Shiv puran vayu samhita uttar khand chapter 40 (शिव पुराण वायु संहिता अध्याय 40 वायुदेवका अन्तर्धान, ऋषियोंका सरस्वतीमें अवभृथ-स्नान और काशीमें दिव्य तेजका दर्शन करके ब्रह्माजीके पास जाना, ब्रह्माजीका उन्हें सिद्धि-प्राप्तिकी सूचना देकर मेरुके कुमारशिखरपर भेजना)

[वायवीयसंहिता (उत्तरखण्ड)]

Shiv puran vayu samhita uttar khand chapter 40 (शिव पुराण वायु संहिता अध्याय 40 वायुदेवका अन्तर्धान, ऋषियोंका सरस्वतीमें अवभृथ-स्नान और काशीमें दिव्य तेजका दर्शन करके ब्रह्माजीके पास जाना, ब्रह्माजीका उन्हें सिद्धि-प्राप्तिकी सूचना देकर मेरुके कुमारशिखरपर भेजना)

 

:-सूतजी कहते हैं-इस प्रकार क्रोधको जीतनेवाले उपमन्युसे यदुकुलनन्दन श्रीकृष्णने जो ज्ञानयोग प्राप्त किया था, उसका प्रणतभावसे बैठे हुए उन मुनियोंको उपदेश देकर आत्मदर्शी वायुदेव सायंकाल आकाशमें अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर प्रातःकाल नैमिषारण्यके समस्त तपस्वी मुनि सत्रके अन्तमें अवभृथ-स्नान करनेको उद्यत हुए। उस समय ब्रह्माजीके आदेशसे साक्षात् सरस्वतीदेवी स्वादिष्ठ जलसे भरी हुई स्वच्छ सुन्दर नदीके रूपमें वहाँ बहने लगीं। सरस्वती नदीको उपस्थित देख मुनि मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने सत्र समाप्त करके उसमें अवगाहन (स्नान) आरम्भ किया। उस नदीके मंगलमय जलसे देवता आदिका तर्पण करके पूर्व- वृत्तान्तका स्मरण करते हुए वे सब-के- सब वाराणसीपुरीकी ओर चल दिये। उस समय हिमालयके चरणोंसे निकलकर दक्षिणकी ओर बहनेवाली भागीरथीका दर्शन करके उन ऋषियोंने उसमें स्नान किया और भागीरथीके ही किनारेका मार्ग पकड़कर वे आगे बढ़े। तदनन्तर वाराणसीमें पहुँचकर उन सबको बड़ी प्रसन्नता हुई। वहाँ उत्तरवाहिनी गंगामें स्नान करके उन्होंने अविमुक्तेश्वर-

लिंगका दर्शन और विधिपूर्वक पूजन किया। पूजन करके जब वे चलनेको उद्यत हुए तब उन्होंने आकाशमें एक दिव्य और परम अद्भुत प्रकाशमान तेज देखा, जो करोड़ों सूर्योके समान जान पड़ता था। उसने अपनी प्रभाके प्रसारसे सम्पूर्ण दिगन्तको व्याप्त कर लिया था। तदनन्तर जिन्होंने अपने शरीरमें भस्म लगा रखा था, वे सैकड़ों सिद्ध पाशुपत मुनि निकट जाकर उस तेजमें लीन हो गये। उन तपस्वी महात्माओंके इस प्रकार लीन हो जानेपर वह तेज तत्काल अदृश्य हो गया। वह एक अद्भुत-सी घटना घटित हुई। उस महान् आश्चर्यको देखकर वे नैमिषारण्यके निवासी महर्षि ‘यह क्या है’ इस बातको न जानते हुए ब्रह्मवनको चले गये।

इनके जानेसे पहले ही लोकपावन पवनदेव वहाँ जा पहुँचे। उन्होंने नैमिषारण्य- वासी ऋषियोंका जिस प्रकार साक्षात्कार हुआ, जिस तरह उनसे उनकी बातचीत हुई, उन ऋषियोंकी शुद्ध बुद्धि जिस प्रकार पार्षदोंसहित साम्ब सदाशिवमें लगी थी और जिस प्रकार उन यज्ञपरायण ऋषियोंका वह दीर्घकालिक यज्ञ पूरा हुआ था, ये सारी बातें जगत्स्रष्टा ब्रह्मयोनि

ब्रह्माजीको बतायीं। फिर अपने कार्यके लिये उनसे आज्ञा ले वे अपने नगरको चले गये। तदनन्तर अपने स्थानपर बैठे हुए ब्रह्माजी गानकी कलामें परस्पर स्पर्द्धा रखने और विवाद करनेवाले तुम्बुरु और नारदके गानजनित रसका आस्वादन करते हुए वहाँ मध्यस्थता करने लगे। उस समय वे गन्धर्वों और अप्सराओंसे सेवित हो सुखपूर्वक बैठे थे। उस वेलामें किसी बाहरी व्यक्तिको वहाँ जानेका अवसर नहीं दिया जाता था। इसीलिये जब नैमिषारण्यनिवासी मुनि वहाँ पहुँचे, तब द्वारपालोंने उन्हें द्वारपर ही रोक दिया। वे मुनि ब्रह्मभवनसे बाहर ही पार्श्वभागमें बैठ गये। इधर संगीत-गोष्ठीमें नारदने तुम्बुरुकी समानता प्राप्त की। तब परमेष्ठी ब्रह्माने उन्हें तुम्बुरुके साथ रहनेकी आज्ञा दी और वे पारस्परिक स्पर्धाको त्यागकर तुम्बुरुके परम मित्र हो गये। तत्पश्चात् गन्धर्वों और अप्सराओंसे घिरे हुए नारद नकुलेश्वर महादेवको वीणागान सुनाकर संतुष्ट करनेके लिये तुम्बुरुके साथ ब्रह्मभवनसे उसी प्रकार निकले, जैसे मेघोंकी घटासे सूर्यदेव बाहर निकलते हैं।

उस समय मुनिवर नारदको देखकर उन छः कुलोंमें उत्पन्न हुए ऋषियोंने प्रणाम किया और बड़े आदरके साथ ब्रह्माजीसे मिलनेका अवसर पूछा। नारदजीका चित्त दूसरी ओर लगा था और वे बड़ी उतावलीमें थे। अतः उनके पूछनेपर बोले- ‘यही अवसर है। आपलोग भीतर जाइये।’ यह कहते हुए वे चले गये। तदनन्तर द्वारपालोंने ब्रह्माजीको उन ऋषियोंके आगमनकी सूचना दी। उनकी आज्ञा पाकर वे सब एक साथ ब्रह्माजीके भवनमें प्रविष्ट हुए। भीतर जाकर उन्होंने दूरसे ही दण्डकी भाँति पृथ्वीपर गिरकर ब्रह्माजीको प्रणाम किया। फिर उनका आदेश पाकर वे ऋषि उनके पास गये और चारों ओरसे उन्हें घेरकर बैठे। उन्हें वहाँ बैठा देख कमलासन ब्रह्माने उनका कुशल-समाचार पूछा और बताया कि मुझे तुमलोगोंका सारा वृत्तान्त ज्ञात हो चुका है; क्योंकि वायुदेवने ही यहाँ सब कुछ कहा है। अब तुम बताओ, जब वायुदेव तुम्हें कथा सुनाकर अदृश्य हो गये, तब तुमने क्या किया ?

देवेश्वर ब्रह्माके इस प्रकार पूछनेपर उन मुनियोंने अवभृथ-स्नानके पश्चात् गंगातीर्थमें जाने, वाराणसीकी यात्रा करने, वहाँ देवेश्वरोंद्वारा स्थापित शिवलिंगों और अविमुक्तेश्वरलिंगके भी दर्शन-पूजन करने, आकाशमें महान् तेजःपुंजके दिखायी देने, कतिपय महर्षियोंके उसमें लीन होने तथा फिर उस तेजके अदृश्य हो जानेकी सब बातें ब्रह्माजीसे विस्तार- पूर्वक उन्हें बारंबार प्रणाम करके कहीं। साथ ही यह भी बताया कि ‘हम अपने मनमें बहुत विचार करनेपर भी उस तेजको ठीक-ठीक जान न सके।’ मुनियोंका कथन सुनकर विश्वस्त्रष्टा चतुर्मुख ब्रह्माने किंचित् सिर हिलाकर गम्भीर वाणीमें कहा- ‘महर्षियो ! तुम्हें परम उत्तम पारलौकिक सिद्धि प्राप्त होनेका अवसर आ रहा है। तुमने दीर्घकालिक सत्रद्वारा चिरकालतक प्रभुकी आराधना की है। इसलिये वे प्रसन्न होकर तुमलोगोंपर कृपा करनेको उत्सुक हैं। उस तेजःपुंजके दर्शनकी जो घटना घटित हुई है, उससे यही बात सूचित होती है। तुमने वाराणसीमें आकाशके भीतर जो दीप्तिमान् दिव्य तेज देखा था, वह साक्षात् ज्योतिर्मय लिंग ही था, उसे महेश्वरका उत्कृष्ट तेज समझो। उस तेजमें श्रौत और पाशुपत-व्रतका पालन करनेवाले मुनि, जो स्वधर्ममें पूर्णतः निष्ठा रखनेवाले थे और अपने पापको दग्ध कर चुके थे, लीन हुए हैं। लीन होकर वे स्वस्थ एवं मुक्त हो गये हैं। इसी मार्गसे तुम्हें भी शीघ्र ही मुक्ति प्राप्त होनेवाली है। तुम्हारे देखे हुए उस तेजसे यही बात सूचित होती है। तुम्हारे लिये यह वही समय दैववश स्वयं उपस्थित हो गया है। तुम मेरुपर्वतके दक्षिण शिखरपर, जहाँ देवता रहते हैं, जाओ, वहीं मेरे पुत्र सनत्कुमार, जो उत्कृष्ट मुनि हैं, निवास करते हैं। वे वहाँ साक्षात् भूतनाथ नन्दीके आगमनकी प्रतीक्षामें हैं।

पूर्वकालकी बात है सनत्कुमार अज्ञान- वश अपनेको सब योगियोंका शिरोमणि मानने लगे थे। इसीलिये दुर्विनीत हो गये थे। यही कारण है कि उन्होंने किसी समय परमेश्वर शिवको सामने देखकर भी उनके लिये उचित अभ्युत्थान आदि सत्कार नहीं किया। वे अपने स्थानपर निर्भय बैठे रहे। उनके इस अपराधसे कुपित हो नन्दीने उन्हें बहुत बड़ा ऊँट बना दिया। तब उनके लिये मुझे बड़ा शोक हुआ और मैंने दीर्घकालतक महादेव और महादेवीकी  उपासना करके नन्दीसे भी बड़ी अनुनय- – विनय की। इस प्रकार प्रयत्न करके किसी तरह उनको ऊँटकी योनिसे छुटकारा – दिलाया और उन्हें पूर्ववत् सनत्कुमार- – रूपकी प्राप्ति करायी। उस समय महादेवजीने – मुसकराते हुए-से अपने गणाध्यक्ष नन्दीसे – कहा- ‘अनघ ! सनत्कुमार मुनिने मेरी ही अवहेलना करके अपना वैसा अहंकार प्रकट किया था, अतः तुम्हीं उनको मेरे – यथार्थ स्वरूपका उपदेश दो। ब्रह्माका – ज्येष्ठ पुत्र मूढ़की भाँति मेरा स्मरण कर रहा है, अतः मैंने ही उसको तुम्हें शिष्यके रूपमें दिया है; तुमसे उपदेश पाकर वह मेरे ज्ञानका प्रवर्तक होगा और वही तुम्हारा धर्माध्यक्षके पदपर अभिषेक करेगा।’

महादेवजीके ऐसा कहनेपर समस्त भूतगणोंके अध्यक्ष नन्दीने प्रातःकाल मस्तक झुकाकर स्वामीकी वह आज्ञा शिरोधार्य की तथा सनत्कुमार भी मेरी आज्ञासे इस गणराज नन्दीको प्रसन्न करनेके लिये मेरुपर दुष्कर तपस्या कर रहे हैं। गणाध्यक्ष नन्दीके समागमसे पहले ही तुमलोग सनत्कुमारसे मिलो; क्योंकि उनपर कृपा करनेके लिये नन्दी शीघ्र ही वहाँ आयेंगे। विश्वयोनि ब्रह्माके इस प्रकार शीघ्र आदेश देकर भेजनेपर वे मुनि मेरु पर्वतके दक्षिणवर्ती कुमार-शिखरपर गये।

(अध्याय ४०)

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