Shiv puran vidyeshwar samhita chapter 13(श्रीशिवमहापुराण विद्येश्वरसंहिता अध्याय 13 सदाचार, शौचाचार, स्नान, भस्मधारण, संध्यावन्दन, प्रणव-जप, गायत्री-जप, दान, न्यायतः धनोपार्जन तथा अग्निहोत्र आदिकी विधि एवं महिमाका वर्णन)
(अध्याय 13)
:’ऋषियोंने कहा-सूतजी ! अब आप शीघ्र ही हमें वह सदाचार सुनाइये, जिससे विद्वान् पुरुष पुण्यलोकोंपर विजय पाता है। स्वर्ग प्रदान करनेवाले धर्ममय आचार तथा नरकका कष्ट देनेवाले अधर्ममय आचारोंका भी वर्णन कीजिये।
सूतजी बोले-सदाचारका पालन करनेवाला विद्वान् ब्राह्मण ही वास्तवमें ‘ब्राह्मण’ नाम धारण करनेका अधिकारी है। जो केवल वेदोक्त आचारका पालन करनेवाला एवं वेदका अभ्यासी है, उस ब्राह्मणकी ‘विप्र’ संज्ञा होती है।
सदाचार, वेदाचार तथा विद्या- इनमेंसे एक-एक गुणसे ही युक्त होनेपर उसे ‘द्विज’ कहते हैं। जिसमें स्वल्पमात्रामें ही आचारका पालन देखा जाता है, जिसने वेदाध्ययन भी बहुत कम किया है तथा जो राजाका सेवक (पुरोहित, मन्त्री आदि) है, उसे ‘क्षत्रिय- ब्राह्मण’ कहते हैं।
जो ब्राह्मण कृषि तथा वाणिज्य कर्म करनेवाला है और कुछ-कुछ ब्राह्मणोचित आचारका भी पालन करता है, वह ‘वैश्य-ब्राह्मण’ है तथा जो स्वयं ही खेत जोतता (हल चलाता) है, उसे ‘शूद्र- ब्राह्मण’ कहा गया है। जो दूसरोंके दोष देखनेवाला और परद्रोही है, उसे ‘चाण्डाल-द्विज’ कहते हैं।
इसी तरह क्षत्रियोंमें भी जो पृथ्वीका पालन करता है, वह ‘राजा’ है। दूसरे लोग राजत्वहीन क्षत्रिय माने गये हैं। वैश्योंमें भी जो धान्य आदि वस्तुओंका क्रय-विक्रय करता है, वह ‘वैश्य’ कहलाता है। दूसरोंको ‘वणिक्’ कहते हैं। जो ब्राह्मणों, क्षत्रियों तथा वैश्योंकी सेवामें लगा रहता है, वही वास्तवमें ‘शूद्र’ कहलाता है।
जो शूद्र हल जोतनेका काम करता है, उसे ‘वृषल’ समझना चाहिये। सेवा, शिल्प और कर्षणसे भिन्न वृत्तिका आश्रय लेनेवाले शूद्र ‘दस्यु’ कहलाते हैं। इन सभी वर्णोंके मनुष्योंको चाहिये कि वे ब्राह्ममुहूर्तमें उठकर पूर्वाभिमुख हो सबसे पहले देवताओंका, फिर धर्मका, अर्थका, उसकी प्राप्तिके लिये उठाये जानेवाले क्लेशोंका तथा आय और व्ययका भी चिन्तन करें।
रातके पिछले पहरको उषःकाल जानना चाहिये। उस अन्तिम पहरका जो आधा या मध्यभाग है, उसे संधि कहते हैं। उस संधिकालमें उठकर द्विजको मल-मूत्र आदिका त्याग करना चाहिये। घरसे दूर जाकर बाहरसे अपने शरीरको ढके रखकर दिनमें उत्तराभिमुख बैठकर मल-मूत्रका त्याग करे।
यदि उत्तराभिमुख बैठनेमें कोई रुकावट हो तो दूसरी दिशाकी ओर मुख करके बैठे। जल, अग्नि, ब्राह्मण आदि तथा देवताओंका सामना बचाकर बैठे। मल-त्याग करके उठनेपर फिर उस मलको न देखे।
तदनन्तर जलाशयसे बाहर निकाले हुए जलसे ही गुदाकी शुद्धि करे अथवा देवताओं, पितरों तथा ऋषियोंके तीर्थोंमें उतरे बिना ही प्राप्त हुए जलसे शुद्धि करनी चाहिये।
गुदामें सात, पाँच या तीन बार मिट्टी लगाकर उसे धोकर शुद्ध करे। लिंगमें ककोड़ेके फलके बराबर मिट्टी लेकर लगाये और उसे धो दे। परंतु गुदामें लगानेके लिये एक पसर मिट्टीकी आवश्यकता होती है।
लिंग और गुदाकी शुद्धिके पश्चात् उठकर अन्यत्र जाय और हाथ-पैरोंकी शुद्धि करके आठ बार कुल्ला करे। जिस किसी वृक्षके पत्तेसे अथवा उसके पतले काष्ठसे जलके बाहर दतुअन करना चाहिये।
उस समय तर्जनी अंगुलिका उपयोग न करे। यह दन्तशुद्धिका विधान बताया गया है। तदनन्तर जल-सम्बन्धी देवताओंको नमस्कार करके मन्त्रपाठ करते हुए जलाशयमें स्नान करे।
यदि कण्ठतक या कमरतक पानीमें खड़े होनेकी शक्ति न हो तो घुटनेतक जलमें खड़ा हो अपने ऊपर जल छिड़ककर मन्त्रोच्चारणपूर्वक स्नान-कार्य सम्पन्न करे। विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वहाँ तीर्थजलसे देवता आदिका स्नानांग-तर्पण भी करे।
इसके बाद धौतवस्त्र लेकर पाँच कच्छ करके उसे धारण करे। साथ ही कोई उत्तरीय भी धारण कर ले; क्योंकि संध्या-वन्दन आदि सभी कर्मोंमें उसकी आवश्यकता होती है।
नदी आदि तीर्थोंमें स्नान करनेपर स्नान-सम्बन्धी उतारे हुए वस्त्रको वहाँ न धोये। स्नानके पश्चात् विद्वान् पुरुष भीगे हुए उस वस्त्रको बावड़ीमें, कुएँके पास अथवा घर आदिमें ले जाय और वहाँ पत्थरपर, लकड़ी आदिपर, जलमें या स्थलमें अच्छी तरह धोकर उस वस्त्रको निचोड़े।
द्विजो ! वस्त्रको निचोड़नेसे जो जल गिरता है, वह एक श्रेणीके पितरोंकी तृप्तिके लिये होता है। इसके बाद जाबालि- उपनिषद्में बताये गये ‘अग्निरिति०’ मन्त्रसे भस्म लेकर उसके द्वारा त्रिपुण्ड्र लगाये।*
इस विधिका पालन न किया जाय,इसके पूर्व ही यदि जलमें भस्म गिर जाय तो गिरानेवाला नरकमें जाता है। ‘आपो हि ष्ठा०’ इत्यादि मन्त्रसे पाप-शान्तिके लिये सिरपर जल छिड़के तथा ‘यस्य क्षयाय’ इस मन्त्रको पढ़कर पैरपर जल छिड़के। इसे संधिप्रोक्षण कहते हैं।
‘आपो हि ष्ठा०’ इत्यादि मन्त्रमें तीन ऋचाएँ हैं और प्रत्येक ऋचामें गायत्री छन्दके तीन-तीन चरण हैं। इनमेंसे प्रथम ऋचाके तीन चरणोंका पाठ करते हुए क्रमशः पैर, मस्तक और हृदयमें जल छिड़के।
दूसरी ऋचाके तीन चरणोंको पढ़कर क्रमशः मस्तक, हृदय और पैरमें जल छिड़के तथा तीसरी ऋचाके तीन चरणोंका पाठ करते हुए क्रमशः हृदय, पैर और मस्तकका जलसे प्रोक्षण करे। इसे विद्वान् पुरुष ‘मन्त्र-स्नान’ मानते हैं।
किसी अपवित्र वस्तुसे किंचित् स्पर्श हो जानेपर, अपना स्वास्थ्य ठीक न रहनेपर, राजा और राष्ट्रपर भय उपस्थित होनेपर तथा यात्राकालमें जलकी उपलब्धि न होनेकी विवशता आ जानेपर ‘मन्त्र- स्नान’ करना चाहिये।
प्रातःकाल ‘सूर्यश्च मा मन्युश्च’ इत्यादि सूर्यानुवाकसे तथा सायंकाल ‘अग्निश्च मा मन्युश्च’ इत्यादि अग्नि-सम्बन्धी अनुवाकसे जलका आचमन करके पुनः जलसे अपने अंगोंका प्रोक्षण करे। मध्याह्नकालमें भी ‘आपः पुनन्तु’ इस मन्त्रसे आचमन करके पूर्ववत् प्रोक्षण या मार्जन करना चाहिये। प्रातःकालकी संध्योपासनामें गायत्री-
मन्त्रका जप करके तीन बार ऊपरकी ओर सूर्यदेवको अर्घ्य देने चाहिये। ब्राह्मणो !मध्याह्नकालमें गायत्री-मन्त्रके उच्चारणपूर्वक सूर्यको एक ही अर्घ्य देना चाहिये। फिर सायंकाल आनेपर पश्चिमकी ओर मुख करके बैठ जाय और पृथ्वीपर ही सूर्यके लिये अर्घ्य दे (ऊपरकी ओर नहीं)।
प्रातःकाल और मध्याह्नके समय अंजलिमें अर्घ्यजल लेकर अंगुलियोंकी ओरसे सूर्यदेवके लिये अर्घ्य दे। फिर अंगुलियोंके छिद्रसे ढलते हुए सूर्यको देखे तथा उनके लिये स्वतः प्रदक्षिणा करके शुद्ध आचमन करे। सायंकालमें सूर्यास्तसे दो घड़ी पहले की हुई संध्या निष्फल होती है; क्योंकि वह सायं संध्याका समय नहीं है।
ठीक समयपर संध्या करनी चाहिये, ऐसी शास्त्रकी आज्ञा है। यदि संध्योपासना किये बिना दिन बीत जाय तो प्रत्येक समयके लिये क्रमशः प्रायश्चित्त करना चाहिये। यदि एक दिन बीते तो प्रत्येक बीते हुए संध्याकालके लिये नित्य-नियमके अतिरिक्त सौ गायत्री- मन्त्रका अधिक जप करे।
यदि नित्यकर्मके लुप्त हुए दस दिनसे अधिक बीत जाय तो उसके प्रायश्चित्तरूपमें एक लाख गायत्रीका जप करना चाहिये। यदि एक मासतक नित्यकर्म छूट जाय तो पुनः अपना उपनयनसंस्कार कराये।
अर्थसिद्धिके लिये ईश, गौरी, कार्तिकेय, विष्णु, ब्रह्मा, चन्द्रमा और यमका तथा ऐसे ही अन्य देवताओंका भी शुद्ध जलसे तर्पण करे। फिर तर्पण कर्मको ब्रह्मार्पण करके शुद्ध आचमन करे।
तीर्थके दक्षिण प्रशस्त मठमें, मन्त्रालयमें, देवालयमें, घरमें अथवा अन्य किसी नियतु स्थानमें आसनपर स्थिरतापूर्वक बैठकर विद्वान् पुरुष अपनी बुद्धिको स्थिर करे और सम्पूर्ण देवताओंको नमस्कार करके पहले प्रणवका जप करनेके पश्चात् गायत्री-
मन्त्रकी आवृत्ति करे। प्रणवके ‘अ’, ‘उ’ और ‘म्’ इन तीनों अक्षरोंसे जीव और ब्रह्मकी एकताका प्रतिपादन होता है- इस बातको जानकर प्रणव (ॐ) का जप करना चाहिये। जपकालमें यह भावना करनी चाहिये कि ‘हम तीनों लोकोंकी सृष्टि करनेवाले ब्रह्मा, पालन करनेवाले विष्णु तथा संहार करनेवाले रुद्रकी – जो स्वयंप्रकाश चिन्मय हैं-उपासना करते हैं।
यह ब्रह्मस्वरूप ओंकार हमारी कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियोंकी वृत्तियोंको, मनकी वृत्तियोंको तथा बुद्धिवृत्तियोंको सदा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले धर्म एवं ज्ञानकी ओर प्रेरित करे।’ प्रणवके इस अर्थका बुद्धिके द्वारा चिन्तन करता हुआ जो इसका जप करता है, वह निश्चय ही ब्रह्मको प्राप्त कर लेता है।
अथवा अर्थानुसंधानके बिना भी प्रणवका नित्य जप करना चाहिये। इससे ‘ब्राह्मणत्वकी पूर्ति’ होती है। ब्राह्मणत्वकी पूर्तिके लिये श्रेष्ठ ब्राह्मणको प्रतिदिन प्रातःकाल एक सहस्त्र गायत्री- मन्त्रका जप करना चाहिये। मध्याह्नकालमें सौ बार और सायंकालमें अट्ठाईस बार जपकी विधि है।
अन्य वर्णके लोगोंको अर्थात् क्षत्रिय और वैश्यको तीनों संध्याओंके समय यथासाध्य गायत्री-जप करना चाहिये। शरीरके भीतर मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, आज्ञा और सहस्त्रार- ये छः चक्र हैं। इनमें मूलाधारसे लेकर सहस्त्रार तक छहों स्थानोंमें क्रमशः विद्येश्वर, ब्रह्मा, विष्णु,ईश, जीवात्मा और परमेश्वर स्थित हैं।
इन सबमें ब्रह्मबुद्धि करके इनकी एकताका निश्चय करे और ‘वह ब्रह्म मैं हूँ’ ऐसी भावनापूर्वक प्रत्येक श्वासके साथ ‘सोऽहं’-का जप करे। उन्हीं विद्येश्वर आदिकी ब्रह्मरन्ध्र आदिमें तथा इस शरीरसे बाहर भी भावना करे।
प्रकृतिके विकारभूत महत्तत्त्वसे लेकर पंचभूतपर्यन्त तत्त्वोंसे बना हुआ जो शरीर है, ऐसे सहस्त्रों शरीरोंका एक-एक अजपा गायत्रीके जपसे एक-एकके क्रमसे अतिक्रमण करके जीवको धीरे-धीरे परमात्मा- से संयुक्त करे।
यह जपका तत्त्व बताया गया है। सौ अथवा अट्ठाईस मन्त्रोंके जपसे उतने ही शरीरोंका अतिक्रमण होता है। इस प्रकार जो मन्त्रोंका जप है, इसीको आदिक्रमसे वास्तविक जप जानना चाहिये। सहस्त्र बार किया हुआ जप ब्रह्मलोक प्रदान करनेवाला होता है, ऐसा जानना चाहिये।
सौ बार किया हुआ जप इन्द्रपदकी प्राप्ति करानेवाला माना गया है। ब्राह्मणेतर पुरुष आत्मरक्षाके लिये जो स्वल्पमात्रामें जप करता है, वह ब्राह्मणके कुलमें जन्म लेता है। प्रतिदिन सूर्योपस्थान करके उपर्युक्तरूपसे जपका अनुष्ठान करना चाहिये।
बारह लाख गायत्रीका जप करनेवाला पुरुष पूर्णरूपसे ‘ब्राह्मण’ कहा गया है। जिस ब्राह्मणने एक लाख गायत्रीका भी जप न किया हो, उसे वैदिक कार्यमें न लगाये। सत्तर वर्षकी अवस्थातक नियमपालनपूर्वक कार्य करे।
इसके बाद गृहत्यागकर संन्यास ले ले। परिव्राजक या संन्यासी पुरुष नित्य प्रातःकाल बारह हजार प्रणवका जप करे। यदि एक दिन इस नियमका उल्लंघन हो जाय तो दूसरे दिन उसके बदलेमें उतना मन्त्र और अधिक जपना चाहिये और सदा इस प्रकार जप- को चलानेका प्रयत्न करना चाहिये।
यदि क्रमशः एक मास आदिका उल्लंघन हो गया तो डेढ़ लाख जप करके उसका प्रायश्चित्त करना चाहिये। इससे अधिक समयतक नियमका उल्लंघन हो जाय तो पुनः नये सिरेसे गुरुसे नियम ग्रहण करे। ऐसा करनेसे दोषोंकी शान्ति होती है, अन्यथा वह रौरव नरकमें जाता है।
जो सकाम भावनासे युक्त गृहस्थ ब्राह्मण है, उसीको धर्म तथा अर्थके लिये यत्न करना चाहिये। मुमुक्षु ब्राह्मणको तो सदा ज्ञानका ही अभ्यास करना चाहिये। धर्मसे अर्थकी प्राप्ति होती है, अर्थसे भोग सुलभ होता है। फिर उस भोगसे वैराग्यकी सम्भावना होती है।
धर्मपूर्वक उपार्जित धनसे जो भोग प्राप्त होता है, उससे एक दिन अवश्य वैराग्यका उदय होता है। धर्मके विपरीत अधर्मसे उपार्जित हुए धनके द्वारा जो भोग प्राप्त होता है, उससे भोगोंके प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है। मनुष्य धर्मसे धन पाता है, तपस्यासे उसे दिव्य रूपकी प्राप्ति होती है।
कामनाओंका त्याग करनेवाले पुरुषके अन्तःकरणकी शुद्धि होती है। उस शुद्धिसे ज्ञानका उदय होता है, इसमें संशय नहीं है।सत्ययुग आदिमें तपको ही प्रशस्त कहा गया है, किंतु कलियुगमें द्रव्यसाध्य धर्म (दान आदि) अच्छा माना गया है।
सत्ययुगमें ध्यानसे, त्रेतामें तपस्यासे और द्वापरमें यज्ञ करनेसे ज्ञानकी सिद्धि होती है; परंतु कलियुगमें प्रतिमा (भगवद्विग्रह)-की पूजासे ज्ञानलाभ होता है। अधर्म हिंसा (दुःख) रूप है और धर्म सुखरूप है।
अधर्मसे मनुष्य दुःख पाता है और धर्मसे वह सुख एवं अभ्युदयका भागी होता है। दुराचारसे दुःख प्राप्त होता है और सदाचारसे सुख। अतः भोग और मोक्षकी सिद्धिके लिये धर्मका उपार्जन करना चाहिये।
जिसके घरमें कम-से-कम चार मनुष्य हैं, ऐसे कुटुम्बी ब्राह्मणको जो सौ वर्षके लिये जीविका (जीवन-निर्वाहकी सामग्री) देता है, उसके लिये वह दान ब्रह्मलोककी प्राप्ति करानेवाला होता है। एक सहस्त्र चान्द्रायण- व्रतका अनुष्ठान ब्रह्मलोकदायक माना गया है। जो क्षत्रिय एक सहस्त्र कुटुम्बको जीविका और आवास देता है, उसका वह कर्म इन्द्रलोककी प्राप्ति करानेवाला होता है।
दस हजार कुटुम्बोंको दिया हुआ आश्रय- दान ब्रह्मलोक प्रदान करता है। दाता पुरुष जिस देवताको सामने रखकर दान करता है अर्थात् वह दानके द्वारा जिस देवताको प्रसन्न करना चाहता है, उसीका लोक उसे प्राप्त होता है- यह बात वेदवेत्ता पुरुष अच्छी तरह जानते हैं। धनहीन पुरुष सदा तपस्याका उपार्जन करे; क्योंकि तपस्या और तीर्थसेवनसे अक्षय सुख पाकर मनुष्य उसका उपभोग करता है।
अब मैं न्यायतः धनके उपार्जनकी विधि बता रहा हूँ। ब्राह्मणको चाहिये कि वह सदा सावधान रहकर विशुद्ध प्रतिग्रह (दान- ग्रहण) तथा याजन (यज्ञ कराने) आदिसे धनका अर्जन करे। वह इसके लिये कहीं दीनता न दिखाये और न अत्यन्त क्लेशदायक कर्म ही करे। क्षत्रिय बाहुबलसे धनका उपार्जन करे और वैश्य कृषि एवं गोरक्षासे।
न्यायोपार्जित धनका दान करनेसे दाताको ज्ञानकी सिद्धि प्राप्त होती है। ज्ञानसिद्धि- द्वारा सब पुरुषोंको गुरुकृपा – मोक्षसिद्धि सुलभ होती है। मोक्षसे स्वरूपकी सिद्धि (ब्रह्मरूपसे स्थिति) प्राप्त होती है, जिससे मुक्त पुरुष परमानन्दका अनुभव करता है।
गृहस्थ पुरुषको चाहिये कि वह धन- धान्यादि सब वस्तुओंका दान करे। वह तृषानिवृत्तिके लिये जल तथा क्षुधारूपी रोगकी शान्तिके लिये सदा अन्नका दान करे। खेत, धान्य, कच्चा अन्न तथा भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य – ये चार प्रकारके सिद्ध अन्न दान करने चाहिये।
जिसके अन्नको खाकर मनुष्य जबतक कथा- श्रवण आदि सद्धर्मका पालन करता है, उतने समयतक उसके किये हुए पुण्यफलका आधा भाग दाताको मिल जाता है- इसमें संशय नहीं है। दान लेनेवाला पुरुष दानमें प्राप्त हुई वस्तुका दान तथा तपस्या करके अपने प्रतिग्रहजनित पापकी शुद्धि कर ले। अन्यथा उसे रौरव नरकमें गिरना पड़ता है।
अपने धनके तीन भाग करे-एक भाग धर्मके लिये, दूसरा भाग वृद्धिके लिये तथा तीसरा भाग अपने उपभोगके लिये। नित्य, नैमित्तिक और काम्य- ये तीनों प्रकारके कर्म धर्मार्थ रखे हुए धनसे करे। साधकको चाहिये कि वह वृद्धिके लिये रखे हुए धनसे ऐसा व्यापार करे, जिससे उस धनकी वृद्धि हो तथा उपभोगके लिये रक्षित धनसे हितकारक, परिमित एवं पवित्र भोग भोगे।
खेतीसे पैदा किये हुए धनका दसवाँ अंश दान कर दे। इससे पापकी शुद्धि होती है। शेष धनसे धर्म, वृद्धि एवं उपभोग करे; अन्यथा वह रौरव नरकमें पड़ता है अथवा उसकी बुद्धि पापपूर्ण हो जाती है या खेती ही चौपट हो जाती है।
वृद्धिके लिये किये गये व्यापारमें प्राप्त हुए धनका छठा भाग दान कर देने योग्य है। बुद्धिमान् पुरुष अवश्य उसका दान कर दे।
विद्वान्को चाहिये कि वह दूसरोंके दोषोंका बखान न करे। ब्राह्मणो ! दोषवश दूसरोंके सुने या देखे हुए छिद्रको भी प्रकट न करे। विद्वान् पुरुष ऐसी बात न कहे, जो समस्त प्राणियोंके हृदयमें रोष पैदा करनेवाली हो।
ऐश्वर्यकी सिद्धिके लिये दोनों संध्याओंके समय अग्निहोत्रकर्म अवश्य करे। जो दोनों समय अग्निहोत्र करनेमें असमर्थ हो, वह एक ही समय सूर्य और अग्निको विधिपूर्वक दी हुई आहुतिसे संतुष्ट करे। चावल, धान्य, घी, फल, कंद तथा हविष्य- इनके द्वारा विधिपूर्वक स्थालीपाक बनाये तथा यथोचित रीतिसे सूर्य और अग्निको अर्पित करे।
यदि हविष्यका अभाव हो तो प्रधान होममात्र करे। सदा सुरक्षित रहनेवाली अग्निको विद्वान् पुरुष अजस्त्रकी संज्ञा देते हैं। अथवा संध्याकालमें जपमात्र या सूर्यकी वन्दनामात्र कर ले। आत्मज्ञानकी इच्छावाले तथा धनार्थी पुरुषोंको भी इस प्रकार विधिवत् उपासना करनी चाहिये।
जो सदा ब्रह्मयज्ञमें तत्पर होते हैं, देवताओंकी पूजामें लगे रहते हैं, नित्य अग्निपूजा एवं गुरुपूजामें अनुरक्त होते हैं तथा ब्राह्मणोंको तृप्त किया करते हैं, वे सब लोग स्वर्गलोक-के भागी होते हैं।
(अध्याय १३)