Shiv puran vayu samhita uttar khand chapter 4(शिव पुराण वायु संहिता अध्याय 4 शिव और शिवाकी विभूतियोंका वर्णन)

वायवीयसंहिता (उत्तरखण्ड)

Shiv puran vayu samhita uttar khand chapter 4(शिव पुराण वायु संहिता अध्याय 4 शिव और शिवाकी विभूतियोंका वर्णन)

:-श्रीकृष्णने पूछा- भगवन् ! अमिततेजस्वी भगवान् शिवकी मूर्तियोंने इस सम्पूर्ण जगत्‌को जिस प्रकार व्याप्त कर रखा है, वह सब मैंने सुना। अब मुझे यह जाननेकी इच्छा है कि परमेश्वरी शिवा और परमेश्वर शिवका यथार्थ स्वरूप क्या है, उन दोनोंने स्त्री और पुरुषरूप इस जगत्को किस प्रकार व्याप्त कर रखा है।

उपमन्यु बोले-देवकीनन्दन ! मैं शिवा और शिवके श्रीसम्पन्न ऐश्वर्यका और उन दोनोंके यथार्थ स्वरूपका संक्षेपसे वर्णन करूँगा। विस्तारपूर्वक इस विषयका वर्णन तो भगवान् शिव भी नहीं कर सकते। साक्षात् महादेवी पार्वती शक्ति हैं और महादेवजी शक्तिमान्। उन दोनोंकी विभूतिका लेशमात्र ही इस सम्पूर्ण चराचर जगत्के रूपमें स्थित है। यहाँ कोई वस्तु जडरूप है और कोई वस्तु चेतनरूप। वे दोनों क्रमशः शुद्ध, अशुद्ध तथा पर और अपर कहे गये हैं।

 

जो चिन्मण्डल जडमण्डलके साथ संयुक्त हो संसारमें भटक रहा है, वही अशुद्ध और अपर कहा गया है। उससे भिन्न जो जडके बन्धनसे मुक्त है, वह पर और शुद्ध कहा गया है। अपर और पर चिदचित्स्वरूप हैं, इनपर स्वभावतः शिव और शिवाका स्वामित्व है। शिवा और शिवके ही वशमें यह विश्व है। विश्वके वशमें शिवा और शिव नहीं हैं। यह जगत शिव  और शिवाके शासनमें है, इसलिये वे दोनों इसके ईश्वर या विश्वेश्वर कहे गये हैं। जैसे शिव हैं वैसी शिवादेवी हैं,तथा जैसी शिवादेवी हैं, वैसे ही शिव हैं।जिस तरह चन्द्रमा और उनकी चाँदनीमें कोई अन्तर नहीं है, उसी प्रकार शिव और शिवामें कोई अन्तर न समझे। जैसे चन्द्रिकाके बिना ये चन्द्रमा सुशोभित नहीं होते उसी प्रकार शिव विद्यमान होनेपर भी शक्तिके बिना सुशोभित नहीं होते। जैसे ये सूर्यदेव कभी प्रभाके बिना नहीं रहते और प्रभा भी उन सूर्यदेवके बिना नहीं रहती, निरन्तर उनके आश्रय ही रहती है, उसी प्रकार शक्ति और शक्तिमान्‌को सदा एक-दूसरेकी अपेक्षा होती है। न तो शिवके बिना शक्ति रह सकती है और न शक्तिके बिना शिव *।

जिसके द्वारा शिव सदा देहधारियोंको भोग और मोक्ष देनेमें समर्थ होते हैं, वह आदि अद्वितीय चिन्मयी पराशक्ति शिवके ही आश्रित है। ज्ञानी पुरुष उसी शक्तिको सर्वेश्वर परमात्मा शिवके अनुरूप उन-उन अलौकिक गुणोंके कारण उनकी समर्धार्मणी कहते हैं। वह एकमात्र चिन्मयी पराशक्ति सृष्टिधर्मिणी है। वही शिवकी इच्छासे विभागपूर्वक नाना प्रकारके विश्वकी रचना करती है। वह शक्ति मूलप्रकृति, माया और त्रिगुणा-तीन प्रकारकी बतायी गयी है, उस शक्तिरूपिणी शिवाने ही इस जगत्‌का विस्तार किया है। व्यवहारभेदसे शक्तियोंके एक-दो, सौ, हजार एवं बहुसंख्यक भेद हो जाते हैं।

शिवकी इच्छासे पराशक्ति शिव- तत्त्वके साथ एकताको प्राप्त होती है। तबसे कल्पके आदिमें उसी प्रकार सृष्टिका प्रादुर्भाव होता है, जैसे तिलसे तेलका। तदनन्तर शक्तिमान्से शक्तिमें क्रियामयी शक्ति प्रकट होती है। उसके विक्षुब्ध होनेपर आदिकालमें पहले नादकी उत्पत्ति हुई। फिर नादसे बिन्दुका प्राकट्य हुआ और बिन्दुसे सदाशिव देवका। उन सदाशिवसे महेश्वर प्रकट हुए और महेश्वरसे शुद्ध विद्या। वह वाणीकी ईश्वरी है। इस प्रकार त्रिशूलधारी महेश्वरसे वागीश्वरी नामक शक्तिका प्रादुर्भाव हुआ, जो वर्णों (अक्षरों)- के रूपमें विस्तारको प्राप्त होती है और मातृका कहलाती है। तदनन्तर अनन्तके समावेशसे मायाने काल, नियति, कला और विद्याकी सृष्टि की। कलासे राहु तथा पुरुष हुए। फिर मायासे ही त्रिगुणात्मिका अव्यक्त प्रकृति हुई। उस त्रिगुणात्मक अव्यक्तसे तीनों गुण पृथक् पृथक् प्रकट हुए। उनके नाम हैं-सत्त्व, रज और तम; इनसे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है। गुणोंमें क्षोभ होनेपर उनसे गुणेश नामक तीन मूर्तियाँ प्रकट हुईं।

 

साथ ही ‘महत्’ आदि तत्त्वोंका क्रमशः प्रादुर्भाव हुआ। उन्हींसे शिवकी आज्ञाके अनुसार असंख्य अण्ड- पिण्ड प्रकट होते हैं, जो अनन्त आदि विद्येश्वर चक्रवर्तियोंसे अधिष्ठित हैं। शरीरान्तरके भेदसे शक्तिके बहुत-से भेद कहे गये हैं। स्थूल और सूक्ष्मके भेदसे उनके अनेक रूप जानने चाहिये। रुद्रकी शक्ति रौद्री, विष्णुकी वैष्णवी, ब्रह्माकी ब्रह्माणी और इन्द्रकी इन्द्राणी कहलाती है। यहाँ बहुत कहनेसे क्या लाभ – जिसे विश्व कहा गया है, वह उसी प्रकार शक्त्यात्मासे व्याप्त है, जैसे शरीर अन्तरात्मासे। अतः सम्पूर्ण स्थावर-जंगमरूप जगत् शक्तिमय है। यह पराशक्ति परमात्मा शिवकी कला कही गयी है।

 

इस तरह यह पराशक्ति ईश्वरकी इच्छाके अनुसार चलकर चराचर जगत्‌की सृष्टि करती है, ऐसा विज्ञ पुरुषोंका निश्चय है। ज्ञान, क्रिया और इच्छा- अपनी इन तीन शक्तियोंद्वारा शक्तिमान् ईश्वर सदा सम्पूर्ण विश्वको व्याप्त करके स्थित होते हैं। यह इस प्रकार हो और यह इस प्रकार न हो – इस तरह कार्योंका नियमन करनेवाली महेश्वरकी इच्छाशक्ति नित्य है। उनकी जो ज्ञानशक्ति है, वह बुद्धिरूप होकर कार्य, करण, कारण और प्रयोजनका ठीक-ठीक निश्चय करती है; तथा शिवकी जो क्रियाशक्ति है, वह संकल्परूपिणी होकर उनकी इच्छा और निश्चयके अनुसार कार्यरूप सम्पूर्ण जगत्की क्षणभरमें कल्पना कर देती है। इस प्रकार तीनों शक्तियोंसे जगत्‌का उत्थान होता है। प्रसव-धर्मवाली जो शक्ति है, वह पराशक्तिसे प्रेरित होकर ही सम्पूर्ण जगत्‌की सृष्टि करती है। इस तरह शक्तियोंके संयोगसे शिव शक्तिमान् कहलाते हैं। शक्ति और शक्तिमान्से प्रकट होनेके कारण यह जगत् शाक्त और शैव कहा गया है।

 

जैसे माता- पिताके बिना पुत्रका जन्म नहीं होता, उसी प्रकार भव और भवानीके बिना इस चराचर जगत्‌की उत्पत्ति नहीं होती। स्त्री और पुरुषसे प्रकट हुआ जगत् स्त्री और पुरुष- रूप ही है; यह स्त्री और पुरुषकी विभूति है, अतः स्त्री और पुरुषसे अधिष्ठित है। इनमें शक्तिमान् पुरुषरूप शिव तो परमात्मा कहे गये हैं और स्त्रीरूपिणी शिवा उनकी पराशक्ति। शिव सदाशिव कहे गये हैं और शिवा मनोन्मनी। शिवको महेश्वर जानना चाहिये और शिवा माया कहलाती हैं। परमेश्वर शिव पुरुष हैं और परमेश्वरी शिवा प्रकृति।

 

महेश्वर शिव रुद्र हैं और उनकी वल्लभा शिवादेवी रुद्राणी। विश्वेश्वर देव विष्णु हैं और उनकी प्रिया लक्ष्मी। जब सृष्टिकर्ता शिव ब्रह्मा कहलाते हैं, तब उनकी प्रियाको ब्रह्माणी कहते हैं। भगवान् शिव भास्कर हैं और भगवती शिवा प्रभा। कामनाशन शिव महेन्द्र हैं और गिरिराज- नन्दिनी उमा शची। महादेवजी अग्नि हैं और उनकी अर्द्धांगिनी उमा स्वाहा। भगवान् त्रिलोचन यम हैं और गिरिराजनन्दिनी उमा यमप्रिया। भगवान् शंकर निर्ऋति हैं और पार्वती नैर्ऋती। भगवान् रुद्र वरुण हैं और पार्वती वारुणी। चन्द्रशेखर शिव वायु हैं और पार्वती वायुप्रिया। शिव यक्ष हैं और पार्वती ऋद्धि। चन्द्रार्धशेखर शिव चन्द्रमा हैं और रुद्रवल्लभा उमा रोहिणी। परमेश्वर शिव ईशान हैं और परमेश्वरी शिवा उनकी पत्नी।

 

नागराज अनन्तको वलयरूपमें धारण करनेवाले भगवान् शंकर अनन्त हैं और उनकी वल्लभा शिवा अनन्ता। कालशत्रु शिव कालाग्निरुद्र हैं और काली कालान्तकप्रिया हैं। जिनका दूसरा नाम पुरुष है, ऐसे स्वायम्भुव मनुके रूपमें साक्षात् शम्भु ही हैं और शिवप्रिया उमा शतरूपा हैं। साक्षात् महादेव दक्ष हैं और परमेश्वरी पार्वती प्रसूति। भगवान् भव रुचि हैं और भवानीको ही विद्वान् पुरुष आकृति कहते हैं। महादेवजी भृगु हैं और पार्वती ख्याति। भगवान् रुद्र मरीचि हैं और शिववल्लभा सम्भूति। भगवान् गंगाधर अंगिरा हैं और साक्षात् उमा स्मृति। चन्द्रमौलि पुलस्त्य हैं और पार्वती प्रीति । त्रिपुरनाशक शिव पुलह हैं और पार्वती ही उनकी प्रिया हैं। यज्ञविध्वंसी शिव क्रतु कहे गये हैं और उनकी प्रिया पार्वती संनति ।

 

भगवान् शिव अत्रि हैं और साक्षात् उमा अनसूया। कालहन्ता शिव कश्यप हैं और महेश्वरी उमा देवमाता अदिति। कामनाशन शिव वसिष्ठ हैं और साक्षात् देवी पार्वती अरुन्धती। भगवान् शंकर ही संसारके सारे पुरुष हैं और महेश्वरी शिवा ही सम्पूर्ण स्त्रियाँ। अतः सभी स्त्री-पुरुष उन्हींकी विभूतियाँ हैं।

भगवान् शिव विषयी हैं और परमेश्वरी उमा विषय। जो कुछ सुननेमें आता है वह सब उमाका रूप है और श्रोता साक्षात् भगवान् शंकर हैं। जिसके विषयमें प्रश्न या जिज्ञासा होती है, उस समस्त वस्तु- समुदायका रूप शंकरवल्लभा शिवा स्वयं धारण करती हैं तथा पूछनेवाला जो पुरुष है, वह बाल चन्द्रशेखर विश्वात्मा शिवरूप ही है। भववल्लभा उमा ही द्रष्टव्य वस्तुओंका रूप धारण करती हैं और द्रष्टा पुरुषके रूपमें शशिखण्डमौलि भगवान् विश्वनाथ ही सब कुछ देखते हैं। सम्पूर्ण रसकी राशि महादेवी हैं और उस रसका आस्वादन करनेवाले मंगलमय महादेव हैं। प्रेमसमूह पार्वती हैं और प्रियतम विषभोजी शिव हैं।

 

देवी महेश्वरी सदा मन्तव्य वस्तुओंका स्वरूप धारण करती हैं और विश्वात्मा महेश्वर महादेव उन वस्तुओंके मन्ता (मनन करनेवाले हैं)। भववल्लभा पार्वती बोद्धव्य (जाननेयोग्य) वस्तुओंका स्वरूप धारण करती हैं और शिशु-शशिशेखर भगवान् महादेव ही उन वस्तुओंके ज्ञाता हैं। सामर्थ्यशाली भगवान् पिनाकी सम्पूर्ण प्राणियोंके प्राण हैं और सबके प्राणोंकी स्थिति जलरूपिणी माता पार्वती हैं। त्रिपुरान्तक पशुपतिकी प्राणवल्लभा पार्वती- देवी जब क्षेत्रका स्वरूप धारण करती हैं, तब कालके भी काल भगवान् महाकाल क्षेत्रज्ञरूपमें स्थित होते हैं। शूलधारी महादेवजी दिन हैं तो शूलपाणि प्रिया पार्वती रात्रि । कल्याणकारी महादेवजी आकाश हैं और शंकरप्रिया पार्वती पृथिवी। भगवान् महेश्वर समुद्र हैं तो गिरिराज-कन्या शिवा उसकी तटभूमि हैं। वृषभध्वज महादेव वृक्ष हैं, तो विश्वेश्वरप्रिया उमा उसपर फैलनेवाली लता हैं।

 

भगवान् त्रिपुरनाशक महादेव सम्पूर्ण पुँल्लिगरूपको स्वयं धारण करते हैं और महादेवमनोरमा देवी शिवा सारा स्त्रीलिंगरूप धारण करती हैं। शिववल्लभा शिवा समस्त शब्दजालका रूप धारण करती हैं और बालेन्दुशेखर शिव सम्पूर्ण अर्थका। जिस- जिस पदार्थकी जो-जो शक्ति कही गयी है, वह-वह शक्ति तो विश्वेश्वरी देवी शिवा हैं और वह-वह सारा पदार्थ साक्षात् महेश्वर हैं। जो सबसे परे है, जो पवित्र है, जो पुण्यमय है तथा जो मंगलरूप है, उस-उस वस्तुको महाभाग महात्माओंने उन्हीं दोनों शिव-पार्वतीके तेजसे विस्तारको प्राप्त हुई बताया है।

जैसे जलते हुए दीपककी शिखा समूचे घरको प्रकाशित करती है, उसी प्रकार शिव-पार्वतीका ही यह तेज व्याप्त होकर सम्पूर्ण जगत्‌को प्रकाश दे रहा है। ये दोनों शिवा और शिव सर्वरूप हैं, सबका कल्याण करनेवाले हैं; अतः सदा ही इन दोनोंका पूजन, नमन एवं चिन्तन करना चाहिये।

श्रीकृष्ण ! आज मैंने तुम्हारे समक्ष अपनी बुद्धिके अनुसार परमेश्वर शिवा और शिवके यथार्थ स्वरूपका वर्णन किया है, परंतु इयत्तापूर्वक नहीं; अर्थात् इस वर्णनसे यह नहीं मान लेना चाहिये कि इन दोनोंके यथार्थरूपका पूर्णतः वर्णन हो गया; क्योंकि इनके स्वरूपकी इयत्ता (सीमा) नहीं है। जो समस्त महापुरुषों- के भी मनकी सीमासे परे है, परमेश्वर शिव और शिवाके उस यथार्थ स्वरूपका वर्णन कैसे किया जा सकता है। जिन्होंने अपने चित्तको महेश्वरके चरणोंमें अर्पित कर दिया है तथा जो उनके अनन्यभक्त हैं, उनके ही मनमें वे आते हैं और उन्हींकी बुद्धिमें आरूढ़ होते हैं। दूसरोंकी बुद्धिमें वे आरूढ़ नहीं होते।

 

यहाँ मैंने जिस विभूतिका वर्णन किया है, वह प्राकृत है, इसलिये अपरा मानी गयी है। इससे भिन्न जो अप्राकृत एवं परा विभूति है, वह गुह्य है। उनके गुह्य रहस्यको जाननेवाले पुरुष ही उन्हें जानते हैं। परमेश्वरकी यह अप्राकृत परा विभूति वह है, जहाँसे मन और इन्द्रियोंसहित वाणी लौट आती है। परमेश्वरकी वही विभूति यहाँ परम धाम है, वही यहाँ परमगति है और वही यहाँ पराकाष्ठा है। जो अपने श्वास और इन्द्रियों- पर विजय पा चुके हैं, वे योगीजन ही उसे पानेका प्रयत्न करते हैं। शिवा और शिवकी यह विभूति संसाररूपी विषधर सर्पके डसनेसे मृत्युके अधीन हुए मानवोंके लिये संजीवनी ओषधि है।

इसे जाननेवाला पुरुष किसीसे भी भयभीत नहीं होता। जो इस परा और अपरा विभूतिको ठीक-ठीक जान लेता है, वह अपरा विभूतिको लाँघकर परा विभूतिका अनुभव करने लगता है।

श्रीकृष्ण ! यह तुमसे परमात्मा शिव और पार्वतीके यथार्थ स्वरूपका गोपनीय होनेपर भी वर्णन किया गया है; क्योंकि तुम भगवान् शिवकी भक्तिके योग्य हो। जो शिष्य न हों, शिवके उपासक न हों और भक्त भी न हों, ऐसे लोगोंको कभी शिव-पार्वतीकी इस विभूतिका उपदेश नहीं देना चाहिये। यह वेदकी आज्ञा है।

 

अतः अत्यन्त कल्याणमय श्रीकृष्ण ! तुम दूसरोंको इसका उपदेश न देना। जो तुम्हारे जैसे योग्य पुरुष हों, उन्हींसे कहना; अन्यथा मौन ही रहना। जो भीतरसे पवित्र, शिवका भक्त और विश्वासी हो, वह यदि इसका कीर्तन करे तो मनोवांछित फलका भागी होता है। यदि पहलेके प्रबल प्रतिबन्धक कर्मोंद्वारा प्रथम बार फलकी प्राप्तिमें बाधा पड़ जाय, तो भी बारंबार साधनका अभ्यास करना चाहिये। ऐसा करनेवाले पुरुषके लिये यहाँ कुछ भी दुर्लभ नहीं है।

(अध्याय ४)

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