[वायवीयसंहिता (उत्तरखण्ड)]
Shiv puran vayu samhita uttar khand chapter 17 (शिव पुराण वायु संहिता अध्याय 17 षड्ध्वशोधन की विधि)
:-उपमन्यु कहते हैं-यदुनन्दन ! इसके बाद गुरु शिष्यकी योग्यताको देखकर उसके सम्पूर्ण बन्धनोंकी निवृत्तिके लिये षडध्वशोधन करे। कला, तत्त्व, भुवन, वर्ण, पद और मन्त्र – ये ही संक्षेपसे छः अध्वा कहे गये हैं। निवृत्ति * आदि जो पाँच कलाएँ हैं, उन्हें विद्वान् पुरुष कलाध्वा कहते हैं। अन्य पाँच अध्वा इन पाँचों कलाओंसे व्याप्त हैं। शिवतत्त्वसे लेकर भूमिपर्यन्त जो छब्बीस तत्त्व हैं, उनको ‘तत्त्वाध्वा’ कहा गया है। यह अध्वा शुद्ध और अशुद्धके भेदसे दो प्रकारका है। आधारसे लेकर उन्मनातक ‘भुवनाध्वा’ कहा गया है। यह भेद और उपभेदोंको छोड़कर साठ है। रुद्रस्वरूप जो पचास वर्ण हैं, उन्हें ‘वर्णाध्वा’ की संज्ञा दी गयी है। पदोंको ‘पदाध्वा’ कहा गया है, जिसके अनेक भेद हैं। सब प्रकारके उपमन्त्रोंसे ‘मन्त्राध्वा’ होता है, जो परम विद्यासे व्याप्त है। जैसे तत्त्वनायक शिवकी तत्त्वोंमें गणना नहीं होती, उसी प्रकार उस मन्त्रनायक महेश्वरकी मन्त्राध्वामें गणना नहीं होती। कलाध्वा व्यापक है और अन्य अध्वा व्याप्य हैं। जो इस बातको ठीक-ठीक नहीं जानता है,वह अध्वशोधनका अधिकारी नहीं है।
जिसने छः प्रकारके अध्वाका रूप नहीं जाना, वह उनके व्याप्य व्यापक भावको समझ ही नहीं सकता है। इसलिये अध्वाओंके स्वरूप तथा उनके व्याप्य-व्यापक भावको ठीक-ठीक जानकर ही अध्व- शोधन करना चाहिये।पूर्ववत् कुण्ड और मण्डल-निर्माणका कार्य वहाँ करके पूर्वदिशामें दो हाथ लम्बा-चौड़ा कलशमण्डल बनावे। तत्पश्चात् शिवाचार्य शिष्यसहित स्नान और नित्यकर्म करके मण्डलमें प्रविष्ट हो पहलेकी ही भाँति शिवजीकी पूजा करे। फिर वहाँ लगभग चार सेर चावलसे तैयार की गयी खीरमेंसे आधा प्रभुको नैवेद्य लगा दे और शेष खीरको होमके लिये रख दे। पूर्वदिशाकी ओर बने हुए अनेक रंगोंसे अलंकृत मण्डलमें गुरु पाँच कलशोंकी स्थापना करे। चारको तो चारों दिशाओंमें रखे और एकको मध्यभागमें।
उन कलशोंपर मूलमन्त्रके ‘नमः शिवाय’ इन पाँचों अक्षरोंको विन्दु और नादसे युक्त करके उनके द्वारा कल्पविधिका ज्ञाता गुरु ईशान आदि ब्रह्मोंकी स्थापना करे। मध्यवर्ती कलशपर ‘ॐ नं ईशानाय नमः, ईशानं स्थापयामि’ कहकर ईशानकी स्थापना करे। पूर्ववर्ती कलशपर ‘ॐ मं तत्पुरुषाय नमः, तत्पुरुषं स्थापयामि’ कहकर तत्पुरुषकी, दक्षिण कलशपर ‘ॐ शिं अघोराय नमः, अघोरं स्थापयामि’ कहकर अघोरकी, वाम या उत्तरभागमें रखे हुए कलशपर ‘ॐ वां वामदेवाय नमः, वामदेवं स्थापयामि’ कहकर वामदेवकी तथा पश्चिमके कलशपर ‘ॐ यं सद्योजाताय नमः, सद्योजातं स्थापयामि’ कहकर सद्योजातकी स्थापना करे। तदनन्तर रक्षाविधान करके मुद्रा बाँधकर कलशोंको अभिमन्त्रित करे। इसके बाद पूर्ववत् शिवाग्निमें होम आरम्भ करे। पहले होमके लिये जो आधी खीर रखी गयी थी, उसका हवन करके शेषभाग शिष्यको खानेके लिये दे।
पहलेकी भाँति मन्त्रोंका तर्पणान्त कर्म करके पूर्णाहुति होम करनेके पश्चात् प्रदीपन कर्म करे। प्रदीपन कर्ममें ‘ॐ हुं नमः शिवाय फट् स्वाहा’ का उच्चारण करके क्रमशः हृदय आदि अंगोंको तीन- तीन आहुतियाँ देनी चाहिये। (अंगोंमें हृदय, सिर, शिखा, कवच, नेत्रत्रय और अस्त्र – इन छःकी गणना है।) इनमेंसे एक-एक अंगको तीन-तीन बार मन्त्र पढ़कर तीन- तीन आहुतियाँ देनी चाहिये। इन सबके स्वरूपका तेजस्वीरूपमें चिन्तन करना चाहिये। इसके बाद ब्राह्मणकी कुमारी कन्याके द्वारा काते हुए सफेद सूतको एक बार त्रिगुण करके पुनः त्रिगुण करे। फिर उस सूत्रको अभिमन्त्रित करके उसका एक छोर शिष्यकी शिखाके अग्रभागमें बाँध दे। शिष्य सिर ऊँचा करके खड़ा हो जाय, उस अवस्थामें वह सूत उसके पैरके अँगूठेतक लटकता रहे।
सूतको इस तरह लटकाकर उसमें सुषुम्णा नाड़ीकी संयोजना करे। फिर मन्त्रज्ञ गुरु शान्त मुद्राके साथ मूलमन्त्रसे तीन आहुतिका होम करके उस नाड़ीको लेकर उस सूत्रमें स्थापित करे। फिर पूर्ववत् फूल फेंककर शिष्यके हृदयमें ताड़न करे और उससे चैतन्यको लेकर बारह आहुतियोंके पश्चात् शिवको निवेदित कर उस लटकते हुए सूत्रको एक सूतसे जोड़े और ‘हुं फट्’ मन्त्रसे रक्षा करके उस सूतको शिष्यके शरीरमें लपेट दे। फिर यह भावना करे कि शिष्यका शरीर मूलत्रयमय पाश है, भोग और भोग्यत्व ही इसका लक्षण है, यह विषय इन्द्रिय और देह आदिका जनक है।
तदनन्तर शान्त्यतीता आदि पाँच कलाओंको, जो आकाशादि तत्त्वरूपिणी हैं, उस सूत्रमें उनके नाम ले-लेकर जोड़ना चाहिये। यथा -‘व्योमरूपिणीं शान्त्यतीतकलां योजयामि, वायुरूपिणीं शान्तिकलां योजयामि, तेजोरूपिणीं विद्याकलां योजयामि, जलरूपिणीं प्रतिष्ठाकलां योजयामि, पृथ्वीरूपिणीं निवृत्तिकलां योजयामि।’ इति।
इस तरह इन कलाओंका योजन करके उनके नामके अन्तमें ‘नमः’ जोड़कर इनकी पूजा करे। यथा- ‘शान्त्यतीतकलायै नमः, शान्तिकलायै नमः ।’ इत्यादि। अथवा आकाशादिके बीजभूत (हं यं रं वं लं) मन्त्रोंद्वारा या पंचाक्षरके पाँच अक्षरोंमें नाद- विन्दुका योग करके बीजरूप हुए उन मन्त्राक्षरोंद्वारा क्रमशः पूर्वोक्त कार्य करके तत्त्व आदिमें मलादि पाशोंकी व्याप्तिका चिन्तन करे। इसी तरह मलादि पाशोंमें भी कलाओंकी व्याप्ति देखे। फिर आहुति करके उन कलाओंको संदीपित करे। तदनन्तर शिष्यके मस्तकपर पुष्पसे ताड़न करके उसके शरीरमें लिपटे हुए सूत्रको मूलमन्त्रके उच्चारणपूर्वक शान्त्यतीत पदमें अंकित करे। इस प्रकार क्रमशः शान्त्यतीतसे आरम्भ करके निवृत्तिकलापर्यन्त पूर्वोक्त कार्य करके तीन आहुतियाँ देकर मण्डलमें पुनः शिवका पूजन करे।
इसके बाद देवताके दक्षिणभागमें शिष्यको कुशयुक्त आसनपर मण्डलमें उत्तराभिमुख बिठाकर गुरु होमा- वशिष्ट चरु उसे दे। गुरुके दिये हुए उस चरुको शिष्य आदरपूर्वक ग्रहण करके शिवका नाम ले उसे खा जाय। फिर दो बार आचमन करके शिवमन्त्रका उच्चारण करे। इसके बाद गुरु दूसरे मण्डलमें शिष्यको पंचगव्य दे। शिष्य भी अपनी शक्तिके अनुसार उसे पीकर दो बार आचमन करके शिवका स्मरण करे। इसके बाद गुरु शिष्यको मण्डलमें पूर्ववत् बिठाकर उसे शास्त्रोक्त लक्षणसे युक्त दन्तधावन दे। शिष्य पूर्व या उत्तरकी ओर मुँह करके बैठे और मौन हो उस दतौनके कोमल अग्रभाग- द्वारा अपने दाँतोंकी शुद्धि करे। फिर उस दतौनको धोकर फेंक दे और कुल्ला करके मुँह-हाथ धोकर शिवका स्मरण करे। फिर गुरुकी आज्ञा पाकर शिष्य हाथ जोड़े हुए शिवमण्डलमें प्रवेश करे। उस फेंके हुए दतौनको यदि गुरुने पूर्व, उत्तर या पश्चिम दिशामें अपने सामने देख लिया तब तो मंगल है; अन्यथा अन्य दिशाओंमें देखनेपर अमंगल होता है।
यदि निन्दित दिशाकी ओर वह दीख जाय तो उसके दोषकी शान्तिके लिये गुरु मूलमन्त्रसे एक सौ आठ या चौवन आहुतियोंका होम करे। तत्पश्चात् शिष्यका स्पर्श करके उसके कानमें ‘शिव’ नामका जप करके महादेवजीके दक्षिणभागमें शिष्यको बिठाये। वहाँ नूतन वस्त्रपर बिछे हुए कुशके अभिमन्त्रित आसनपर पवित्र हुआ शिष्य मन-ही- मन शिवका ध्यान करते हुए पूर्वकी ओर सिरहाना करके रातमें सोये। शिखामें सूत बँधे हुए उस शिष्यकी शिखाको शिखासे ही बाँधकर गुरु नूतन वस्त्र- द्वारा हुंकार-उच्चारण करके उसे ढक दे। फिर शिष्यके चारों ओर भस्म, तिल और सरसोंसे तीन रेखा खींचकर फट्- मन्त्रका जप करके रेखाके बाह्यभागमें दिक्पालोंके लिये बलि दे। शिष्य भी उपवासपूर्वक वहाँ रातमें सोया रहे और सबेरा होनेपर उठकर अपने देखे हुए स्वप्नकी बातें गुरुको बताये।
(अध्याय १७)