(उमासंहिता)
Shiv puran uma samhita chapter 27 (शिव पुराण उमा संहिता अध्याय 27 काल या मृत्युको जीतकर अमरत्व प्राप्त करनेकी चार यौगिक साधनाएँ – प्राणायाम, भ्रूमध्यमें अग्निका ध्यान, मुखसे वायुपान तथा मुड़ी हुई जिह्वाद्वारा गलेकी घाँटीका स्पर्श)
:-पार्वती बोलीं- प्रभो ! यदि आप प्रसन्न हैं तो योगी योगाकाशजनित वायुपदको जिस प्रकार प्राप्त होता है, वह सब मुझे बताइये।
भगवान् शिवने कहा-सुन्दरि ! पहले मैंने योगियोंके हितकी कामनासे सब कुछ बताया है, जिसके अनुसार योगियोंने कालपर विजय प्राप्त की थी। योगी जिस प्रकार वायुका स्वरूप धारण करता है, उसके विषयमें भी कहा गया है। इसलिये योगशक्तिके द्वारा मृत्यु-दिवसको जानकर प्राणायाममें तत्पर हो जाय।
ऐसा करनेपर आधे मासमें ही वह आये हुए कालको जीत लेता है। हृदयमें स्थित हुई प्राणवायु सदा अग्निको उद्दीप्त करनेवाली है। उसे अग्निका सहायक बताया गया है। यह वायु बाहर और भीतर सर्वत्र व्याप्त और महान् है। ज्ञान, विज्ञान और उत्साह-सबकी प्रवृत्ति वायुसे ही होती है। जिसने यहाँ वायुको जीत लिया, उसने इस सम्पूर्ण जगत्पर विजय पा ली।
साधकको चाहिये कि वह जरा और मृत्युको जीतनेकी इच्छासे सदा धारणामें स्थित रहे; क्योंकि योगपरायण योगीको भलीभाँति धारणा और ध्यानमें तत्पर रहना चाहिये। जैसे लुहार मुखसे धौंकनीको फूंक- फूंककर उस वायुके द्वारा अपने सब कार्यको सिद्ध करता है, उसी प्रकार योगीको प्राणायामका अभ्यास करना चाहिये। प्राणायामके समय जिनका ध्यान किया जाता है, वे आराध्यदेव परमेश्वर सहस्त्रों मस्तक, नेत्र, पैर और हाथोंसे युक्त हैं तथा समस्त ग्रन्थियोंको आवृत करके उनसे भी दस अंगुल आगे स्थित हैं। आदिमें व्याहृति और अन्तमें शिरोमन्त्रसहित गायत्रीका तीन बार जप करे और प्राणवायुको रोके रहे। प्राणोंके इस आयामका नाम प्राणायाम है। चन्द्रमा और सूर्य आदि ग्रह जा-जाकर लौट आते हैं।
परंतु प्राणायामपूर्वक ध्यानपरायण योगी जानेपर आजतक नहीं लौटे हैं (अर्थात् मुक्त हो गये हैं)। देवि ! जो द्विज सौ वर्षोंतक तपस्या करके कुशोंके अग्रभागसे एक बूँद जल पीता है वह जिस फलको पाता है, वही ब्राह्मणोंको एकमात्र धारणा अथवा प्राणायामके द्वारा मिल जाता है। जो द्विज सबेरे उठकर एक प्राणायाम करता है, वह अपने सम्पूर्ण पापको शीघ्र ही नष्ट कर देता और ब्रह्मलोकको जाता है। जो आलस्यरहित हो सदा एकान्तमें प्राणायाम करता है, वह जरा और मृत्युको जीतकर वायुके समान गतिशील हो आकाशमें विचरता है। वह सिद्धोंके स्वरूप, कान्ति, मेधा, पराक्रम और शौर्यको प्राप्त कर लेता है। उसकी गति वायुके समान हो जाती है तथा उसे स्पृहणीय सौख्य एवं परम सुखकी प्राप्ति होती है।
देवेश्वरि ! योगी जिस प्रकार वायुसे सिद्धि प्राप्त करता है, वह सब विधान मैंने बता दिया। अब तेजसे जिस तरह वह सिद्धि-लाभ करता है, उसे भी बता रहा हूँ। जहाँ दूसरे लोगोंकी बातचीतका कोलाहल न पहुँचता हो, ऐसे शान्त – एकान्त स्थानमें अपने सुखद आसनपर बैठकर चन्द्रमा और सूर्य (वाम और दक्षिण नेत्र) की कान्तिसे प्रकाशित मध्यवर्ती देश भ्रूमध्य- भागमें जो अग्निका तेज अव्यक्तरूपसे प्रकाशित होता है, उसे आलस्यरहित योगी दीपकरहित अन्धकारपूर्ण स्थानमें चिन्तन करनेपर निश्चय ही देख सकता है- इसमें संशय नहीं है।
योगी हाथकी अँगुलियोंसे यत्नपूर्वक दोनों नेत्रोंको कुछ-कुछ दबाये रखे और उनके तारोंको देखता हुआ एकाग्रचित्तसे आधे मुहूर्ततक उन्हींका चिन्तन करे। तदनन्तर अन्धकारमें भी ध्यान करनेपर वह उस ईश्वरीय ज्योतिको देख सकता है। वह ज्योति सफेद, लाल, पीली, काली तथा इन्द्रधनुषके समान रंगवाली होती है। भौंहोंके बीचमें ललाटवर्ती बालसूर्यके समान तेजवाले उन अग्निदेवका साक्षात्कार करके योगी इच्छानुसार रूप धारण करनेवाला हो जाता है तथा मनोवांछित शरीर धारण करके क्रीड़ा करता है।
वह योगी कारण- तत्त्वको शान्त करके उसमें आविष्ट होना, दूसरेके शरीरमें प्रवेश करना, अणिमा आदि गुणोंको पा लेना, मनसे ही सब कुछ देखना, दूरकी बातोंको सुनना और जानना, अदृश्य हो जाना, बहुत-से रूप धारण कर लेना तथा आकाशमें विचरना इत्यादि सिद्धियोंको निरन्तर अभ्यासके प्रभावसे प्राप्त कर लेता है। जो अन्धकारसे परे और सूर्यके समान तेजस्वी है, उसी इस महान् ज्योतिर्मय पुरुष (परमात्मा) को मैं जानता हूँ।
उन्हींको जानकर मनुष्य काल या मृत्युको लाँघ जाता है। मोक्षके लिये इसके सिवा दूसरा कोई मार्ग नहीं है।* देवि ! इस प्रकार मैंने तुमसे तेजस्तत्त्वके चिन्तनकी उत्तम विधिका वर्णन किया है, जिससे योगी कालपर विजय पाकर अमरत्वको प्राप्त कर लेता है।
देवि ! अब पुनः दूसरा श्रेष्ठ उपाय बताता हूँ, जिससे मनुष्यकी मृत्यु नहीं होती। देवि ! ध्यान करनेवाले योगियोंकी चौथी गति (साधना) बतायी जाती है। योगी अपने चित्तको वशमें करके यथायोग्य स्थानमें सुखद आसनपर बैठे। वह शरीरको ऊँचा करके अंजलि बाँधकर चोंचकी-सी आकृतिवाले मुखके द्वारा धीरे-धीरे वायुका पान करे। ऐसा करनेसे क्षणभरमें तालुके भीतर स्थित जीवनदायी जलकी बूँदें टपकने लगती हैं।
उन बूँदोंको वायुके द्वारा लेकर सूँघे। वह शीतल जल अमृतस्वरूप है। जो योगी उसे प्रतिदिन पीता है, वह कभी मृत्युके अधीन नहीं होता। उसे भूख-प्यास नहीं लगती। उसका शरीर दिव्य और तेज महान् हो जाता है। वह बलमें हाथी और वेगमें घोड़ेकी समानता करता है। उसकी दृष्टि गरुड़के समान तेज हो जाती है और उसे दूरकी भी बातें सुनायी देने लगती हैं।
उसके केश काले काले और घुँघराले हो जाते हैं तथा अंगकान्ति गन्धर्व एवं विद्याधरोंकी समानता करती है। वह मनुष्य देवताओंके वर्षसे सौ वर्षोंतक जीवित रहता है तथा अपनी उत्तम बुद्धिके द्वारा बृहस्पतिके तुल्य हो जाता है। उसमें इच्छानुसार विचरनेकी शक्ति आ जाती है और वह सदा ही सुखी रहकर आकाशमें विचरणकी शक्ति प्राप्त कर लेता है।
वरानने ! अब मृत्युपर विजय पानेकी पुनः दूसरी विधि बता रहा हूँ, जिसे देवताओंने भी प्रयत्नपूर्वक छिपा रखा है; तुम उसे सुनो। योगी पुरुष अपनी जिह्वाको मोड़कर तालुमें लगानेका प्रयत्न करे। कुछ कालतक ऐसा करनेसे वह क्रमशः लम्बी होकर गलेकी घाँटीतक पहुँच जाती है। तदनन्तर जब जिह्वासे गलेकी घाँटी सटती है, तब शीतल सुधाका स्त्राव करती है। उस सुधाको जो योगी सदा पीता है, वह अमरत्वको प्राप्त होता है।
(अध्याय २७)