Shiv puran vayu samhita uttar khand chapter 7 (शिव पुराण वायु संहिता अध्याय 7 परमेश्वरकी शक्तिका ऋषियोंद्वारा साक्षात्कार, शिवके प्रसादसे प्राणियोंकी मुक्ति, शिवकी सेवा-भक्ति तथा पाँच प्रकारके शिवधर्मका वर्णन)

वायवीयसंहिता (उत्तरखण्ड)

Shiv puran vayu samhita uttar khand chapter 7 (शिव पुराण वायु संहिता अध्याय 7 परमेश्वरकी शक्तिका ऋषियोंद्वारा साक्षात्कार, शिवके प्रसादसे प्राणियोंकी मुक्ति, शिवकी सेवा-भक्ति तथा पाँच प्रकारके शिवधर्मका वर्णन)

 

:-उपमन्यु कहते हैं-परमेश्वर शिवकी स्वाभाविक शक्ति विद्या है, जो सबसे विलक्षण है। वह एक होकर भी अनेक रूपसे भासित होती है। जैसे सूर्यकी प्रभा एक होकर भी अनेक रूपमें प्रकाशित होती है। उस विद्याशक्तिसे इच्छा, ज्ञान, क्रिया और माया आदि अनेक शक्तियाँ उत्पन्न हुई हैं, ठीक उसी तरह जैसे अग्निसे बहुत-सी चिनगारियाँ प्रकट होती हैं। उसीसे सदाशिव और ईश्वर आदि तथा विद्या और विद्येश्वर आदि पुरुष भी प्रकट हुए हैं। परात्पर प्रकृति भी उसीसे उत्पन्न हुई है। महत्तत्त्वसे लेकर विशेषपर्यन्त सारे विकार तथा अज (ब्रह्मा) आदि मूर्तियाँ भी उसीसे प्रकट हुई हैं। इनके सिवा जो अन्य वस्तुएँ हैं, वे सब भी उसी शक्तिके कार्य हैं, इसमें संशय नहीं है।

वह शक्ति सर्वव्यापिनी, सूक्ष्मा तथा ज्ञानानन्दरूपिणी है। उसीसे शीतांशुभूषण भगवान् शिव शक्तिमान् कहलाते हैं। शक्तिमान् – शिव वेद्य हैं और शक्तिरूपिणी – शिवा विद्या हैं। वे शक्तिरूपा शिवा ही प्रज्ञा, श्रुति, स्मृति, धृति, स्थिति, निष्ठा, ज्ञानशक्ति, इच्छाशक्ति, कर्मशक्ति, आज्ञाशक्ति, परब्रह्म, परा और अपरा नामकी दो विद्याएँ, शुद्ध विद्या और शुद्ध कला हैं; क्योंकि सब कुछ शक्तिका ही कार्य है। माया, प्रकृति, जीव, विकार, विकृति, असत् और सत् आदि जो कुछ भी उपलब्ध होता है, वह सब उस शक्तिसे ही व्याप्त है। वे शक्तिरूपिणी शिवादेवी मायाद्वारा- समस्त चराचर ब्रह्माण्डको अनायास ही मोहमें डाल देती और लीलापूर्वक उसे – मोहके बन्धनसे मुक्त भी कर देती हैं। इस – शक्तिके सत्ताईस प्रकार हैं, सत्ताईस प्रकारवाली – इस शक्तिके साथ सर्वेश्वर शिव सम्पूर्ण विश्वको व्याप्त करके स्थित हैं। इन्हींके – चरणोंमें मुक्ति विराजती है।

 

पूर्वकालकी – बात है, संसारबन्धनसे छूटनेकी इच्छावाले – कुछ ब्रह्मवादी मुनियोंके मनमें यह संशय – हुआ। वे परस्पर मिलकर यथार्थरूपसे • विचार करने लगे – इस जगत्‌का कारण ॥ क्या है? हम किससे उत्पन्न हुए हैं और – किससे जीवन धारण करते हैं? हमारी – प्रतिष्ठा कहाँ है? हमारा अधिष्ठाता कौन – है? हम किसके सहयोगसे सदा सुखमें – और दुःखमें रहते हैं? किसने इस विश्वकी अलंघनीय व्यस्था की है? यदि कहें काल, स्वभाव, नियति (निश्चित फल – देनेवाला कर्म) और यदृच्छा (आकस्मिक – घटना) इसमें कारण हों तो यह कथन युक्तिसंगत नहीं जान पड़ता। पाँचों महाभूत तथा जीवात्मा भी कारण नहीं हैं। इन सबका संयोग तथा अन्य कोई भी कारण नहीं है; क्योंकि ये काल आदि अचेतन हैं।

 

जीवात्माके चेतन होनेपर भी वह सुख- दुःखसे अभिभूत तथा असमर्थ होनेसे इस जगत्‌का कारण नहीं हो सकता। अतः कौन कारण है, इसका विचार करना चाहिये। इस प्रकार आपसमें विचार करनेपर जब वे युक्तियोंद्वारा किसी निर्णयतक न पहुँच सके, तब उन्होंने ध्यानयोगमें स्थित होकर परमेश्वरकी स्वरूपभूता अचिन्त्य शक्तिका साक्षात्कार किया, जो अपने ही गुणोंसे – सत्त्व, रज और तमसे ढकी है तथा उन तीनों गुणोंसे परे है। परमेश्वरकी वह साक्षात् शक्ति समस्त पाशोंका विच्छेद करनेवाली है। उसके द्वारा बन्धन काट दिये जानेपर जीव अपनी दिव्य दृष्टिसे उन सर्वकारण- कारण शक्तिमान् महादेवजीका दर्शन करने लगते हैं, जो कालसे लेकर जीवात्मातक पूर्वोक्त समस्त कारणोंपर तथा सम्पूर्ण विश्वपर अपनी इस शक्तिके द्वारा ही शासन करते हैं। वे परमात्मा अप्रमेय हैं। तदनन्तर परमेश्वरके प्रसादयोग, परम- योग तथा सुदृढ़ भक्तियोगके द्वारा उन मुनियोंने दिव्य गति प्राप्त कर ली।

श्रीकृष्ण ! जो अपने हृदयमें शक्ति- सहित भगवान् शिवका दर्शन करते हैं, उन्हींको सनातन शान्ति प्राप्त होती है, दूसरोंको नहीं, यह श्रुतिका कथन है। शक्तिमान्‌का शक्तिसे कभी वियोग नहीं होता। अतः शक्ति और शक्तिमान् दोनोंके तादात्म्यसे परमानन्दकी प्राप्ति होती है। मुक्तिकी प्राप्तिमें निश्चय ही ज्ञान और कर्मका कोई क्रम विवक्षित नहीं है, जब शिव और शक्तिकी कृपा हो जाती है, तब वह मुक्ति हाथमें आ जाती है। देवता, दानव, पशु, पक्षी तथा कीड़े-मकोड़े भी उनकी कृपासे मुक्त हो जाते हैं। गर्भका बच्चा, जन्मता हुआ बालक, शिशु, तरुण, वृद्ध, मुमूर्षु, स्वर्गवासी, नारकी, पतित, धर्मात्मा, पण्डित अथवा मूर्ख साम्बशिवकी कृपा होनेपर तत्काल मुक्त हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं है।

 

परमेश्वर अपनी स्वाभाविक करुणासे अयोग्य भक्तोंके भी विविध मलोंको दूर करके उनपर कृपा करते हैं, इसमें सन्देह नहीं है। भगवान्‌की कृपासे ही भक्ति होती है और भक्तिसे ही उनकी कृपा होती है। अवस्थाभेदका विचार करके विद्वान् पुरुष इस विषयमें मोहित नहीं होता है। कृपाप्रसादपूर्वक जो यह भक्ति होती है, वह भोग और मोक्ष दोनोंकी प्राप्ति करानेवाली है। उसे मनुष्य एक जन्ममें नहीं प्राप्त कर सकता। अनेक जन्मोंतक श्रौत-स्मार्त कर्मोंका अनुष्ठान करके सिद्ध हुए विरक्त एवं ज्ञानसम्पन्न पुरुषोंपर महेश्वर प्रसन्न होते और कृपा करते हैं। देवेश्वर शिवके प्रसन्न होनेपर उस पशु (जीव) में बुद्धिपूर्वक थोड़ी-सी भक्तिका उदय होता है। तब वह यह अनुभव करने लगता है कि भगवान् शिव मेरे स्वामी हैं।

 

फिर तपस्यापूर्वक वह नाना प्रकारके शैवधर्मोंके पालनमें संलग्न होता है। उन धर्मोंके पालनमें बारंबार लगे रहनेसे उसके हृदयमें पराभक्तिका प्रादुर्भाव होता है। उस पराभक्तिसे परमेश्वरका परम प्रसाद उपलब्ध होता है। प्रसादसे सम्पूर्ण पापोंसे छुटकारा मिलता है और छुटकारा मिल जानेपर परमानन्दकी प्राप्ति होती है, जिस मनुष्यका भगवान् शिवमें थोड़ा-सा भी भक्तिभाव है, वह तीन जन्मोंके बाद अवश्य मुक्त हो जाता है। उसे इस संसारमें योनियन्त्रकी पीड़ा नहीं सहनी पड़ती। सांगा (अंगसहित) और अनंगा (अंगरहित) जो सेवा है, उसीको भक्ति कहते हैं। उसके फिर तीन भेद होते हैं-मानसिक, वाचिक और शारीरिक ।

 

शिवके रूप आदिका जो चिन्तन है, उसे मानसिक सेवा कहते हैं। जप आदि वाचिक सेवा है और पूजन आदि कर्म शारीरिक सेवा है। इन त्रिविध साधनोंसे सम्पन्न होनेवाली जो यह सेवा है, इसे ‘शिवधर्म’ भी कहते हैं। परमात्मा शिवने पाँच प्रकारका शिव-धर्म बताया है-तप, कर्म, जप, ध्यान और ज्ञान। लिंगपूजन आदिको ‘कर्म’ कहते हैं। चान्द्रायण आदि व्रतका नाम ‘तप’ है। वाचिक, उपांशु और मानस-तीन प्रकारका जो शिव-मन्त्रका अभ्यास (आवृत्ति) है, उसीको ‘जप’ कहते हैं। शिवका चिन्तन ही ‘ध्यान’ कहलाता है तथा शिवसम्बन्धी आगमोंमें जिस ज्ञानका वर्णन है, उसीको यहाँ ‘ज्ञान’ शब्दसे कहा गया है। श्रीकण्ठ शिवने शिवाके प्रति जिस ज्ञानका उपदेश किया है, वही शिवागम है। शिवके आश्रित जो भक्तजन हैं, उनपर कृपा करके कल्याणके एकमात्र साधक इस ज्ञान- का उपदेश किया गया है। अतः कल्याण- कामी बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह परम कारण शिवमें भक्तिको बढ़ाये तथा विषयासक्तिका त्याग करे।

(अध्याय ७)

Leave a Comment

error: Content is protected !!