्राप्ति कही गयी है। कलियुगमें एक चौथाई ही फलकी प्राप्ति समझनी चाहिये और आधा कलियुग बीतनेपर उस चौथाई फलमेंसे भी एक चतुर्थांश कम हो जाता है। शुद्ध अन्तःकरणवाले पुरुषको शुद्ध एवं पवित्र दिन सम फल देनेवाला होता है।

विद्वान् ब्राह्मणो ! सूर्य-संक्रान्तिके दिन किया हुआ सत्कर्म पूर्वोक्त शुद्ध दिनकी अपेक्षा दसगुना फल देनेवाला होता है, यह जानना चाहिये। उससे भी दसगुना महत्त्व उस कर्मका है, जो विषुव * नामक योगमें किया जाता है।

 

दक्षिणायन आरम्भ होनेके दिन अर्थात् कर्ककी संक्रान्तिमें किये हुए पुण्यकर्मका महत्त्व विषुवसे भी दसगुना माना गया है। उससे भी दसगुना मकर- संक्रान्तिमें और उससे भी दसगुना चन्द्रग्रहणमें किये हुए पुण्यका महत्त्व है।

सूर्यग्रहणका समय सबसे उत्तम है। उसमें किये गये पुण्यकर्मका फल चन्द्रग्रहणसे भी अधिक और पूर्णमात्रामें होता है, इस बातको विज्ञ पुरुष जानते हैं। जगद्रूपी सूर्यका राहुरूपी विषसे संयोग होता है, इसलिये सूर्यग्रहणका समय रोग प्रदान करनेवाला है। अतः उस विषकी शान्तिके लिये उस समय स्नान, दान और जप करे।

 

वह काल विषकी शान्तिके लिये उपयोगी होनेके कारण पुण्यप्रद माना गया है। जन्मनक्षत्रके दिन तथा व्रतकी पूर्तिके दिनका समय सूर्यग्रहणके समान ही समझा जाता है। परंतु महापुरुषोंके संगका काल करोड़ों सूर्यग्रहणके समान पावन है, ऐसा ज्ञानी पुरुष जानते-मानते हैं।

तपोनिष्ठ योगी और ज्ञाननिष्ठ यति – ये पूजाके पात्र हैं; क्योंकि ये पापोंके नाशमें कारण होते हैं। जिसने चौबीस लाख गायत्रीका जप कर लिया हो, वह ब्राह्मण भी पूजाका उत्तम पात्र है।

 

वह सम्पूर्ण फलों और भोगोंको देनेमें समर्थ है। जो पतनसे त्राण करता अर्थात् नरकमें गिरनेसे बचाता है, उसके लिये इसी गुणके कारण शास्त्रमें ‘पात्र’ शब्दका प्रयोग होता है। वह दाताका पातकसे त्राण करनेके कारण ‘पात्र’ १ कहलाता है। गायत्री अपने गायकका पतनसे त्राण करती है; इसीलिये वह ‘गायत्री’ कहलाती है।

 

जैसे इस लोकमें जो धनहीन है, वह दूसरेको धन नहीं देता – जो यहाँ धनवान् है, वही दूसरेको धन दे सकता है, उसी तरह जो स्वयं शुद्ध और पवित्रात्मा है, वही दूसरे मनुष्योंका त्राण या उद्धार कर सकता है। जो गायत्रीका जप करके शुद्ध हो गया है, वही शुद्ध ब्राह्मण कहलाता है।

 

इसलिये दान, जप, होम और पूजा सभी कर्मोंके लिये वही शुद्ध पात्र है। ऐसा ब्राह्मण ही दान तथा रक्षा करनेकी पात्रता रखता है। *

 स्त्री हो या पुरुष-जो भी भूखा हो, वही अन्नदानका पात्र है। जिसको जिस वस्तुकी इच्छा हो, उसे वह वस्तु बिना माँगे ही दे दी जाय तो दाताको उस दानका पूरा-पूरा फल प्राप्त होता है, ऐसी महर्षियोंकी मान्यता है।

 

जो सवाल या याचना करनेके बाद दिया गया हो, वह दान आधा ही फल देनेवाला बताया गया है। अपने सेवकको दिया हुआ दान एक चौथाई फल देनेवाला होता है।

 

विप्रवरो ! जो जातिमात्रसे ब्राह्मण है और दीनतापूर्ण वृत्तिसे जीवन बिताता है, उसे दिया हुआ धनका दान दाताको इस भूतलपर दस वर्षांतक भोग प्रदान करनेवाला – होता है।

 

वही दान यदि वेदवेत्ता ब्राह्मणको दिया जाय तो वह स्वर्गलोकमें देवताओंके -वर्षसे दस वर्षोंतक दिव्य भोग देनेवाला -होता है। शिल और उञ्छवृत्तिसे २ लाया – हुआ और गुरुदक्षिणामें प्राप्त हुआ अन्न-धन शुद्ध द्रव्य कहलाता है। उसका दान – दाताको पूर्ण फल देनेवाला बताया गया है।

 

क्षत्रियोंका शौर्यसे कमाया हुआ, वैश्योंका – व्यापारसे आया हुआ और शूद्रोंका सेवावृत्तिसे – प्राप्त किया हुआ धन भी उत्तम द्रव्य कहलाता है। धर्मकी इच्छा रखनेवाली स्त्रियोंको जो धन पिता एवं पतिसे मिला हुआ हो, उनके लिये वह उत्तम द्रव्य है।

 

गौ आदि बारह वस्तुओंका चैत्र आदि- बारह महीनोंमें क्रमशः दान करना चाहिये।गौ, भूमि, तिल, सुवर्ण, घी, वस्त्र, धान्य,गुड़, चाँदी, नमक, कोहड़ा और कन्या – ये ही वे बारह वस्तुएँ हैं। इनमें गोदानसे कायिक, वाचिक और मानसिक पापोंका निवारण तथा कायिक आदि पुण्यकर्मोंकी पुष्टि होती है।

 

ब्राह्मणो ! भूमिका दान इहलोक और परलोकमें प्रतिष्ठा (आश्रय)- की प्राप्ति करानेवाला है। तिलका दान बलवर्धक एवं मृत्युका निवारक होता है। सुवर्णका दान जठराग्निको बढ़ानेवाला तथा वीर्यदायक है। घीका दान पुष्टिकारक होता है। वस्त्रका दान आयुकी वृद्धि करानेवाला है, ऐसा जानना चाहिये। धान्यका दान अन्न-धनकी समृद्धिमें कारण होता है।

 

गुड़का दान मधुर भोजनकी प्राप्ति करानेवाला होता है। चाँदीके दानसे वीर्यकी वृद्धि होती है। लवणका दान षड्रस भोजनकी प्राप्ति कराता है। सब प्रकारका दान सारी समृद्धिकी सिद्धिके लिये होता है। विज्ञ पुरुष कूष्माण्डके दानको पुष्टिदायक मानते हैं।

 

कन्याका दान आजीवन भोग देनेवाला कहा गया है। ब्राह्मणो ! वह लोक और परलोकमें भी सम्पूर्ण भोगोंकी प्राप्ति करानेवाला है। विद्वान् पुरुषको चाहिये कि जिन वस्तुओंसे श्रवण आदि इन्द्रियोंकी तृप्ति होती है, उनका सदा दान करे।

 

श्रोत्र आदि दस इन्द्रियोंके जो शब्द आदि दस विषय हैं, उनका दान किया जाय तो वे भोगोंकी प्राप्ति कराते हैं तथा दिशा आदि इन्द्रिय * देवताओंको संतुष्ट करते हैं।

 

वेद और शास्त्रको गुरुमुखसे ग्रहण करके गुरुके उपदेशसे अथवा स्वयं ही बोध प्राप्त करनेके पश्चात् जो बुद्धिका यह निश्चय होता है कि’ कर्मोंका फल अवश्य मिलता है’, इसीको उच्चकोटिकी ‘आस्तिकता’ कहते हैं।

 

भाई- बन्धु अथवा राजाके भयसे जो आस्तिकता- बुद्धि या श्रद्धा होती है, वह कनिष्ठ श्रेणीकी आस्तिकता है। जो सर्वथा दरिद्र है, इसलिये जिसके पास सभी वस्तुओंका अभाव है, वह वाणी अथवा कर्म (शरीर)- द्वारा यजन करे।

 

मन्त्र, स्तोत्र और जप आदिको वाणीद्वारा किया गया यजन समझना चाहिये तथा तीर्थयात्रा और व्रत आदिको विद्वान् पुरुष शारीरिक यजन मानते हैं। जिस किसी भी उपायसे थोड़ा हो या बहुत, देवतार्पण- बुद्धिसे जो कुछ भी दिया अथवा किया जाय, वह दान या सत्कर्म भोगोंकी प्राप्ति करानेमें समर्थ होता है।

तपस्या और दान – ये दो कर्म मनुष्यको सदा करने चाहिये तथा ऐसे गृहका दान करना चाहिये, जो अपने वर्ण (चमक-दमक या सफाई) और गुण (सुख-सुविधा)-से सुशोभित हो। बुद्धिमान् पुरुष देवताओंकी तृप्तिके लिये जो कुछ देते हैं, वह अतिशय मात्रामें और सब प्रकारके भोग प्रदान करनेवाला होता है।

 

उस दानसे विद्वान् पुरुष इहलोक और परलोकमें उत्तम जन्म और सदा सुलभ यज्ञ-दान आदि कर्म करके मनुष्य मोक्ष- होनेवाला भोग पाता है। ईश्वरार्पणबुद्धिसे फलका भागी होता है।

 

(अध्याय १५)

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