(उमासंहिता)
Shiv puran uma samhita chapter 50 (शिव पुराण उमा संहिता अध्याय 50 देवीके द्वारा दुर्गमासुरका वध तथा उनके दुर्गा, शताक्षी, शाकम्भरी और भ्रामरी आदि नाम पड़नेका कारण)
:-मुनियोंने कहा-महाप्राज्ञ सूतजी ! हम सब लोग प्रतिदिन दुर्गाजीका चरित्र सुनना चाहते हैं। अतः आप और किसी अद्भुत लीलातत्त्वका हमारे समक्ष वर्णन कीजिये। सर्वज्ञशिरोमणे सूत ! आपके मुखारविन्दसे नाना प्रकारकी सुधासदृश मधुर कथाएँ सुनते-सुनते हमारा मन कभी तृप्त नहीं होता।
सूतजी बोले-मुनियो ! दुर्गम नामसे विख्यात एक असुर था, जो रुरुका महाबलवान् पुत्र था। उसने ब्रह्माजीके वरदानसे चारों वेदोंको अपने हाथमें कर लिया था तथा देवताओंके लिये अजेय बल पाकर उसने भूतलपर बहुत-से ऐसे उत्पात किये, जिन्हें सुनकर देवलोकमें देवता भी कम्पित हो उठे। वेदोंके अदृश्य हो जानेपर सारी वैदिक क्रिया नष्ट हो चली। उस समय ब्राह्मण और देवता भी दुराचारी हो गये। न कहीं दान होता था, न अत्यन्त उग्र तप किया जाता था; न यज्ञ होता था और न होम ही किया जाता था। इसका परिणाम यह हुआ कि पृथ्वीपर सौ वर्षोंतकके लिये वर्षा बंद हो गयी। तीनों लोकोंमें हाहाकार मच गया।
सब लोग दुःखी हो गये। सबको भूख- प्यासका महान् कष्ट सताने लगा। कुँआ, बावड़ी, सरोवर, सरिताएँ और समुद्र भी जलसे रहित हो गये। समस्त वृक्ष और लताएँ भी सूख गयीं। इससे समस्त प्रजाओंके चित्तमें बड़ी दीनता आ गयी। उनके महान् दुःखको देखकर सब देवता महेश्वरी योगमायाकी शरणमें गये।
देवताओंने कहा- महामाये ! अपनी सारी प्रजाकी रक्षा करो, रक्षा करो। अपने क्रोधको रोको, अन्यथा सब लोग निश्चय ही नष्ट हो जायँगे। कृपासिन्धो ! दीनबन्धो ! जैसे शुम्भ नामक दैत्य, महाबली निशुम्भ, धूम्राक्ष, चण्ड, मुण्ड, महान् शक्तिशाली रक्तबीज, मधु, कैटभ तथा महिषासुरका तुमने वध किया था, उसी प्रकार इस दुर्गमासुरका शीघ्र ही संहार करो। बालकोंसे पग-पगपर अपराध बनता ही रहता है। केवल माताके सिवा संसारमें दूसरा कौन है, जो उस अपराधको सहन करता हो। देवताओं और ब्राह्मणोंपर जब-जब दुःख आता है, तब- तब शीघ्र ही अवतार लेकर तुम सब लोगोंको सुखी बनाती हो।
देवताओंकी यह व्याकुल प्रार्थना सुनकर कृपामयी देवीने उस समय अपने अनन्त नेत्रोंसे युक्त रूपका दर्शन कराया। उनका मुखारविन्द प्रसन्नतासे खिला हुआ था और वे अपने चारों हाथोंमें क्रमशः धनुष, बाण, कमल तथा नाना प्रकारके फल-मूल लिये हुए थीं। उस समय प्रजाजनोंको कष्ट उठाते देख उनके सभी नेत्रोंमें करुणाके आँसू छलक आये। वे व्याकुल होकर लगातार नौ दिन और नौ रात रोती रहीं। उन्होंने अपने नेत्रोंसे अश्रु- जलकी सहस्त्रों धाराएँ प्रवाहित कीं। उन धाराओंसे सब लोग तृप्त हो गये और समस्त ओषधियाँ भी सिंच गयीं। सरिताओं और समुद्रोंमें अगाध जल भर गया। पृथ्वीपर साग और फल-मूलके अंकुर उत्पन्न होने लगे। देवी शुद्ध हृदयवाले महात्मा पुरुषोंको अपने हाथमें रखे हुए फल बाँटने लगीं। उन्होंने गौओंके लिये सुन्दर घास और दूसरे प्राणियोंके लिये यथायोग्य भोजन प्रस्तुत किये। देवता, ब्राह्मण और मनुष्योंसहित सम्पूर्ण प्राणी संतुष्ट हो गये।
तब देवीने देवताओंसे पूछा- ‘तुम्हारा और कौन-सा कार्य सिद्ध करूँ ?’ उस समय सब देवता एकत्र होकर बोले- ‘देवि ! आपने सब लोगोंको संतुष्ट कर दिया। अब कृपा करके दुर्गमासुरके द्वारा अपहृत हुए वेद लाकर हमें दीजिये।’ तब देवीने ‘तथास्तु’ कहकर कहा – ‘देवताओ! अपने घरको जाओ, जाओ। मैं शीघ्र ही सम्पूर्ण वेद लाकर तुम्हें अर्पित करूँगी।’
यह सुनकर सब देवता बड़े प्रसन्न हुए। वे प्रफुल्ल नीलकमलके समान नेत्रोंवाली जगद्योनि जगदम्बाको भलीभाँति प्रणाम करके अपने-अपने धामको चले गये। फिर तो स्वर्ग, अन्तरिक्ष और पृथ्वीपर बड़ा भारी कोलाहल मच गया, उसे सुनकर उस भयानक दैत्यने चारों ओरसे देवपुरीको घेर लिया। तब शिवा देवताओंकी रक्षाके लिये चारों ओरसे तेजोमय मण्डलका निर्माण करके स्वयं उस घेरेसे बाहर आ गयीं। फिर तो देवी और दैत्य दोनोंमें घोर युद्ध आरम्भ हो गया। समरांगणमें दोनों ओरसे कवचको छिन्न-भिन्न कर देनेवाले तीखे बाणोंकी वर्षा होने लगी।
इसी बीचमें देवीके शरीरसे सुन्दर रूपवाली काली, तारा, छिन्नमस्ता, श्रीविद्या, भुवनेश्वरी, भैरवी, बगला, धूम्रा, श्रीमती त्रिपुरसुन्दरी और मातंगी- ये दस महाविद्याएँ अस्त्र-शस्त्र लिये निकलीं। तत्पश्चात् दिव्य मूर्तिवाली असंख्य मातृकाएँ प्रकट हुईं। उन सबने अपने मस्तकपर चन्द्रमाका मुकुट धारण कर रखा था और वे सब-की-सब विद्युत्के समान दीप्तिमती दिखायी देती थीं। इसके बाद उन मातृगणोंके साथ दैत्योंका भयंकर युद्ध आरम्भ हुआ।
उन सबने मिलकर उस रौरव अथवा दुर्गम दैत्यकी सौ अक्षौहिणी सेनाएँ नष्ट कर दीं। इसके बाद देवीने त्रिशूलकी धारसे उस दुर्गम दैत्यको मार डाला। वह दैत्य जड़से खोदे गये वृक्षकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ा। इस प्रकार ईश्वरीने उस समय दुर्गमासुर नामक दैत्यको मारकर चारों वेद वापस ले देवताओंको दे दिये।
तब देवता बोले- अम्बिके ! आपने हमलोगोंके लिये असंख्य नेत्रोंसे युक्त रूप धारण कर लिया था, इसलिये मुनिजन आपको ‘शताक्षी’ कहेंगे। अपने शरीरसे उत्पन्न हुए शाकोंद्वारा आपने समस्त लोकोंका भरण-पोषण किया है, इसलिये ‘शाकम्भरी’ के नामसे आपकी ख्याति होगी। शिवे ! आपने दुर्गम नामक महादैत्यका वध किया है, इसलिये लोग आप कल्याणमयी भगवतीको ‘दुर्गा’ कहेंगे। योगनिद्रे ! आपको नमस्कार है। महाबले ! आपको नमस्कार है। ज्ञानदायिनि ! आपको नमस्कार है। आप जगन्माताको बारंबार नमस्कार है।
तत्त्वमसि आदि महावाक्योंद्वारा जिन परमेश्वरीका ज्ञान होता है, उन अनन्तकोटि ब्रह्माण्डोंका संचालन करनेवाली भगवती दुर्गाको बारंबार नमस्कार है। मातः ! आपतक मन, वाणी और शरीरकी पहुँच होनी कठिन है। सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि- ये तीनों आपके नेत्र हैं। हम आपके प्रभावको नहीं जानते, इसलिये आपकी स्तुति करनेमें असमर्थ हैं। सुरेश्वरी माता शताक्षीको छोड़कर दूसरा कौन है, जो हम-जैसे अमरोंपर दृष्टिपात करके ऐसी दया करे। देवि ! आपको सदा ऐसा ही यत्न करना चाहिये, जिससे तीनों लोक निरन्तर विघ्न-बाधाओंसे तिरस्कृत न हों। आप हमारे शत्रुओंका नाश करती रहें।
देवीने कहा-देवताओ ! जैसे बछड़ोंको देखकर गौएँ व्यग्र हो उतावलीके साथ उनकी ओर दौड़ती हैं, उसी तरह मैं तुम सबको देखकर व्याकुल हो दौड़ी आती हूँ। तुम्हें न देखनेसे मेरा एक क्षण भी युगके समान बीतता है। मैं तुम्हें अपने बच्चोंके समान समझती हूँ और तुम्हारे लिये अपने प्राण भी दे सकती हूँ। तुमलोग मेरे प्रति भक्तिभावसे सुशोभित हो, अतः तुम्हें कोई भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये। मैं तुम्हारी सारी आपत्तियोंका निवारण करनेके लिये सदैव उद्यत हूँ। जैसे पूर्वकालमें तुम्हारी रक्षाके लिये मैंने दैत्योंको मारा है, उसी प्रकार आगे भी असुरोंका संहार करूँगी – इसमें तुम्हें संशय नहीं करना चाहिये।
यह मैं सत्य-सत्य कहती हूँ। भविष्यमें जब पुनः शुम्भ और निशुम्भ नामके दूसरे दैत्य होंगे, उस समय मैं यशोमयी देवी नन्दपत्नी यशोदाके गर्भसे योनिजरूप धारण करके गोकुलमें उत्पन्न होऊँगी और यथासमय उन असुरोंका वध करूँगी। नन्दकी पुत्री होनेके कारण उस समय मुझे लोग ‘नन्दजा’ कहेंगे। जब मैं भ्रमरका रूप धारण करके अरुण नामक असुरका वध करूँगी, तब संसारके मनुष्य मुझे ‘भ्रामरी’ कहेंगे। फिर मैं भीम (भयंकर) रूप धारण करके राक्षसोंको खाने लगूँगी, उस समय मेरा ‘भीमादेवी’ नाम प्रसिद्ध होगा। जब-जब पृथ्वीपर असुरोंकी ओरसे बाधा उत्पन्न होगी, तब-तब मैं अवतार लेकर प्रजाजनोंका कल्याण करूँगी – इसमें संशय नहीं है।
जो देवी शताक्षी कही गयी हैं, वे ही शाकम्भरी मानी गयी हैं तथा उन्हींको दुर्गा कहा गया है। तीनों नामोंद्वारा एक ही व्यक्तिका प्रतिपादन होता है। इस पृथ्वीपर महेश्वरी शताक्षीके समान दूसरा कोई दयालु देवता नहीं है; क्योंकि वे देवी समस्त प्रजाओंको संतप्त देख नौ दिनोंतक रोती रह गयी थीं।
(अध्याय ५०)