Shiv puran vayu samhita purvkhand chapter 13 or 14 (शिव पुराण वायु संहिता अध्याय 13 और 14 भगवान् रुद्रके ब्रह्माजीके मुखसे प्रकट होनेका रहस्य, रुद्रके महामहिम स्वरूपका वर्णन, उनके द्वारा रुद्रगणोंकी सृष्टि तथा ब्रह्माजीके रोकनेसे उनका सृष्टिसे विरत होना)

(वायवीयसंहिता(पूर्वखण्ड))

Shiv puran vayu samhita purvkhand chapter 13 or 14 (शिव पुराण वायु संहिता अध्याय 13 और 14 भगवान् रुद्रके ब्रह्माजीके मुखसे प्रकट होनेका रहस्य, रुद्रके महामहिम स्वरूपका वर्णन, उनके द्वारा रुद्रगणोंकी सृष्टि तथा ब्रह्माजीके रोकनेसे उनका सृष्टिसे विरत होना)

:-ऋषि बोले-प्रभो! आपने चतुर्मुख ब्रह्माके मुखसे परमात्मा रुद्रदेवकी सृष्टि बतायी है। इस विषयमें हमको संशय होता है। जो प्रलयकालमें कुपित होकर ब्रह्मा, विष्णु और अग्निसहित समस्त लोकका संहार कर डालते हैं; जिन्हें ब्रह्मा और विष्णु भयसे प्रणाम करते हैं, जिन लोकसंहारकारी महेश्वरके वशमें वे दोनों सदा ही रहते हैं, जिन महादेवजीने पूर्वकालमें ब्रह्मा और विष्णुको अपने शरीरसे प्रकट किया था, जो प्रभु सदा ही उन दोनोंके योगक्षेमका निर्वाह करनेवाले हैं, वे आदिदेव पुरातन पुरुष भगवान् रुद्र अव्यक्तजन्मा ब्रह्माके पुत्र कैसे हो गये ?

 

तात ! भगवान् ब्रह्याने मुनियोंसे जैसी बात बतायी थी, वह सब आप ठीक-ठीक कहिये। भगवान् शिवके उत्तम यशका श्रवण करनेके लिये हमारे हृदयमें बड़ी श्रद्धा है। वायुदेवताने कहा- ब्राह्मणो ! तुम सब लोग जिज्ञासामें कुशल हो, अतः तुमने यह बहुत ही उचित प्रश्न किया है। मैंने भी पूर्वकालमें पितामह ब्रह्माजीके समक्ष यही प्रश्न रखा था। उसके उत्तरमें पितामहने मुझसे जो कुछ कहा था, वही मैं तुम्हें बताऊँगा। जैसे रुद्रदेव उत्पन्न हुए और फिर जिस प्रकार ब्रह्मा और विष्णुकी परस्पर उत्पत्ति हुई, वह सब विषय सुना रहा हूँ। ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र – तीनों ही कारणात्मा हैं। वे क्रमशः चराचर जगत्‌की सृष्टि, पालन और संहारके हेतु हैं और साक्षात् महेश्वरसे प्रकट हुए हैं।

 

उनमें परम ऐश्वर्य विद्यमान है। वे परमेश्वरसे भावित और उनकी शक्तिसे अधिष्ठित हो सदा उनके कार्य करनेमें समर्थ होते हैं। पूर्वकालमें पिता महेश्वरने ही उन तीनोंको तीन कर्मोंमें नियुक्त किया था। ब्रह्माकी सृष्टिकार्यमें, विष्णुकी रक्षाकार्यमें तथा रुद्रकी संहारकार्यमें नियुक्ति हुई थी। कल्पान्तरमें परमेश्वर शिवके प्रसादसे रुद्रदेवने ब्रह्मा और नारायणकी सृष्टि की थी। इसी तरह दूसरे कल्पमें जगन्मय ब्रह्माने रुद्र तथा विष्णुको उत्पन्न किया था। फिर कल्पान्तरमें भगवान् विष्णुने भी रुद्र तथा ब्रह्माकी सृष्टि की थी। इस तरह पुनः ब्रह्माने नारायणकी और रुद्रदेवने ब्रह्माकी सृष्टि की। इस प्रकार विभिन्न कल्पोंमें ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर परस्पर उत्पन्न होते और एक- दूसरेका हित चाहते हैं। उन-उन कल्पोंके वृत्तान्तको लेकर महर्षिगण उनके प्रभावका वर्णन किया करते हैं।

प्रत्येक कल्पमें भगवान् रुद्रके आविर्भावका जो कारण है, उसे बता रहा हूँ। उन्हींके प्रादुर्भावसे ब्रह्माजीकी सृष्टिका प्रवाह अविच्छिन्नरूपसे चलता रहता है। ब्रह्माण्डसे उत्पन्न होनेवाले ब्रह्मा प्रत्येक कल्पमें प्रजाकी सृष्टि करके प्राणियोंकी वृद्धि न होनेसे जब अत्यन्त दुःखी हो मूर्छित हो जाते हैं, तब उनके दुःखकी शान्ति और प्रजावर्गकी वृद्धिके लिये उन- उन कल्पोंमें रुद्रगणोंके स्वामी कालस्वरूप नीललोहित महेश्वर रुद्र अपने कारणभूत परमेश्वरकी आज्ञासे ब्रह्माजीके पुत्र होकर उनपर अनुग्रह करते हैं। वे ही तेजोराशि, अनामय, अनादि, अनन्त, धाता, भूतसंहारक और सर्वव्यापी भगवान् ईश परम ऐश्वर्यसे संयुक्त, परमेश्वरसे भावित और सदा उन्हींकी शक्तिसे अधिष्ठित हो उन्हींके चिह्न धारण करते हैं। उन्हींके नामसे प्रसिद्ध हो उन्हींके समान रूप धारणकर उनके कार्य करनेमें समर्थ होते हैं। इनका सारा व्यवहार उन्हीं परमेश्वरके समान होता है।

 

ये उनकी आज्ञाके पालक हैं। सहस्त्रों सूर्योके समान उनका तेज है। वे अर्धचन्द्रको आभूषणके रूपमें धारण करते हैं। उनके हार, बाजूबंद और कड़े सर्पमय हैं। वे मूँजकी मेखला धारण करते हैं। जलंधर, विरिंच और इन्द्र उनकी सेवामें खड़े रहते हैं तथा हाथमें कपालखण्ड उनकी शोभा बढ़ाता है। गंगाकी ऊँची तरंगोंसे उनके पिंगलवर्णवाले केश और मुख भीगे रहते हैं। उनके कमनीय कैलास पर्वतके विभिन्न प्रान्त टूटी हुई दाढ़वाले सिंह आदि वन्य पशुओंसे आक्रान्त हैं। उनके बायें कानोंके पास गोलाकार कुण्डल झिलमिलाता रहता है। वे महान् वृषभपर सवारी करते हैं। उनकी बाणी महान् मेघकी गर्जनाके समान गम्भीर है, कान्ति प्रचण्ड अग्निके समान उद्दीप्त है और बल-पराक्रम भी महान् है। इस प्रकार ब्रह्मपुत्र महेश्वरका विशाल रूप बड़ा भयानक है। वे ब्रह्माजीको विज्ञान देकर सृष्टिकार्यमें उनकी सहायता करते हैं। अतः रुद्रके कृपाप्रसादसे प्रत्येक कल्पमें प्रजापतिकी प्रजासृष्टि प्रवाह- रूपसे नित्य बनी रहती है।

एक समय ब्रह्माजीने नीललोहित भगवान् रुद्रसे सृष्टि करनेकी प्रार्थना की। तब भगवान् रुद्रने मानसिक संकल्पके द्वारा बहुत-से पुरुषोंकी सृष्टि की। वे सब के सब उनके अपने ही समान थे। सबने जटाजूट धारण कर रखे थे। सभी निर्भय, नीलकण्ठ और त्रिनेत्र थे। जरा और मृत्यु उनके पास नहीं पहुँचने पाती थी। चमकीले शूल उनके श्रेष्ठ आयुध थे। उन रुद्रगणोंने सम्पूर्ण चौदह भुवनोंको आच्छादित कर लिया था। उन विविध रुद्रोंको देखकर पितामहने रुद्रदेवसे

कहा- ‘देवदेवेश्वर ! आपको नमस्कार है। आप ऐसी प्रजाओंकी सृष्टि न कीजिये, आपका कल्याण हो। अब दूसरी प्रजाओंकी सृष्टि कीजिये, जो मरणधर्मवाली हों।’

ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर परमेश्वर रुद्र उनसे हँसते हुए बोले- ‘मेरी सृष्टि वैसी नहीं होगी। अशुभ प्रजाओंकी सृष्टि तुम्हीं करो।’ ब्रह्माजीसे ऐसा कहकर सम्पूर्ण भूतोंके स्वामी भगवान् रुद्र उन रुद्रगणोंके साथ प्रजाकी सृष्टिके कार्यसे निवृत्त हो गये।

(अध्याय १३-१४)

Leave a Comment

error: Content is protected !!