Shiv puran vayu samhita uttar khand chapter 16 (शिव पुराण वायु संहिता अध्याय 16 समय-संस्कार या समयाचारकी दीक्षाकी विधि)

[वायवीयसंहिता (उत्तरखण्ड)]

Shiv puran vayu samhita uttar khand chapter 16 (शिव पुराण वायु संहिता अध्याय 16 समय-संस्कार या समयाचारकी दीक्षाकी विधि)

:-उपमन्यु कहते हैं-यदुनन्दन ! नाना प्रकारके दोषोंसे रहित शुद्ध स्थान और पवित्र दिनमें गुरु पहले शिष्यका ‘समय’ नामक संस्कार करे। गन्ध, वर्ण और रस आदिसे विधिपूर्वक भूमिकी परीक्षा करके वास्तु-शास्त्रमें बतायी हुई पद्धतिसे वहाँ मण्डपका निर्माण करे। मण्डपके बीचमें वेदी बनाकर आठों दिशाओंमें छोटे-छोटे कुण्ड बनाये। फिर ईशानकोणमें या पश्चिम- दिशामें प्रधानकुण्डका निर्माण करे। एक ही प्रधान कुण्ड बनाकर चंदोवा, ध्वज तथा अनेक प्रकारकी बहुसंख्यक मालाओंसे उसको सजाये। तत्पश्चात् वेदीके मध्यभागमें शुभ लक्षणोंसे युक्त मण्डल बनाये।

 

लालरंगके सुवर्ण आदिके चूर्णसे वह मण्डल बनाना चाहिये। मण्डल ऐसा हो कि उसमें ईश्वरका आवाहन किया जा सके। निर्धन मनुष्य सिन्दूर तथा अगहनी या तिन्नीके चावलके चूर्णसे मण्डल बनाये। उस मण्डपमें एक या दो हाथका श्वेत या लाल कमल बनाये। एक हाथके कमलकी कर्णिका आठ अंगुलकी होनी चाहिये। उसके केसर चार अंगुलमें हों और शेष भागमें अष्टदल आदिकी कल्पना करे। दो हाथके कमलकी कर्णिका आदि एक हाथवालेसे दुगुनी होनी चाहिये। उक्त वेदी या मण्डपके ईशानकोणमें- पुनः एक वेदीपर एक हाथ या आधे- हाथका मण्डल बनाये और उसे शोभाजनक * सामग्रियोंसे सुशोभित करे। तत्पश्चात् धान, – चावल, सरसों, तिल, फूल और कुशासे उस मण्डलको आच्छादित करके उसके – ऊपर शुभ लक्षणसे युक्त शिवकलशकी स्थापना करे।

 

वह कलश सोना, चाँदी, ताँबा अथवा मिट्टीका होना चाहिये। उसपर गन्ध, पुष्प, अक्षत, कुश और दूर्वाकुर रखे जायें, उसके कण्ठमें सफेद सूत लपेटा जाय और उसे दो नूतन वस्त्रोंसे आच्छादित किया जाय। उसमें शुद्ध जल भर दिया जाय। कलशमें एक मुट्ठा कुश अग्रभाग ऊपरकी ओर करके डाला जाय। सुवर्ण आदि द्रव्य छोड़ा जाय और उस कलशको ऊपरसे ढक दिया जाय। उस आसनरूप कमलके उत्तर दलमें सूत्र आदिके बिना झारी या गड़आ, वर्धनी (विशिष्ट जलपात्र), शंख, चक्र और कमलदल आदि सब सामग्री संग्रह करके रखे। उक्त आसन- मण्डलके अग्रभागमें चन्दनमिश्रित जलसे भरी हुई वर्धनी अस्त्रराजके लिये रखे। फिर मण्डलके पूर्वभागमें पूर्ववत् मन्त्रयुक्त कलशकी स्थापना करके शिवकी विधि-पूर्वक महापूजा आरम्भ करे।

समुद्र या नदीके किनारे, गोशालामें,पर्वतके शिखरपर, देवालयमें अथवा घरमें या किसी भी मनोहर स्थानमें मण्डपादि रचनाके बिना पूर्वोक्त सब कार्य करे। फिर पूर्ववत् मण्डल और अग्निकी वेदी बनाकर गुरु प्रसन्नमुखसे पूजा-भवनमें प्रवेश करे। वहाँ सब प्रकारके मंगल-कृत्यका सम्पादन करके नित्यकर्मके अनुष्ठानपूर्वक मण्डलके मध्यभागमें महेश्वरकी महापूजा करनेके अनन्तर पुनः शिवकलशपर शिवका आवाहन-पूजन करे। पश्चिमाभिमुख यज्ञरक्षक ईश्वरका ध्यान करके अस्त्रराजकी वर्धनीमें दक्षिणकी ओर ईश्वरके अस्त्रकी पूजा करे। फिर मन्त्रयुक्त कलशमें मन्त्र तथा मुद्रा आदिका न्यास करके मन्त्रविशारद गुरु मन्त्र-याग करे। इसके बाद देशिकशिरोमणि गुरु प्रधान कुण्डमें शिवाग्निकी स्थापना करके उसमें होम करे। साथ ही दूसरे ब्राह्मण भी चारों ओरसे उसमें आहुति डालें।

 

आचार्यसे आधे या चौथाई होमका उनके लिये विधान है। आचार्यशिरोमणिको प्रधान कुण्डमें ही हवन करना चाहिये। दूसरे लोगोंको स्वाध्याय, स्तोत्र एवं मंगलपाठ करना चाहिये। अन्य शिवभक्त भी वहाँ विधिवत् जप करे। नृत्य, गीत, वाद्य एवं अन्य मंगल कृत्य भी होने चाहिये। सदस्योंका विधिवत् पूजन, पुण्याहवाचन तथा पुनः भगवान् शंकरका पूजन सम्पन्न करके शिष्यपर अनुग्रह करनेकी इच्छा मनमें ले आचार्य महादेवजीसे इस प्रकार प्रार्थना करे –

“प्रसीद देवदेवेश देहमाविश्य मामकम्।विमोचयैनं विश्वेश घृणया च घृणानिधे ॥”

 

‘देवदेवेश्वर ! प्रसन्न होइये। विश्वनाथ ! दयानिधे ! मेरे शरीरमें प्रवेश करके आप कृपापूर्वक इस शिष्यको बन्धनमुक्त कराइये।’

तदनन्तर ‘मैं ऐसा ही करूँगा’ इस प्रकार इष्टदेवकी अनुमति पाकर गुरु उस शिष्यको जिसने उपवास किया हो या हविष्य भोजन किया हो, अपने निकट बुलाये। वह शिष्य एक समय भोजन करनेवाला और विरक्त हो। स्नान करके प्रातःकालका कृत्य पूरा कर चुका हो। मंगल-कृत्यका सम्पादन करके प्रणवका जप और महादेवजीका ध्यान कर रहा हो। उसे पश्चिम या दक्षिण द्वारके सामने मण्डलमें कुशके आसनपर उत्तरकी ओर मुँह करके बिठाये और गुरु स्वयं पूर्वकी ओर मुँह करके खड़ा रहे। शिष्य ऊपरकी ओर मुँह करके हाथ जोड़ ले। गुरु प्रोक्षणीके जलसे शिष्यका प्रोक्षण करके उसके मस्तकपर अस्त्रमुद्राद्वारा फूल फेंककर मारे। फिर अभिमन्त्रित नूतन वस्त्र – आधे दुपट्टेसे उसकी आँख बाँध दे। इसके बाद शिष्यको दरवाजेसे मण्डलके भीतर प्रवेश कराये।

 

शिष्य भी गुरुसे प्रेरित हो शंकरजीकी तीन बार प्रदक्षिणा करे। इसके बाद प्रभुको सुवर्णमिश्रित पुष्पांजलि चढ़ाकर पूर्व या उत्तरकी ओर मुँह करके पृथ्वीपर दण्डकी भाँति गिरकर साष्टांग प्रणाम करे। तदनन्तर मूलमन्त्रसे गुरु शिष्यका प्रोक्षण करके पूर्ववत् अस्त्रमन्त्रके द्वारा उसके मस्तकपर फूलसे ताड़न करनेके पश्चात् नेत्र-बन्धन खोल दे। शिष्य पुनः मण्डलकी ओर देखकर हाथ जोड़ प्रभुको प्रणाम करे। इसके बाद शिवस्वरूप आचार्य शिष्यको मण्डलके दक्षिण अपने बायें भागमें कुशके आसनपर बिठाये और महादेवजीकी आराधना करके उसके मस्तकपर शिवका वरद हाथ रखे। ‘मैं शिव हूँ’ इस अभिमानसे युक्त गुरु शिवके तेजसे सम्पन्न अपने हाथको शिष्यके मस्तकपर रखे और शिवमन्त्रका उच्चारण करे।

 

उसी हाथसे वह शिष्यके सम्पूर्ण अंगोंका स्पर्श करे। शिष्य भी आचार्यरूपमें उपस्थित हुए ईश्वरको पृथ्वीपर गिरकर साष्टांग प्रणाम करे। तदनन्तर जब शिष्य शिवाग्निमें महादेवजीकी विधिवत् पूजा करके तीन आहुति दे ले, तब गुरु पुनः पूर्ववत् शिष्यको अपने पास बिठा ले। कुशोंके अग्रभागसे उसका स्पर्श करते हुए विद्या या मन्त्रद्वारा अपने-आपको उसके भीतर आविष्ट करे।

तत्पश्चात् महादेवजीको प्रणाम करके नाड़ी-संधान करे। फिर शिव-शास्त्रमें बताये हुए मार्गसे प्राणका निष्क्रमण करके शिष्यके शरीरमें प्रवेशकी भावना करे, साथ ही मन्त्रोंका तर्पण भी करे। मूलमन्त्रके तर्पणके लिये उसीके उच्चारणपूर्वक दस आहुतियाँ देनी चाहिये। फिर अंगोंके तर्पणके लिये अंग-मन्त्रोंद्वारा ही क्रमशः तीन आहुतियाँ दे। इसके बाद पूर्णाहुति देकर मन्त्रवेत्ता गुरु प्रायश्चित्तके निमित्त मूलमन्त्रसे पुनः दस आहुतियाँ अग्निमें डाले। फिर देवेश्वर शिवका पूजन करके सम्यक् आचमन और हवन करनेके पश्चात् यथोचित रीतिसे जातितः वैश्यका उद्धार करे। भावनाद्वारा उसके वैश्यत्वको निकालकर उसमें क्षत्रियत्वकी उत्पत्ति करे। फिर इसी तरह क्षत्रियत्वका भी उद्धार करके गुरु उसमें ब्राह्मणत्वकी उद्भावना करे। इसी प्रणालीसे जातितः क्षत्रियका भी उद्धार करके ब्राह्मण बनाये।

फिर उन दोनों शिष्योंमें रुद्रत्वकी उत्पत्ति- करे। जो जातिसे ही ब्राह्मण है, उस – शिष्यमें केवल रुद्रत्वकी ही स्थापना करे।- फिर शिष्यका प्रोक्षण और ताड़न करके – उसके आगकी चिनगारियोंके समान प्रकाशमान शिवस्वरूप आत्माको अपने -आत्मामें स्थित होनेकी भावना करे। तदनन्तर पूर्वोक्त नाड़ीसे गुरु-मन्त्रोच्चारणपूर्वक वायुका रेचन (निःसारण) करे। वायुका – निःसारण करके उस नाड़ीके द्वारा ही शिष्यके हृदयमें वह स्वयं प्रवेश करे। प्रवेश करके उसके चैतन्यका नील बिन्दुके समान चिन्तन करे। साथ ही यह भावना करे कि मेरे तेजसे इसका सारा मल नष्ट हो गया और यह पूर्णतः प्रकाशित हो रहा है।

 

इसके बाद उस जीव-चैतन्यको लेकर नाड़ीसे संहारमुद्रा एवं पूरक प्राणायामद्वारा अपने आत्मासे एकीभूत करनेके लिये उसमें निविष्ट करे। फिर रेचककी ही भाँति कुम्भकद्वारा उसी नाड़ीसे उस जीव-चैतन्यको वहाँसे लेकर शिष्यके हृदयमें स्थापित कर दे। तत्पश्चात् शिष्यका स्पर्श करके शिवसे उपलब्ध हुए यज्ञोपवीतको उसे देकर गुरु तीन बार आहुति दे पूर्णाहुति होम करे। इसके बाद आराध्यदेवके दक्षिणभागमें शिष्यको कुश तथा फूलसे आच्छादित करके श्रेष्ठ आसनपर बिठाकर उसका मुँह उत्तरकी ओर करके उसे स्वस्तिकासनमें स्थित करे।

 

शिष्य गुरुकी ओर हाथ जोड़े रहे। गुरु स्वयं पूर्वाभिमुख हो एक श्रेष्ठ आसनपर खड़ा रहे और पहलेसे ही स्थापन- पूर्वक सिद्ध किये हुए पूर्ण घटको लेकर शिवका ध्यान करते हुए मन्त्रपाठ तथा मांगलिक वाद्योंकी ध्वनिके साथ शिष्य-का अभिषेक करे। तदनन्तर शिष्य उस अभिषेकके जलको पोंछकर श्वेत वस्त्र धारण करे, आचमन करके अलंकृत हो हाथ जोड़ मण्डपमें जाय। तब गुरु पहलेकी भाँति उसे कुशासनपर बिठाकर मण्डलमें महादेवजीकी पूजा करके करन्यास करे। इसके बाद मन- ही-मन महादेवजीका ध्यान करते हुए दोनों हाथोंमें भस्म ले शिष्यके अंगोंमें लगाये और शिव-मन्त्रका उच्चारण करे।

तदनन्तर शिवाचार्य मातृकान्यासके मार्गसे शिष्यका दहन-प्लावनादि सकलीकरण करके उसके मस्तकपर शिवके आसनका ध्यान करे और वहाँ शिवका आवाहन करके यथोचित रीतिसे उनकी मानसिक पूजा करे। तत्पश्चात् हाथ जोड़ महादेवजीकी प्रार्थना करे- ‘प्रभो! आप नित्य यहाँ विराजमान हों।’ इस तरह प्रार्थना करके मन-ही-मन यह भावना करे कि शिष्य भगवान् शंकरके तेजसे प्रकाशित हो रहा है। इसके बाद पुनः शिवकी पूजा करके शिवारूपिणी शैवी आज्ञा प्राप्त करके गुरु शिष्यके कानमें धीरे-धीरे शिवमन्त्रका उच्चारण करे। शिष्य हाथ जोड़े हुए उस मन्त्रको सुनकर उसीमें मन लगा शिवाचार्यकी आज्ञाके अनुसार धीरे-धीरे उसकी आवृत्ति करे। फिर मन्त्र-ज्ञानकुशल आचार्य शाक्त- मन्त्रका उपदेश दे, उसका सुखपूर्वक उच्चारण करवाकर शिष्यके प्रति मंगलाशंसा करे। तत्पश्चात् संक्षेपसे वाच्य-वाचक योगके अनुसार ईश्वररूप मन्त्रका उपदेश देकर योगासनकी शिक्षा दे। तदनन्तर शिष्य गुरुकी आज्ञासे शिव, अग्नि तथा गुरुके समीप भक्तिभावसे प्रतिज्ञापूर्वक निम्नांकितरूपसे दीक्षावाक्यका उच्चारण करे –

वरं प्राणपरित्यागश्छेदनं शिरसोऽपि वा।न त्वनभ्यर्च्य भुञ्जीय भगवन्तं त्रिलोचनम् ॥

 

‘मेरे लिये प्राणोंका परित्याग कर देना अच्छा होगा अथवा सिर कटा देना भी अच्छा होगा; किंतु मैं भगवान् त्रिलोचनकी पूजा किये बिना कभी भोजन नहीं कर सकता।’

जबतक मोह दूर न हो, तबतक वह भगवान् शिवमें ही निष्ठा रखकर उन्हींके आश्रित हो नियमपूर्वक उन्हींकी आराधना करता रहे। फिर भगवान् शिव ही उसे योगक्षेम प्रदान करते हैं। ऐसा करनेसे उस शिष्यका नाम ‘समय’ होगा। उसे शिवाश्रममें रहनेका अधिकार प्राप्त होगा। वहाँ रहनेवाले शिष्यको गुरुकी आज्ञाका पालन करते हुए सदा उनके वशमें रहना चाहिये। इसके बाद गुरु करन्यास करके अपने हाथसे भस्म लेकर मूलमन्त्रका उच्चारण करते हुए उस भस्म तथा रुद्राक्षको अभिमन्त्रित करके शिष्यके हाथमें दे दे। साथ ही महादेवजीकी प्रतिमा अथवा उनका गूढ़ शरीर (लिंग) और यथासम्भव पूजा, होम, जप एवं ध्यानके साधन भी दे। फिर वह शिष्य भी शिवाचार्यसे प्राप्त हुईं उन वस्तुओंको उन्हींकी आज्ञासे बड़े आदरके साथ ग्रहण करे।

 

उनकी आज्ञाका उल्लंघन न करे, आचार्यसे प्राप्त हुई सारी वस्तुओंको भक्तिभावसे सिरपर रखकर ले जाय और उनकी रक्षा करे। अपनी रुचिके अनुसार मठमें या घरमें शंकरजीकी पूजा करता रहे, इसके बाद गुरु भक्ति, श्रद्धा और बुद्धिके अनुसार शिष्यको शिवाचार्यकी शिक्षा दे।शिवाचार्यने समयाचारके विषयमें जो कुछ कहा हो, जो आज्ञा दी हो तथा और भी जो कुछ बातें बतायी हों, उन सबको शिष्य शिरोधार्य करे। गुरुके आदेशसे ही वह शिवागमका ग्रहण, पठन और श्रवण करे। न तो अपनी इच्छासे करे और न दूसरेकी प्रेरणासे ही।

 

इस प्रकार मैंने संक्षेपसे समयाख्य-संस्कार – समयाचारकी दीक्षाका वर्णन किया है। यह मनुष्योंको साक्षात् शिवधामकी प्राप्ति करानेके लिये सबसे उत्तम साधन है।

(अध्याय १६)

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