(वायवीयसंहिता(पूर्वखण्ड))
Shiv puran vayu samhita purvkhand chapter 17 to 24 (शिव पुराण वायु संहिता अध्याय 17 से 24 भगवान् शिवका पार्वती तथा पार्षदोंके साथ मन्दराचलपर जाकर रहना, शुम्भ निशुम्भके वधके लिये ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे शिवका पार्वतीको ‘काली’ कहकर कुपित करना और कालीका ‘गौरी’ होनेके लिये तपस्याके निमित्त जानेकी आज्ञा माँगना)
:-वायुदेवता कहते हैं-इस प्रकार महादेवजीसे ही सनातन पराशक्तिको पाकर प्रजापति ब्रह्मा मैथुनी सृष्टि करनेकी इच्छा लेकर स्वयं भी आधे शरीरसे अद्भुत नारी और आधे शरीरसे पुरुष हो गये। आधे शरीरसे जो नारी उत्पन्न हुई थी, वह उनसे शतरूपा ही प्रकट हुई थी। ब्रह्माजीने अपने आधे पुरुष-शरीरसे विराट्को उत्पन्न किया। वे विराट् पुरुष ही स्वायम्भुव मनु कहलाते हैं। देवी शतरूपाने अत्यन्त दुष्कर तपस्या करके उद्दीप्त यशवाले मनुको ही पतिरूपमें प्राप्त किया।
इसके पश्चात् मनुके वंश तथा दक्ष- यज्ञ-विध्वंस आदिके प्रसंग सुनाकर वायुदेवताने यह बताया कि भगवान् शंकरने दक्ष तथा देवताओंके अपराध क्षमा कर दिये। तदनन्तर ऋषियोंने पूछा- प्रभो ! अपने गणों तथा देवीके साथ अन्तर्धान होकर भगवान् शिव कहाँ गये, कहाँ रहे और क्या करके विरत हुए ?
वायुदेव बोले- महर्षियो ! पर्वतोंमें श्रेष्ठ और विचित्र कन्दराओंसे सुशोभित जो परम सुन्दर मन्दराचल है, वही अपनी तपस्याके प्रभावसे देवाधिदेव महादेवजी- का प्रिय निवास स्थान हुआ। उसने पार्वती और शिवको अपने सिरपर ढोनेके लिये बड़ा भारी तप किया था और दीर्घकालके बाद उसे उनके चरणारविन्दोंके स्पर्शका सुख प्राप्त हुआ। उस पर्वतके सौन्दर्यका विस्तारपूर्वक वर्णन सहस्त्रों मुखोंद्वारा सौ करोड़ वर्षोंमें भी नहीं किया जा सकता। उसके सामने समस्त पर्वतोंका सौन्दर्य तुच्छ हो जाता है। इसीलिये महादेवजीने देवीका प्रिय करनेकी इच्छासे उस अत्यन्त रमणीय पर्वतको अपना अन्तःपुर बना लिया। इस सर्वश्रेष्ठ पर्वतका स्मरण करके रैभ्य-आश्रमके समीप स्थित हुए अम्बिकासहित भगवान् त्रिलोचन वहाँसे अन्तर्धान होकर चले गये। मन्दराचलके उद्यानमें पहुँचकर देवी- सहित महेश्वर वहाँकी रमणीय तथा दिव्य अन्तःपुरकी भूमियोंमें रमण करने लगे।
जब इस तरह कुछ समय बीत गया और ब्रह्माजीकी मैथुनी सृष्टिके द्वारा जब प्रजाएँ बढ़ गयीं, तब शुम्भ और निशुम्भ नामक दो दैत्य उत्पन्न हुए। वे परस्पर भाई थे। उनके तपोबलसे प्रभावित हो परमेष्ठी ब्रह्याने उन दोनों भाइयोंको यह वर दिया था कि ‘इस जगत्के किसी भी पुरुषसे तुम मारे नहीं जा सकोगे।’ उन दोनोंने ब्रह्माजीसे यह प्रार्थना की थी कि ‘पार्वती देवीके अंशसे उत्पन्न जो अयोनिजा कन्या उत्पन्न हो, जिसे पुरुषका स्पर्श तथा रति नहीं प्राप्त हुई हो तथा जो अलंघ्य पराक्रमसे सम्पन्न हो, उसके प्रति कामभावसे पीड़ित होनेपर हम युद्धमें उसीके हाथों मारे जाय।’ उनकी इस प्रार्थनापर ब्रह्माजीने ‘तथास्तु’ कहकर स्वीकृति दे दी। तभीसे युद्धमें इन्द्र आदि देवताओंको जीतकर उन दोनोंने जगत्को अनीतिपूर्वक वेदोंके स्वाध्याय और वषट्कार (यज्ञ) आदिसे रहित कर दिया। तब ब्रह्याने उन दोनोंके वधके लिये देवेश्वर शिवसे प्रार्थना की ‘प्रभो ! आप एकान्तमें देवीकी निन्दा करके भी जैसे- तैसे उन्हें क्रोध दिलाइये और उनके रूप- रंगकी निन्दासे उत्पन्न हुई, कामभावसे रहित, कुमारीस्वरूपा शक्तिको निशुम्भ और शुम्भके वधके लिये देवताओंको अर्पित कीजिये।’
ब्रह्माजीके इस तरह प्रार्थना करनेपर भगवान् नीललोहित रुद्र एकान्तमें पार्वतीकी निन्दा-सी करते हुए मुसकराकर बोले- ‘तुम तो काली हो।’ तब सुन्दर वर्णवाली देवी पार्वती अपने श्यामवर्णके कारण आक्षेप सुनकर कुपित हो उठीं और पतिदेवसे मुसकराकर समाधानरहित वाणीद्वारा बोलीं।
देवीने कहा-प्रभो! यदि मेरे इस काले रंगपर आपका प्रेम नहीं है तो इतने दीर्घकालसे अपनी शिक्षाका आप दमन क्यों करते रहे हैं? कोई स्त्री कितनी ही सर्वांगसुन्दरी क्यों न हो, यदि पतिका उसपर अनुराग नहीं हुआ तो अन्य समस्त गुणोंके साथ ही उसका जन्म लेना व्यर्थ हो जाता है। स्त्रियोंकी यह सृष्टि ही पतिके भोगका प्रधान अंग है। यदि वह उससे वंचित हो गयी तो इसका और कहाँ उपयोग हो सकता है? इसलिये आपने एकान्तमें जिसकी निन्दा की है, उस वर्णको त्यागकर अब मैं दूसरा वर्ण ग्रहण करूँगी अथवा स्वयं ही मिट जाऊँगी।
ऐसा कहकर देवी पार्वती शय्यासे – उठकर खड़ी हो गयीं और तपस्याके लिये – दृढ़ निश्चय करके गद्गद कण्ठसे जानेकी – आज्ञा माँगने लगीं।
इस प्रकार प्रेम भंग होनेसे भयभीत हो – भूतनाथ भगवान् शिव स्वयं भवानीको प्रणाम करते हुए ही बोले। भगवान् शिवने कहा- प्रिये ! मैंने क्रीडा – या मनोविनोदके लिये यह बात कही – है। मेरे इस अभिप्रायको न जानकर तुम कुपित क्यों हो गयीं ? यदि तुमपर मेरा प्रेम नहीं होगा तो और किसपर हो सकता है? तुम इस जगत्की माता हो और मैं पिता तथा अधिपति हूँ। फिर तुमपर मेरा प्रेम न होना कैसे सम्भव हो सकता है। हम दोनोंका वह प्रेम भी क्या कामदेवकी प्रेरणासे हुआ है, कदापि नहीं; क्योंकि कामदेवकी उत्पत्तिसे पहले ही जगत्की उत्पत्ति हुई है। कामदेवकी सृष्टि तो मैंने साधारण लोगोंकी रतिके लिये की है। कामदेव मुझे साधारण देवताके समान मानकर मेरा कुछ-कुछ तिरस्कार करने लगा था, अतः मैंने उसे भस्म कर दिया।
हम दोनोंका यह लीलाविहार भी जगत्की रक्षाके लिये ही है, अतः उसीके लिये आज मैंने तुम्हारे प्रति यह परिहासयुक्त बात कही थी। मेरे इस कथनकी सत्यता तुमपर शीघ्र ही प्रकट हो जायगी। देवीने कहा- भगवन् ! पतिके प्यारसे वंचित होनेपर जो नारी अपने प्राणोंका भी परित्याग नहीं कर देती, वह कुलांगना और शुभलक्षणा होनेपर भी सत्पुरुषोंद्वारा निन्दित ही समझी जाती है। मेरा शरीर गौरवर्णका नहीं है, इस बातको लेकर आपको बहुत खेद होता है, अन्यथा क्रीडा या परिहासमें भी आपके द्वारा मुझे ‘काली-कलूटी’ कहा जाना कैसे सम्भव हो सकता था। मेरा कालापन आपको प्रिय नहीं है, इसलिये वह सत्पुरुषोंद्वारा भी निन्दित है; अतः तपस्याद्वारा इसका त्याग किये बिना अब मैं यहाँ रह ही नहीं सकती।
शिव बोले-यदि अपनी श्यामताको
लेकर तुम्हें इस तरह संताप हो रहा है तो इसके लिये तपस्या करनेकी क्या आवश्यकता है? तुम मेरी या अपनी इच्छामात्रसे ही दूसरे वर्णसे युक्त हो जाओ। देवीने कहा- मैं आपसे अपने रंगका परिवर्तन नहीं चाहती। स्वयं भी इसे बदलनेका संकल्प नहीं कर सकती। अब तो तपस्याद्वारा ब्रह्माजीकी आराधना करके ही में शीघ्र गौरी हो जाऊँगी।
शिव बोले- महादेवि ! पूर्वकालमें मेरी ही कृपासे ब्रह्माको ब्रह्मपदकी प्राप्ति हुई थी। अतः तपस्याद्वारा उन्हें बुलाकर तुम क्या करोगी ? देवीने कहा- इसमें संदेह नहीं कि ब्रह्मा आदि समस्त देवताओंको आपसे ही उत्तम पदोंकी प्राप्ति हुई है, तथापि आपकी आज्ञा पाकर मैं तपस्याद्वारा ब्रह्माजीकी आराधना करके ही अपना अभीष्ट सिद्ध करना चाहती हूँ। पूर्वकालमें जब मैं सतीके नामसे दक्षकी पुत्री हुई थी, तब तपस्याद्वारा ही मैंने आप जगदीश्वरको पतिके रूपमें प्राप्त किया था। इसी प्रकार आज भी तपस्याद्वारा ब्राह्मण ब्रह्माको संतुष्ट करके मैं गौरी होना चाहती हूँ। ऐसा करनेमें यहाँ क्या दोष है? यह बताइये।
महादेवीके ऐसा कहनेपर वामदेव मुसकराते हुए-से चुप रह गये। देवताओंका कार्य सिद्ध करनेकी इच्छासे उन्होंने देवीको रोकनेके लिये हठ नहीं किया।
(अध्याय १७-२४)