Shiv puran vayu samhita purvkhand chapter 35 (शिव पुराण वायु संहिता अध्याय 35 भगवान् शंकरका इन्द्ररूप धारण करके उपमन्युके भक्तिभावकी परीक्षा लेना, उन्हें क्षीरसागर आदि देकर बहुत-से वर देना और अपना पुत्र मानकर पार्वतीके हाथमें सौंपना, कृतार्थ हुए उपमन्युका अपनी माताके स्थानपर लौटना)

(वायवीयसंहिता(पूर्वखण्ड))

Shiv puran vayu samhita purvkhand chapter 35 (शिव पुराण वायु संहिता अध्याय 35 भगवान् शंकरका इन्द्ररूप धारण करके उपमन्युके भक्तिभावकी परीक्षा लेना, उन्हें क्षीरसागर आदि देकर बहुत-से वर देना और अपना पुत्र मानकर पार्वतीके हाथमें सौंपना, कृतार्थ हुए उपमन्युका अपनी माताके स्थानपर लौटना)

:-तदनन्तर भगवान् विष्णुके अनुरोध करनेपर श्रीशिवजीने पहले इन्द्रका रूप धारण करके उपमन्युके पास जानेका विचार किया। फिर श्वेत ऐरावतपर आरूढ़ हो स्वयं देवराज इन्द्रका शरीर ग्रहण करके भगवान् सदाशिव देवता, असुर, सिद्ध तथा बड़े-बड़े नागोंके साथ उपमन्यु मुनिके तपोवनकी ओर चले। उस समय वह ऐरावत दायीं सूँड़में चंवर लेकर शचीसहित दिव्यरूपवाले देवराज इन्द्रको हवा कर रहा था और बायीं सूँड़में श्वेत छत्र लेकर उनपर लगाये चल रहा था। इन्द्रका रूप धारण किये उमासहित भगवान् सदाशिव उस श्वेत छत्रसे उसी तरह सुशोभित हो रहे थे, जैसे उदित हुए पूर्ण चन्द्रमण्डलसे मन्दराचल शोभायमान होता है।

 

इस तरह इन्द्रके स्वरूपका आश्रय ले परमेश्वर शिव उपमन्युके उस आश्रमपर अपने उस भक्तपर अनुग्रह करनेके लिये जा पहुँचे। इन्द्ररूपधारी परमेश्वर शिवको आया देख मुनियोंमें श्रेष्ठ उपमन्यु मुनिने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा – ‘देवेश्वर ! जगन्नाथ ! भगवन् ! देवशिरोमणे ! आप स्वयं यहाँ पधारे, इससे मेरा यह आश्रम पवित्र हो गया।’

इन्द्ररूपधारी शिव बोले- उत्तम व्रतका पालन करनेवाले धौम्यके बड़े भैया महामुने उपमन्यो ! मैं तुम्हारी इस तपस्यासे बहुत संतुष्ट हूँ। तुम वर माँगो, मैं तुम्हें सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुएँ प्रदान करूँगा। वायुदेवता कहते हैं-उन इन्द्रदेवके ऐसा कहनेपर उस समय मुनिप्रवर उपमन्युने हाथ जोड़कर कहा- ‘भगवन् ! मैं भगवान् शिवकी भक्ति माँगता हूँ।’ यह सुनकर इन्द्रने कहा- ‘क्या तुम मुझे नहीं जानते ! मैं समस्त देवताओंका पालक और तीनों लोकोंका अधिपति इन्द्र हूँ। सब देवता मुझे नमस्कार करते हैं। ब्रह्मर्षे ! मेरे भक्त हो जाओ। सदा मेरी ही पूजा करो तुम्हारा कल्याण हो। मैं तुम्हें सब कुछ दूँगा। निर्गुण रुद्रको त्याग दो। उस निर्गुण रुद्रसे तुम्हारा कौन-सा कार्य सिद्ध होगा, जो देवताओंकी पंक्तिसे बाहर होकर पिशाचभावको प्राप्त हो गया है।’ वायुदेवता कहते हैं- यह सुनकर पंचाक्षर- मन्त्रका जप करते हुए वे मुनि उपमन्यु इन्द्रको अपने धर्ममें विघ्न डालनेके लिये आया हुआ जानकर बोले।

उपमन्युने कहा-यद्यपि तुम भगवान् शिवकी निन्दामें तत्पर हो, तथापि इसी प्रसंगमें परमात्मा महादेवजीकी निर्गुणता बताकर तुमने स्वयं ही उनका सम्पूर्ण महत्त्व स्पष्टरूपसे कह दिया। तुम नहीं जानते कि भगवान् रुद्र सम्पूर्ण देवेश्वरोंके भी ईश्वर हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेशके भी जनक हैं तथा प्रकृतिसे परे हैं। ब्रह्मवादी लोग उन्हींको सत्-असत्, व्यक्त-अव्यक्त तथा नित्य एक और अनेक कहते हैं। अतः मैं उन्हींसे वर मागूँगा। जो युक्तिवादसे परे तथा सांख्य और योगके सारभूत अर्थका ज्ञान प्रदान करनेवाले हैं, तत्त्वज्ञानी पुरुष उत्कृष्ट जानकर जिनकी उपासना करते हैं, उन भगवान् शिवसे ही मैं वर मागूँगा। देवाधम ! दूधके लिये जो मेरी इच्छा है, वह यों ही रह जाय; परंतु शिवास्त्रके द्वारा तुम्हारा वध करके मैं अपने इस शरीरको त्याग दूँगा।

वायुदेवता कहते हैं-ऐसा कहकर स्वयं मर जानेका निश्चय करके उपमन्यु दूधकी भी इच्छा छोड़कर इन्द्रका वध करनेके लिये उद्यत हो गये। उस समय अघोर अस्त्रसे अभिमन्त्रित घोर भस्मको लेकर मुनिने इन्द्रके उद्देश्यसे छोड़ दिया और बड़े जोरसे सिंहनाद किया। फिर शम्भुके युगल चरणारविन्दोंका चिन्तन करते हुए वे अपनी देहको दग्ध करनेके लिये उद्यत हो गये और आग्नेयी धारणा धारण करके स्थित हुए।

ब्राह्मण उपमन्यु जब इस प्रकार स्थित हुए, तब भगदेवताके नेत्रका नाश करनेवाले भगवान् शिवने योगी उपमन्युकी उस धारणाको अपनी सौम्यदृष्टिसे रोक दिया। उनके छोड़े हुए उस अघोरास्त्रको नन्दीश्वरकी आज्ञासे शिववल्लभ नन्दीने बीचमें ही पकड़ लिया। तत्पश्चात् परमेश्वर भगवान् शिवने अपने बालेन्दुशेखररूपको धारण कर लिया और ब्राह्मण उपमन्युको उसे दिखाया। इतना ही नहीं, उस प्रभुने उस मुनिको सहस्त्रों क्षीरसागर, सुधासागर, दधि आदिके सागर, घृतके समुद्र, फलसम्बन्धी रसके समुद्र तथा भक्ष्य-भोज्य पदार्थोंके समुद्रका दर्शन कराया और पूओंका पहाड़ खड़ा करके दिखा दिया। इसी तरह देवी पार्वतीके साथ महादेवजी वहाँ वृषभपर आरूढ़ दिखायी दिये। वे अपने गणाध्यक्षों तथा त्रिशूल आदि दिव्यास्त्रोंसे घिरे हुए थे। देवलोकमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं, आकाशसे फूलोंकी वर्षा होने लगी तथा विष्णु, ब्रह्मा और इन्द्र आदि देवताओंसे दसों दिशाएँ आच्छादित हो गयीं।

उस समय उपमन्यु आनन्दसागरकी लहरोंसे घिरे हुए थे। वे भक्तिविनम्र चित्तसे पृथ्वीपर दण्डकी भाँति पड़ गये। इसी समय वहाँ मुसकराते हुए भगवान् शिवने ‘यहाँ आओ, यहाँ आओ’ कहकर उन्हें बुलाया और उनका मस्तक सूंघकर अनेक वर दिये।

शिव बोले-वत्स ! तुम अपने भाई- बन्धुओंके साथ सदा इच्छानुसार भक्ष्य- भोज्य पदार्थोंका उपभोग करो। दुःखसे छूटकर सर्वदा सुखी रहो, तुम्हारे हृदयमें मेरे प्रति भक्ति सदा बनी रहे। महाभाग उपमन्यो ! ये पार्वतीदेवी तुम्हारी माता हैं। आज मैंने तुम्हें अपना पुत्र बना लिया और तुम्हारे लिये क्षीरसागर प्रदान किया। केवल दूधका ही नहीं, मधु, दही, अन्न, घी, भात तथा फल आदिके रसका भी समुद्र तुम्हें दे दिया। ये पूओंके पहाड़ तथा भक्ष्य-भोज्य पदार्थोंके सागर मैंने तुम्हें समर्पित किये। महामुने ! ये सब ग्रहण करो। आजसे मैं महादेव तुम्हारा पिता हूँ और जगदम्बा उमा तुम्हारी माता हैं। मैंने तुम्हें अमरत्व तथा गणपतिका सनातन पद प्रदान किया। अब तुम्हारे मनमें जो दूसरी-दूसरी अभिलाषाएँ हों, उन सबको तुम बड़ी प्रसन्नताके साथ वरके रूपमें माँगो। मैं संतुष्ट हूँ। इसलिये वह सब दूँगा। इस विषयमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये।

वायुदेव कहते हैं-ऐसा कहकर महादेवजीने उन्हें दोनों हाथोंसे पकड़कर हृदयसे लगा लिया और मस्तक सूंघकर यह कहते हुए देवीकी गोदमें दे दिया कि यह तुम्हारा पुत्र है। देवीने कार्तिकेयकी भाँति प्रेमपूर्वक उनके मस्तकपर अपना करकमल रखा और उन्हें अविनाशी कुमारपद प्रदान किया। क्षीरसागरने भी साकाररूप धारण करके उनके हाथमें अनश्वर पिण्डीभूत स्वादिष्ठ दूध समर्पित किया। तत्पश्चात् पार्वतीदेवीने संतुष्टचित्त हो उन्हें योगजनित ऐश्वर्य, सदा संतोष, अविनाशिनी ब्रह्मविद्या और उत्तम समृद्धि प्रदान की। तदनन्तर उनके तपोमय तेजको देखकर प्रसन्नचित्त हुए शम्भुने उपमन्यु मुनिको पुनः दिव्य वरदान दिया। पाशुपत-व्रत, पाशुपतज्ञान, तात्त्विक व्रतयोग तथा चिरकालतक उसके प्रवचनकी परम पटुता उन्हें प्रदान की। भगवान् शिव और शिवासे दिव्य वर तथा नित्य कुमारत्व पाकर वे प्रमुदित हो उठे। इसके बाद प्रसन्नचित्त हो प्रणाम करके हाथ जोड़ ब्राह्मण उपमन्युने देवदेव महेश्वरसे यह वर माँगा।

उपमन्यु बोले-देवदेवेश्वर ! प्रसन्न होइये। परमेश्वर ! प्रसन्न होइये और मुझे अपनी परम दिव्य एवं अव्यभिचारिणी भक्ति दीजिये। महादेव! मेरे जो अपने सगे-सम्बन्धी हैं, उनमें मेरी सदा श्रद्धा बनी रहनेका वर दीजिये ! साथ ही, अपना दासत्व, उत्कृष्ट स्नेह और नित्य सामीप्य प्रदान कीजिये।ऐसा कहकर प्रसन्नचित्त हुए द्विजश्रेष्ठ उपमन्युने हर्षगद्गद वाणीद्वारा महादेवजीका स्तवन किया।

उपमन्यु बोले- देवदेव ! महादेव ! शरणागतवत्सल ! करुणासिन्धो !साम्बसदाशिव ! आप सदा मुझपर प्रसन्न होइये। वायुदेव कहते हैं-उनके ऐसा कहनेपर सबको वर देनेवाले प्रसन्नात्मा महादेवने मुनिवर उपमन्युको इस प्रकार उत्तर दिया।

शिव बोले-वत्स उपमन्यो ! मैं तुमपर संतुष्ट हूँ। इसलिये मैंने तुम्हें सब कुछ दे दिया। ब्रह्मर्षे ! तुम मेरे सुदृढ़ भक्त हो; क्योंकि इस विषयमें मैंने तुम्हारी परीक्षा ले ली है। तुम अजर-अमर, दुःखरहित, यशस्वी, तेजस्वी और दिव्य ज्ञानसे सम्पन्न होओ। द्विजश्रेष्ठ ! तुम्हारे बन्धु-बान्धव, कुल तथा गोत्र सदा अक्षय रहेंगे। मेरे प्रति तुम्हारी भक्ति सदा बनी रहेगी। विप्रवर ! मैं तुम्हारे आश्रममें नित्य निवास करूँगा। तुम मेरे पास सानन्द विचरोगे।

ऐसा कहकर उपमन्युको अभीष्ट वर दे करोड़ों सूर्योके समान तेजस्वी भगवान् महेश्वर वहीं अन्तर्धान हो गये। उन श्रेष्ठ परमेश्वरसे उत्तम वर पाकर उपमन्युका हृदय प्रसन्नतासे खिल उठा। उन्हें बहुत सुख मिला और वे अपनी जन्मदायिनी माताके स्थानपर चले गये।

(अध्याय ३५)

।। वायवीयसंहिताका पूर्वखण्ड सम्पूर्ण ॥

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