Shiv puran uma samhita chapter 13 to 16 (शिव पुराण  उमा संहिता अध्याय 13 से 16 वेद और पुराणोंके स्वाध्याय तथा विविध प्रकारके दानकी महिमा, नरकोंका वर्णन तथा उनमें गिरानेवाले पापोंका दिग्दर्शन, पापोंके लिये सर्वोत्तम प्रायश्चित्त शिवस्मरण तथा ज्ञानके महत्त्वका प्रतिपादन)

(उमासंहिता)

Shiv puran uma samhita chapter 13 to 16 (शिव पुराण  उमा संहिता अध्याय 13 से 16 वेद और पुराणोंके स्वाध्याय तथा विविध प्रकारके दानकी महिमा, नरकोंका वर्णन तथा उनमें गिरानेवाले पापोंका दिग्दर्शन, पापोंके लिये सर्वोत्तम प्रायश्चित्त शिवस्मरण तथा ज्ञानके महत्त्वका प्रतिपादन)

:-सनत्कुमारजी कहते हैं-मुने ! जो वनमें जंगली फल-मूल खाकर तप करता है और जो वेदकी एक ऋचाका स्वाध्याय करता है, इन दोनोंका फल समान है। श्रेष्ठ द्विज वेदाध्ययनसे जिस पुण्यको पाता है, उससे दूना फल वह उस वेदको पढ़ानेसे पाता है। मुने ! जैसे चन्द्रमा और सूर्यके बिना जगत्में अन्धकार छा जाता है, उसी प्रकार पुराणके बिना ज्ञानका आलोक नहीं रह जाता है- अज्ञानका अन्धकार छाया रहता है।

 

इसलिये सदा पुराणका अध्ययन करना चाहिये। अज्ञानके कारण नरकमें पड़कर सदा संतप्त होनेवाले लोकको जो शास्त्रका ज्ञान देकर समझाता है, वह पुराणवक्ता अपनी इसी महत्ताके कारण सदा पूजनीय है। जो साधु पुरुष पुराणवक्ता विद्वान्‌को दानका पात्र समझकर बड़ी प्रसन्नताके साथ उसे उत्तमोत्तम वस्तुएँ देता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है।

 

जो सुपात्र ब्राह्मणको भूमि, गौ, रथ, हाथी और सुन्दर घोड़े देता है, उसके पुण्यफलका वर्णन सुनो। वह इस जन्ममें और परलोकमें भी सम्पूर्ण अक्षय मनोरथोंको पा लेता है तथा अश्वमेधयज्ञके फलका भी भागी होता है।

मुनीश्वर ! जो पुरुष भगवान् शिवकी कथा सुनता है, वह कर्मोंके विशाल वनको जलाकर संसारसे तर जाता है। जो दो घड़ी, एक घड़ी अथवा एक क्षण भी भक्तिभावसे भगवान् शिवकी कथा सुनते हैं, उनकी कभी दुर्गति नहीं होती। मुने ! सम्पूर्ण दानों अथवा सम्पूर्ण यज्ञोंमें जो पुण्य होता है, वही फल शिवपुराण सुननेसे अविचलरूपमें प्राप्त हो जाता है। व्यासजी ! विशेषतः कलियुगमें पुराणश्रवणके सिवा मनुष्योंके लिये दूसरा कोई श्रेष्ठ धर्म नहीं है।

 

वही उनके लिये मोक्ष एवं ध्यानरूपी फल देनेवाला बताया गया है। शिवपुराणका श्रवण और शिव-नामका कीर्तन मनुष्योंके लिये कल्पवृक्षका रमणीय फल है, इसमें संशय नहीं है। यज्ञ, दान, तप और तीर्थसेवन- से जो फल मिलता है, उसीको मनुष्य पुराणोंके श्रवणमात्रसे पा लेता है।

प्रतिदिन सुपात्र लोगोंको बड़े-बड़े दान देने चाहिये, वे दान दाताके उद्धारक होते हैं। विप्रवर ! सुवर्णदान, गोदान और भूमिदान- ये पवित्र दान हैं, जो दाताको तो तारते ही हैं, लेनेवालोंका भी उद्धार कर देते हैं। सुवर्णदान, गोदान और पृथ्वीदान – इन श्रेष्ठ दानोंको करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। तुलादानकी बड़ी प्रशंसा की गयी है, गौ और पृथ्वीके दान भी प्रशस्त एवं समान शक्तिवाले हैं। परंतु सरस्वतीका दान इन सबसे अधिक उत्तम है। नित्य दुही जानेवाली गाय, छाता, वस्त्र, जूता तथा अन्न और जल- ये सब वस्तुएँ याचकोंको देनी चाहिये।

 

ब्राह्मणोंको तथा अपीडित याचकोंको जो संकल्पपूर्वक धनादि वस्तुओंका दान किया जाता है, उससे दाता मनस्वी होता है। लोकमें जो-जो अत्यन्त अभीष्ट और प्रिय है, वह यदि घरमें हो तो उसे अक्षय बनानेकी इच्छावाले पुरुषको गुणवान् पुरुषको दान करना चाहिये। तुला-पुरुषका दान सब दानोंमें उत्तम है। जो अपने लिये कल्याण चाहे, उसे तराजूपर बैठना और अपने शरीरसे तौली गयी वस्तुका दान करना चाहिये। दिनमें, रातमें, दोनों संध्याओंके समय, दोपहरमें, आधी रातके समय तथा भूत, वर्तमान और भविष्य – तीनों कालोंमें मन, वाणी और शरीरद्वारा किये गये सारे पापोंको तुला-पुरुषका दान दूर कर देता है।

इसके बाद ब्रह्माण्डदानका माहात्म्य एवं ब्रह्माण्डका वर्णन करके सनत्कुमारजीने कहा- मुनिवरोंमें श्रेष्ठ व्यास ! पाताललोकसे ऊपर जो नरक हैं, उनका वर्णन मुझसे सुनो; पापी पुरुष उन्हींमें यातनाएँ भोगते हैं। रौरव, शूकर, रोध, ताल, विवसन या विशसन, महाज्वाल, तप्तकुम्भ, लवण, विलोहित, पीब बहानेवाली वैतरणी, कृमि या कृमीश, कृमिभोजन, कृष्ण, असिपत्रवन, दारुण लालाभक्ष, पूयवह, पाप, वह्निज्वाल, अधःशिरा, संदंश, कालसूत्र, तमस, अवीचि, रोधन, श्वभोजन, अप्रतिष्ठ, महारौरव और शाल्मलि इत्यादि बहुत-से दुःखदायक नरक वहाँ हैं। व्यासजी ! उनमें जो पापकर्म- परायण पुरुष पकाये जाते हैं, उनका क्रमशः वर्णन करता हूँ; सावधान होकर सुनो।

 

जो मनुष्य ब्राह्मणों, देवताओं तथा गौओंके लिये हितकर कार्योंके सिवा अन्य किसी कार्यके लिये झूठी गवाही देता है अथवा सदा झूठ बोलता है, वह रौरव नरकमें जाता है।

जो भ्रूण (गर्भस्थ शिशु) की हत्या और सुवर्णकी चोरी करनेवाला, गायको कटघरेमें बंद करनेवाला, विश्वासघाती, शराबी, ब्रह्महत्यारा, दूसरोंके द्रव्यका अपहरण करनेवाला तथा इन सबका संगी है, वह मरनेपर तप्तकुम्भ नामक नरकमें जाता है। गुरुके वधसे भी इसी नरककी प्राप्ति होती है। बहिन, माता, गौ तथा पुत्रीका वध करनेसे भी तप्तकुम्भमें ही गिरना पड़ता है। साध्वी स्त्रीको बेचनेवाला, अधिक व्याज लेनेवाला, केश-विक्रय करनेवाला तथा अपने भक्तको त्यागनेवाला- ये सब पापी तप्तलोह नामक नरकमें पकाये जाते हैं। जो नराधम गुरुजनोंका अपमान करनेवाला तथा उनके प्रति दुर्वचन बोलनेवाला है और जो वेदकी निन्दा करनेवाला, वेद बेचनेवाला तथा अगम्या स्त्रीसे सम्भोग करनेवाला है, वे सब-के-सब लवण नामक नरकमें जाते हैं। चोर विलोहित नामक नरकमें गिरता है।

 

मर्यादाको दूषित करनेवाले पुरुषकी भी ऐसी ही गति होती है। जो पुरुष देवता, ब्राह्मण और पितृगणसे द्वेष करनेवाला है तथा जो रत्नको दूषित (उसमें मिलावट) करता है, वह कृमिभक्ष नामक नरकमें पड़ता है। जो दूषित यज्ञ (दूसरोंको हानि पहुँचानेके लिये आभिचारिक प्रयोग या हिंसाप्रधान तामस यज्ञ) करता है, वह कृमीश नामक नरकमें पड़ता है। जो नराधम पितृगण, देवगण और अतिथियोंको छोड़कर (बलिवैश्वदेवके द्वारा देवता आदिका भाग उन्हें अर्पण किये बिना ही) भोजन कर लेता है, वह उग्र लालाभक्ष नरकमें गिरता है।

 

जो शस्त्र- समूहोंका निर्माण करता है, वह भी उसीमें जाता है। जो द्विज अन्त्यजसे सेवा लेता है, असत् दान ग्रहण करता है, यज्ञके अन- धिकारियोंसे यज्ञ कराता है और अभक्ष्य- भक्षण करता है, ये सब के सब रुधिरौघ (पूयवह) नामक नरकमें गिरते हैं। जो सोमरसको बेचनेवाले हैं, उनकी भी यही गति होती है। यज्ञ और ग्रामको नष्ट करनेवाला घोर वैतरणी नदीमें पड़ता है।

जो नयी जवानीसे मतवाले हो धर्मकी मर्यादाको तोड़ते हैं, अपवित्र आचार-विचारसे रहते हैं और छल-कपटसे जीविका चलाते हैं, वे कृत्य नामक नरकमें जाते है। जो अकारण ही वृक्षोंको काटता है, वह असि- पत्रवन नामक नरकमें जाता है। भेंड़ोंको बेचकर जीविका चलानेवाले तथा पशुओंकी हिंसा करनेवाले कसाई वह्निज्वाल नामक नरकमें गिरते हैं। भ्रष्टाचारी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तथा जो कच्चे खपड़ों अथवा ईंट आदिको पकानेके लिये पजावेमें आग देता है, वे सब उसी वह्निज्वाल नरकमें गिरते हैं।

 

जो व्रतोंका लोप करनेवाले तथा अपने आश्रमसे गिरे हुए हैं, वे दोनों ही प्रकारके पुरुष अत्यन्त दारुण संदंश नामक नरककी यातनामें पड़ते हैं। जो ब्रह्मचारी होकर भी स्वप्नमें वीर्यस्खलन करते हैं तथा जो पुत्रोंसे विद्या पढ़ते हैं, वे श्वभोजन नामक नरकमें गिरते हैं। इस तरह ये तथा और भी सैकड़ों, हजारों नरक हैं, जिनमें पापकर्मी प्राणी यातनाओंकी आगमें डालकर पकाये जाते हैं। इन उपर्युक्त पापोंके समान और भी सहस्त्रों पापकर्म हैं, जिन्हें नरकोंमें पड़कर मनुष्य भोगा करते हैं। जो लोग मन, वाणी और क्रियाद्वारा अपने वर्ण और आश्रमके विरुद्ध कर्म करते हैं, वे नरकमें गिरते हैं।

 

नरकमें सिर नीचे करके लटकाये गये प्राणी स्वर्गलोकमें रहनेवाले देवताओंको देखा करते हैं और देवतालोग भी नीचे दृष्टि डालनेपर उन सभी अधोमुख नारकी जीवोंको देखते हैं। पापीलोग नरक-भोगके अनन्तर क्रमशः उन्नति करते हुए स्थावर, कृमि, जलचर, पक्षी, पशु, मनुष्य, धर्मात्मा मानव-देवता तथा मुमुक्षु होते और अन्तमें मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। जितने जीव स्वर्गमें हैं, उतने ही नरकमें हैं। जो पापी पुरुष अपने पापका प्रायश्चित्त नहीं करता वही नरकमें जाता है।

कालीनन्दन ! स्वायम्भुव मनुने महान् पापोंके लिये महान् और लघु पापोंके लिये लघु प्रायश्चित्त बताये हैं। उन अशेष पापकर्मोंके लिये जो-जो प्रायश्चित्त-सम्बन्धी कर्म बताये गये हैं, उन सबमें भगवान् शंकरका स्मरण ही सर्वश्रेष्ठ प्रायश्चित्त है। जिस पुरुषके चित्तमें पापकर्म करनेके अनन्तर पश्चात्ताप होता है, उसके लिये तो एकमात्र भगवान् शिवका स्मरण ही सर्वोत्तम प्रायश्चित्त है। प्रातःकाल, सायंकाल, रातमें तथा मध्याह्न आदिमें भगवान् शिवका स्मरण करनेसे पापरहित हुआ मनुष्य माहेश्वर धामको प्राप्त कर लेता है।

 

भगवान् शिवके स्मरणसे समस्त पापों और क्लेशोंका क्षय हो जानेसे मनुष्य स्वर्ग अथवा मोक्ष प्राप्त कर लेता है। जिसका चित्त जप, होम और पूजा आदि करते समय निरन्तर भगवान् महेश्वरमें ही लगा रहता हो उसके लिये इन्द्र आदि पदकी प्राप्तिरूप फल तो अन्तराय (विघ्न) ही है। मुने ! जो पुरुष भक्तिभावसे दिन-रात भगवान् शिवका स्मरण करता है, उसके सारे पातक नष्ट हो जाते हैं। इसलिये वह कभी नरकमें नहीं पड़ता।

 

नरक और स्वर्ग- ये पाप और पुण्यके ही दूसरे नाम हैं। इनमेंसे एक तो दुःख देनेवाला है और दूसरा सुख देनेवाला। जब एक ही वस्तु कभी प्रीति प्रदान करनेवाली होती है और कभी दुःख देनेवाली बन जाती है, तब यह निश्चय होता है कि कोई भी पदार्थ न तो दुःखमय है और न सुखमय ही है। ये सुख-दुःख तो मनके ही विकार हैं। ज्ञान ही परब्रह्म है और ज्ञान ही तात्त्विक बोधका कारण है। यह सारा चराचर विश्व ज्ञानमय ही है। उस परम विज्ञानसे भिन्न दूसरी कोई वस्तु नहीं है।

(अध्याय १३-१६)

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