Shiv puran vayu samhita purvkhand chapter 1(वायु संहिता अध्याय 1 प्रयागमें ऋषियोंद्वारा सम्मानित सूतजीके द्वारा कथाका आरम्भ, विद्यास्थानों एवं पुराणोंका परिचय तथा वायुसंहिताका प्रारम्भ)

(वायवीयसंहिता(पूर्वखण्ड))

Shiv puran vayu samhita purvkhand chapter 1(वायु संहिता अध्याय 1 प्रयागमें ऋषियोंद्वारा सम्मानित सूतजीके द्वारा कथाका आरम्भ, विद्यास्थानों एवं पुराणोंका परिचय तथा वायुसंहिताका प्रारम्भ)

 

व्यास उवाच

“नमः शिवाय सोमाय सगणाय ससूनवे। प्रधानपुरुषेशाय सर्गग्वित्यन्तहेतवे ॥ शक्तिरप्रतिमा यस्य हौश्वर्य चापि सर्वगम् । स्वामित्वं च विभुत्वं च स्वभाव सम्प्रचक्षते ॥ तमजं विश्वकर्माणं शाश्वतं शिवमव्ययम् । महादेवं महात्मानं व्रजामि शरणं शिवम् ॥”

“व्यासजी कहते हैं-जो जगत्‌की सृष्टि, पालन और संहारके हेतु तथा प्रकृति और पुरुषके ईश्वर हैं, उन प्रमथगण, पुत्रद्वय तथा उमासहित भगवान् शिवको नमस्कार है। जिनकी शक्तिकी कहीं तुलना नहीं है, जिनका ऐश्वर्य सर्वत्र व्यापक है तथा स्वामित्व और विभुत्व जिनका स्वभाव कहा गया है, उन विश्वस्त्रष्टा, सनातन, अजन्मा, अविनाशी, महान् देव, मंगलमय परमात्मा शिवकी मैं शरण लेता हूँ।”

:-जो धर्मका क्षेत्र और महान् तीर्थ है, जहाँ गंगा और यमुनाका संगम हुआ है तथा जो ब्रह्मलोकका मार्ग है, उस प्रयागमें शुद्ध हृदयवाले सत्यव्रतपरायण महातेजस्वी एवं महाभाग मुनियोंने एक महान् यज्ञका आयोजन किया। वहाँ क्लेशरहित कर्म करनेवाले उन महात्माओंके यज्ञका समाचार सुनकर निपुण कथावाचक, त्रिकालवेत्ता, उत्तम नीतिके ज्ञाता तथा क्रान्तदर्शी विद्वान् पौराणिकशिरोमणि सूनजी उस स्थानपर आये। सूतजीको आते देख मुनियोंका मन प्रसन्नतासे खिल उठा। उन्होंने उनसे सान्त्वनापूर्ण मधुर बातें कहकर उनकी यथायोग्य पूजा की।

मुनियोंद्वारा की हुई उस पूजाको ग्रहण करके सूतजीने उनकी प्रेरणासे अपने लिये बताये गये उपयुक्त आसनको स्वीकार किया। उस समय महर्षियोंने अनुकूल वचनोंद्वारा उनका सत्कार करते हुए उन्हें अत्यन्त अभिमुख करके यह बात कही।

ऋषि बोले-शिवभक्तशिरोमणि महा- बुद्धिमान् महाभाग रोमहर्षणजी ! आप सर्वज्ञ हैं और हमारे महान् सौभाग्यसे यहाँ पधारे हैं। तीनों लोकोंमें ऐसी कोई बात नहीं है, जो आपको विदित न हो। आप भाग्यवश हमें दर्शन देनेके लिये स्वयं यहाँ आ गये हैं। अतः अब हमारा कोई कल्याण किये बिना आपको यहाँसे व्यर्थ नहीं जाना चाहिये। इसलिये आप हमें शीघ्र वह पवित्र पुराण सुनायें, जो अत्यन्त श्रवणीय, उत्तम कथा और ज्ञानसे युक्त तथा वेदान्तके सारसर्वस्वसे सम्पन्न हो। वेदवादी मुनियोंने जब इस प्रकार प्रार्थना की, तब सूतजीने मधुर, न्याययुक्त एवं शुभ वचनोंमें उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया।

सूतजीने कहा-महर्षियो ! आपने मेरा सत्कार किया और मुझपर कृपा की है, ऐसी दशामें आपसे प्रेरित होकर मैं आपके समक्ष महर्षियोंद्वारा सम्मानित पुराणका भलीभाँति प्रवचन क्यों नहीं करूँगा। अब मैं महादेवजी, देवी पार्वती, कुमार स्कन्द, गणेशजी, नन्दी तथा सत्यवतीकुमार साक्षात् भगवान् व्यासको प्रणाम करके उस परम पवित्र वेदतुल्य पुराणकी कथा कहूँगा, जो शिवतत्त्वके ज्ञानका सागर है और भोग एवं मोक्षरूपी फल देनेवाला साक्षात् साधन है। विद्याके सम्पूर्ण स्थानोंका, पुराणोंकी संख्याका और उनकी उत्पत्तिका विवरण दे रहा हूँ। आपलोग मुझसे इस विषयको ध्यानपूर्वक सुनें।

 

छः वेदांग, चार वेद, मीमांसा, विस्तृत न्यायशास्त्र, पुराण और धर्मशास्त्र – ये चौदह विद्याएँ हैं। इनके साथ आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद और उत्तम अर्थशास्त्रको भी गिन लिया जाय तो ये विद्याएँ अठारह हो जाती हैं। इन अठारह विद्याओंके मार्ग एक-दूसरेसे भिन्न हैं। इन सबके निर्माता त्रिकालदर्शी विद्वान् साक्षात् भगवान् शूलपाणि शिव हैं, ऐसा श्रुतिका कथन है। सम्पूर्ण जगत्‌के स्वामी उन भगवान् शिवको जब समस्त संसारकी सृष्टि करनेकी इच्छा हुई, तब उन्होंने सबसे पहले अपने सनातन पुत्र साक्षात् ब्रह्माजीको उत्पन्न किया और अपने उन प्रथम पुत्र, विश्वयोनि ब्रह्माको परमेश्वर शिवने जगत्की सृष्टिका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये पहले ये सब विद्याएँ दीं।

 

उसके बाद उन्होंने पालन करनेके लिये भगवान् श्रीहरिको नियुक्त किया और उन्हें जगत्‌की रक्षाके लिये शक्ति प्रदान की। वे भगवान् विष्णु ब्रह्माजीके भी पालक हैं। ब्रह्माजी विद्या प्राप्त करके जब प्रजाकी सृष्टिके विस्तारकार्यमें लगे, तब उन्होंने सम्पूर्ण शास्त्रोंमें पहले पुराणको ही स्मरण किया और उन्हींको वे प्रकाशमें लाये। पुराणोंके प्रकट होनेके अनन्तर उनके चार मुखोंसे चारों वेदोंका प्रादुर्भाव हुआ। फिर उन्हींके मुखसे सम्पूर्ण शास्त्रोंकी प्रवृत्ति हुई।

द्वापरमें भगवान् श्रीहरि सत्यवतीके गर्भसे उसी तरह प्रकट हुए, जैसे अरणिसे आग प्रकट होती है। उस समय उनका नाम हुआ। मुनिवर ! श्रीकृष्णद्वैपायन श्रीकृष्णद्वैपायनने वेदोंको संक्षिप्त करके उन्हें चार भागोंमें विभक्त किया। इस प्रकार चार भागोंमें वेदोंका व्यास (विस्तार) करनेसे वे लोकमें वेदव्यासके नामसे विख्यात हुए। इसी तरह उन्होंने पुराणोंको संक्षिप्त करके चार लाख श्लोकोंमें सीमित किया। आज भी देवलोकमें पुराणोंका विस्तार सौ कोटि श्लोकोंमें है। जो द्विज छहों अंगों और उपनिषदोंसहित चारों वेदोंको तो जानता है किन्तु पुराणको नहीं जानता, वह श्रेष्ठ विद्वान् नहीं हो सकता।

 

इतिहास और पुराणोंसे वेदकी व्याख्या करे। जिसका ज्ञान बहुत कम है अर्थात् जो पौराणिक ज्ञानसे शून्य है, ऐसे पुरुषसे वेद यह सोचकर डरता है कि यह मुझपर प्रहार कर बैठेगा। सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरित – ये पुराणके पाँच लक्षण हैं। छोटे और बड़ेके भेदसे अठारह पुराण बताये गये हैं।

१. ब्रह्मपुराण,३. विष्णुपुराण,२. पद्मपुराण, ४. शिवपुराण, ५. भागवतपुराण,६. भविष्यपुराण,७. नारदपुराण,९. अग्निपुराण,८. मार्कण्डेयपुराण,१०. ब्रह्मवैवर्तपुराण,११. लिंगपुराण,१२. वाराहपुराण,१३. स्कन्दपुराण,१४. वामनपुराण,१५. कूर्मपुराण,१६. मत्स्यपुराण,१७. गरुडपुराण और १८. ब्रह्माण्डपुराण –

 

यह पुराणोंका पवित्र क्रम है। इसमें शिवपुराण चौथा है, जो भगवान् शिवसे सम्बन्ध रखता है और सब मनोरथोंका साधक है। इस ग्रन्थकी श्लोकसंख्या एक लाख है और यह बारह संहिताओंमें विभक्त है। इसका निर्माण साक्षात् भगवान् शिवने ही किया है तथा इसमें धर्म प्रतिष्ठित है। वेदव्यासने इस एक लाख श्लोकवाले शिवपुराणको संक्षिप्त करके चौबीस हजार श्लोकोंका कर दिया है।

 

इसमें सात संहिताएँ हैं। पहली विद्येश्वरसंहिता, दूसरी रुद्रसंहिता, तीसरी शतरुद्रसंहिता, चौथी कोटिरुद्रसंहिता, पाँचवीं उमासंहिता, छठी कैलाससंहिता और सातवीं वायवीयसंहिता है। इस प्रकार इसमें सात ही संहिताएँ हैं। विद्येश्वरसंहितामें दो हजार, रुद्रसंहितामें दस हजार पाँच सौ, शतरुद्रसंहितामें दो हजार एक सौ अस्सी, कोटिरुद्रसंहितामें दो हजार दो सौ चालीस, उमासंहितामें एक हजार आठ सौ चालीस, कैलाससंहितामें एक हजार दो सौ चालीस और वायवीयसंहितामें चार हजार श्लोक हैं।

 

इस परम पवित्र शिवपुराणको आपलोगोंने सुन लिया। केवल चार हजार श्लोकोंकी वायवीयसंहिता रह गयी है, जो दो भागोंसे युक्त है। उसका वर्णन में करूँगा। जो वेदोंका विद्वान् न हो, उससे इस उत्तम शास्त्रका वर्णन नहीं करना चाहिये। जो पुराणोंको न जानता हो और जिसकी पुराणपर श्रद्धा न हो उससे भी इसकी कथा नहीं कहनी चाहिये। जो भगवान् शिवका भक्त हो, शिबोक्त धर्मका पालन करता हो और दोषदृष्टिसे रहित हो, उस जाँचे-बूझे हुए धर्मात्मा शिष्यको ही इसका उपदेश देना चाहिये। जिनकी कृपासे मुझको पुराणसंहिताका ज्ञान है, उन अमिततेजस्वी भगवान् व्यासको नमस्कार है।

(अध्याय १)

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