(उमासंहिता)
Shiv puran uma samhita chapter 7 (शिव पुराण उमा संहिता अध्याय 7 पापियों और पुण्यात्माओंकी यमलोकयात्रा)
:-सनत्कुमारजी कहते हैं-व्यासजी ! मनुष्य चार प्रकारके पापोंसे यमलोकमें जाते हैं। यमलोक अत्यन्त भयदायक और भयंकर है। वहाँ समस्त देहधारियोंको विवश होकर जाना पड़ता है। कोई ऐसे प्राणी नहीं हैं, जो यमलोकमें न जाते हों। किये हुए कर्मका फल कर्ताको अवश्य भोगना पड़ता है, इसका विचार करो। जीवोंमें जो शुभ कर्म करनेवाले, सौम्यचित्त और दयालु हैं, वे सौम्यमार्गसे यमपुरीके पूर्व द्वारको जाते हैं। जो पापी पापकर्मपरायण तथा दानसे रहित हैं, वे भयानक दक्षिण मार्गसे यमलोकको यात्रा करते हैं।
मर्त्यलोकसे छियासी हजार योजनकी दूरी लाँधकर नानारूपवाले यमलोककी स्थिति है, यह जानना चाहिये। पुण्यकर्म करनेवाले लोगोंको तो वह नगर – निकटवर्ती-सा जान पड़ता है; परंतु भयानक मार्गसे यात्रा करनेवाले पापियोंको वह बहुत दूर स्थित दिखायी देता है। वहाँका मार्ग कहीं तो तीखे काँटोंसे युक्त है; कहीं कंकड़ोंसे व्याप्त है; कहीं छूरेकी धारके समान तीखे पत्थर उस मार्गपर जड़े गये हैं, कहीं बड़ी भारी कीचड़ फैली हुई है। बड़े- छोटे पातकोंके अनुसार वहाँकी कठिनाइयोंमें भी भारीपन और हलकापन है। कहीं- कहीं यमपुरीके मार्गपर लोहेकी सूईके समान तीखे डाभ फैले हुए हैं।
तदनन्तर यमपुरीके मार्गकी भीषण यातनाओं और कष्टोंका वर्णन करके सनत्कुमारजीने कहा-व्यासजी ! जिन्होंने कभी दान नहीं किया है, वे लोग ही इस प्रकार दुःख उठाते और सुखकी याचना करते हुए उस मार्गपर जाते हैं। जिन्होंने पहलेसे ही दानरूपी पाथेय (राहखर्च) ले रखा है, वे सुखपूर्वक यमलोककी यात्रा करते हैं। इस रीतिसे कष्ट उठाकर पापी जीव जब प्रेतपुरीमें पहुँच जाते हैं, तब उनके विषयमें यमराजको सूचना दी जाती है। उनकी आज्ञा पाकर दूत उन पापियोंको यमराजके आगे ले जाकर खड़े करते हैं। वहाँ जो शुभ कर्म करनेवाले लोग होते हैं, उनको यमराज स्वागतपूर्वक आसन देकर पाद्य और अर्घ्य निवेदन करके प्रिय बर्तावके द्वारा सम्मानित करते हैं और कहते हैं- ‘वेदोक्त कर्म करनेवाले महात्माओ ! आप- लोग धन्य हैं, जिन्होंने दिव्य सुखकी प्राप्तिके लिये पुण्यकर्म किया है।
अतः आपलोग दिव्यांगनाओंके भोगसे भूषित तथा सम्पूर्ण मनोवांछित पदार्थोंसे सम्पन्न निर्मल स्वर्ग- लोकमें जाइये। वहाँ महान् भोगोंका उपभोग करके अन्तमें पुण्यके क्षीण हो जानेपर जो कुछ थोड़ा-सा अशुभ शेष रह जाय; उसे फिर यहाँ आकर भोगियेगा।’ जो धर्मात्मा मनुष्य होते हैं, वे मानो यमराजके लिये मित्रके समान हैं। वे यमराजको सुखपूर्वक सौम्य धर्मराजके रूपमें देखते हैं।
किंतु जो क्रूर कर्म करनेवाले हैं, वे यमराजको भयानक रूपमें देखते हैं। उनकी दृष्टिमें यमराजका मुख दाढ़ोंके कारण विकराल जान पड़ता है। नेत्र टेढ़ी भौंहोंसे युक्त प्रतीत होते हैं। उनके केश ऊपरको उठे होते हैं। दाढ़ी-मूँछ बड़ी-बड़ी होती है।
ओठ ऊपरकी ओर फड़कते रहते हैं। उनके अठारह भुजाएँ होती हैं, वे कुपित तथा काले कोयलोंके ढेर-से दिखायी देते हैं। उनके हाथोंमें सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्र उठे होते हैं।
वे सब प्रकारके दण्डका भय दिखाकर उन पापियोंको डाँटते रहते हैं। बहुत बड़े भैंसेपर आरूढ़, लाल वस्त्र और लाल माला धारण करके बहुत ऊँचे महामेरुके समान दृष्टिगोचर होते हैं। उनके नेत्र प्रज्वलित अग्निके समान उद्दीप्त दिखायी देते हैं। उनका शब्द प्रलयकालके मेघकी गर्जनाके समान गम्भीर होता है। वे ऐसे जान पड़ते हैं मानो महासागरको पी रहे हैं, गिरिराजको निगल रहे हैं और मुँहसे आग उगल रहे हैं।
उनके समीप प्रलयकालकी अग्निके समान प्रभावाले मृत्यु देवता खड़े रहते हैं। काजलके समान काले कालदेवता और भयानक कृतान्त देवता भी रहते हैं। इनके सिवा मारी, उग्र महामारी, भयंकर कालरात्रि, अनेक प्रकारके रोग तथा भाँति-भाँतिके भयावह कुष्ठ मूर्तिमान् हो हाथोंमें शक्ति, शूल, अंकुश, पाश, चक्र और खड्ग लिये खड़े रहते हैं।
वज्रतुल्य मुख धारण करनेवाले रुद्रगण क्षुर, तरकश और धनुष धारण किये वहाँ उपस्थित होते हैं। सभी नाना प्रकारके आयुध धारण करनेवाले; महान् वीर एवं भयंकर हैं। इनके अतिरिक्त असंख्य महावीर यमदूत, जिनकी अंगकान्ति काले कोयलेके समान काली होती है, सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्र लिये बड़े भयंकर जान पड़ते हैं। ऐसे परिवारसे घिरे हुए घोर यमराज तथा भीषण चित्रगुप्तको पापिष्ठप्राणी देखते हैं। यमराज उन पापकर्मियोंको बहुत डाँटते हैं और भगवान् चित्रगुप्त धर्मयुक्त वचनोंद्वारा उन्हें समझाते हैं।
(अध्याय ७)