:-सूतजी कहते हैं-महर्षियो ! पहले अनेक कल्पों के बारंबार बीतने पर सुदीर्घकाल के पश्चात् जब यह वर्तमान कल्प उपस्थित हुआ और सृष्टि का कार्य आरम्भ हुआ, जब जीविका साधक कर्म-कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य की प्रतिष्ठा हुई तथा प्रजा वर्ग के लोग सजग एवं सचेत हो गये, तब छ: कुलों में उत्पन्न हुए महर्षियों में परस्पर बहस छिड़ गयी। ‘यह परब्रह्म है या नहीं है’ इस प्रकार उनमें महान् विवाद होने लगा, किंतु परम तत्त्व का निरूपण अत्यन्त कठिन होने के कारण उस समय वहाँ कुछ निश्चय न हो सका। तब वे सब लोग जगत्-स्रष्टा अविनाशी ब्रह्माजी का दर्शन करने के लिये उस स्थानपर गये, जहाँ देवताओं और असुरों के मुख से अपनी स्तुति सुनते हुए भगवान् ब्रह्मा विराजमान थे।

 

देवताओं और दानवों से भरे हुए सुन्दर रमणीय मेरु शिखर पर, जहाँ सिद्ध और चारण परस्पर बातचीत करते हैं, यक्ष और गन्धर्व सदा रहते हैं, विहंगों के समुदाय कलरव करते हैं, मणि और मुँगे जिसकी शोभा बढ़ाते हैं तथा निकुंज, कन्दराएँ, छोटी गुफाएँ और अनेकानेक निझर जिसे सुशोभित करते हैं, एक ब्रह्मवन नाम से प्रसिद्ध वन है। उसमें नाना प्रकार के वन्य पशु भरे हुए हैं। उसकी लंबाई सौ योजन और चौड़ाई दस योजन की है। उसके भीतर एक रमणीय सरोवर है, जो सुस्वाद निर्मल जलसे भरा रहता है।
वहाँ के रमणीय पुष्पित वृक्षों पर मतवाले भौरे छाये रहते हैं। उस वन में एक मनोहर एवं विशाल नगर है, जो प्रात:काल के सूर्य की भाँति प्रकाशित होता रहता है। वहाँ दुर्धर्ष शक्ति से युक्त बलाभिमानी दैत्य, दानव तथा राक्षसों का निवास है। वह नगर तपाये हुए सुवर्ण का बना जान पड़ता है। उसकी चहारदीवारियाँ और सदर फाटक बहुत ऊँचे हैं।

 

छोटे बुर्जो, ढालू छतों, आवास स्थानों तथा सैकड़ों गलियों से उस नगर की बड़ी शोभा है। वह विचित्र बहुमूल्य मणियों से आकाश को चूमता-सा प्रतीत होता है तथा कई करोड़ विशाल भवनों से अलंकृत है। उस नगर में प्रजापति ब्रह्मा अपने सभासदों के साथ निवास करते हैं । वहाँ जाकर उन मुनियों ने साक्षात् लोकपितामह ब्रह्माजी को देखा। देवर्षियों के समुदाय उनकी सेवा में बैठे थे। उनकी अंगकान्ति शुद्ध सुवर्ण के समान थी। वे सब आभूषणों से विभूषित थे। उनका मुख प्रसन्न था, उससे सौम्यभाव प्रकट होता था। उनके नेत्र कमलदल के समान विशाल थे।

 

दिव्य कान्ति से सम्पन्न, दिव्य गन्ध एवं अनुलेपन से चर्चित, दिव्य श्वेत वस्त्रों से सुशोभित तथा दिव्य मालाओं से विभूषित ब्रह्माजी के चरणारविन्दों की वन्दना सुरेन्द्र, असुरेन्द्र तथा योगीन्द्र भी करते थे। जैसे प्रभा दिवाकर की सेवा करती है, उसी प्रकार समस्त शुभ लक्षणोंसे युक्त साक्षात् सरस्वती देवी हाथमें चँवर ले उनकी सेवा कर रही थीं, इससे उनकी बड़ी शोभा हो रही थी।
ब्रह्माजी का दर्शन करके उन सभी महर्षियों के मुख और नेत्र खिल उठे। उन्होंने मस्तक पर अंजलि बाँधकर उन सुर-श्रेष्ठ की स्तुति की।ऋषि बोले-संसार की सृष्टि, पालन और संहार के हेतु तीन रूप धारण करने वाले आप पुराणपुरुष परमात्मा ब्रह्मा को नमस्कार है। प्रकृति जिनका शरीर है, जो प्रकृति में क्षोभ उत्पन्न करने वाले हैं तथा प्रकृति रूप में तेईस विकारों से युक्त होने पर भी जो वास्तव में निर्विकार हैं, उन ब्रह्मदेव को नमस्कार है।

 

ब्रह्माण्ड जिनकी देह है, तो भी जो ब्रह्माण्ड के उदर में निवास करते हैं तथा वहाँ रहकर जिनके कार्य और करण सम्यक् रूप से सिद्ध होते हैं, उन ब्रह्माजी को नमस्कार है। जो सर्वलोक स्वरूप तथा समस्त लोकों के स्तष्टा हैं, जो सम्पूर्ण जीवों का शरीर से संयोग और वियोग करानेमें हेतु हैं, उन ब्रह्माजी को नमसकार है। नाथ ! पितामह!आपसे ही सम्पूर्न जगत्की सृष्टि, पालन और संहार होते हैं, तथापि माया से आवृत होने के कारण वे आपको नहीं जानते।
सृतजी कहते -उन महाभाग महर्षियोंके इस प्रकार स्तवन करने पर ब्रह्माजी उन मुनियों को आह्लाद प्रदान करते गम्भीर वाणीमें इस प्रार बोले।

 

ब्रह्माजी ने कहा महान् सत्त्वगुण से सम्पन्न महाभाग महाते स्वी महर्षियो! तुम सब लोग एक साथ यहाँ किसलिये आये हो? ब्रह्माजी के  इस प्रकार पूछने पर ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेठ उन सभी मुनियोंने हाथ जोड़ विनयभरी वाणी में कहा। मुनि बोले-भगवन्! हम लोग अज्ञानके महान् अन्धकार से आवृत हो खिन्न हो रहे हैं। परस्पर विवाद करते हुए हमें परमतत्त्व का साक्षात्कार नहीं हो रहा है आप सम्पूर्ण जगत्के धारण-पोषण करनेवाले तथा समस्त कारणों के भी कारण हैं। नाथ! यहाँ कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो आपको विदित न हो। कौन ऐसा पुरुष है, जो सम्पूर्ण जीवों से पुरातन, अन्तर्यामी, उत्कृष्ट विशुद्ध परिपूर्ण एवं सनातन परमेश्वर है? कौन अपने अद्भुत क्रियाकलाप द्वारा सबसे प्रथम संसार की सृष्टि करता है? महाप्राज्ञ! हमारे इस संदेह का निवारण करने के लिये आप हमें परमार्थ तत्व का उपदेश दें।

 

मुनियों के इस प्रकार पृछने पर ब्रह्माजी के नेत्र आश्चर्य से खिल उठे वे देवताओं, दानवों और मुनियोंके निकट खड़े हो गये और चिरकालतक ध्यानमग्न हो ‘रुद्र’ ऐसा कहते हुए आनन्दविभोर हो गये। उनका सारा शरीर पुलकित हो उठा और वे हाथ जोड़कर बोले।

(अध्याय २)