(शतरुद्रसंहिता)
Shiv puran shatrudra samhita chapter 7 (शिव पुराण शतरुद्रसंहिता अध्याय 7 नन्दीश्वरके जन्म, वरप्राप्ति, अभिषेक और विवाहका वर्णन)
:-नन्दिकेश्वर कहते हैं- मुने ! वनमें जाकर मैंने एकान्त स्थानमें अपना आसन लगाया और उत्तम बुद्धिका आश्रय ले मैं उग्र तपमें प्रवृत्त हुआ, जो बड़े-बड़े मुनियोंके लिये भी दुष्कर था। उस समय मैं नदीके पावन उत्तर तटपर सुदृढ़रूपसे ध्यान लगाकर बैठ गया और एकाग्र तथा समाहित मनसे अपने हृदयकमलके मध्यभागमें तीन नेत्र,दस भुजा तथा पाँच मुखवाले शान्तिस्वरूप देवाधिदेव सदाशिवका ध्यान करके रुद्र-मन्त्रका जप करने लगा।
तब उस जपमें मुझे तल्लीन देखकर चन्द्रार्धभूषण परमेश्वर महादेव प्रसन्न हो गये और उमासहित वहाँ पधारकर प्रेमपूर्वक बोले।शिवजीने कहा- ‘शिलादनन्दन ! तुमने
बड़ा उत्तम तप किया है। तुम्हारी इस तपस्यासे संतुष्ट होकर मैं तुम्हें वर देनेके लिये आया हूँ। तुम्हारे मनमें जो अभीष्ट हो, वह माँग लो।’ महादेवजीके यों कहनेपर मैं सिरके बल उनके चरणोंमें लोट गया और फिर बुढ़ापा तथा शोकका विनाश करनेवाले परमेशानकी स्तुति करने लगा।
तब परम कष्टहारी वृषभध्वज परमेश्वर शम्भुने मुझ परम भक्तिसम्पन्न नन्दीको जिसके नेत्रोंमें आँसू छलक आये थे और जो सिरके बल चरणोंमें पड़ा था, अपने दोनों हाथोंसे पकड़कर उठा लिया और शरीरपर हाथ फेरने लगे।
फिर वे जगदीश्वर गणाध्यक्षों तथा हिमाचलकुमारी पार्वतीदेवीकी ओर दृष्टिपात करके मुझे कृपादृष्टिसे देखते हुए यों कहने लगे – ‘वत्स नन्दी ! उन दोनों विप्रोंको तो मैंने ही भेजा था। महाप्राज्ञ ! तुम्हें मृत्युका भय कहाँ; तुम तो मेरे ही समान हो। इसमें तनिक भी संशय नहीं है।
तुम अमर, अजर, दुःखरहित, अव्यय और अक्षय होकर सदा गणनायक बने रहोगे तथा पिता और सुहृद्वर्गसहित मेरे प्रियजन होओगे। तुममें मेरे ही समान बल होगा। तुम नित्य मेरे पार्श्वभागमें स्थित रहोगे और तुमपर निरन्तर मेरा प्रेम बना रहेगा। मेरी कृपासे जन्म, जरा और मृत्यु तुमपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकेंगे।’
नन्दीश्वरजी कहते हैं-मुने ! यों कहकर कृपासागर शम्भुने कमलोंकी बनी हुई अपनी शिरोमालाको उतारकर तुरंत ही मेरे गलेमें डाल दिया। विप्रवर! उस शुभ मालाके गलेमें पड़ते ही मैं तीन नेत्र और दस भुजाओंसे सम्पन्न हो गया तथा द्वितीय शंकर-सा प्रतीत होने लगा। तदनन्तर परमेश्वर शिवने मेरा हाथ पकड़कर पूछा- ‘बताओ, अब तुम्हें कौन-सा उत्तम वर दूँ?’
फिर उन वृषध्वजने अपनी जटामें स्थित हारके समान निर्मल जलको हाथमें ले ‘तुम नदी हो जाओ’ यों कहकर उसे छोड़ दिया। तब वह जल उत्तम ढंगसे बहनेवाली, स्वच्छ जलसे परिपूर्ण, महान् वेगशालिनी, दिव्यरूपा पाँच सुन्दर नदियोंके रूपमें परिवर्तित हो गया। उनके नाम हैं- जटोदका, त्रिस्त्रोता, वृषध्वनि, स्वर्णोदका और जम्बूनदी।
मुने ! यह पंचनद शिवके पृष्ठभागकी भाँति परम शुभ है। महेश्वरके निकट इसका नाम लेनेसे यह परम पावन हो जाता है। जो मनुष्य पंचनदपर जाकर स्नान और जप करके परमेश्वर शिवका पूजन करता है, वह शिवसायुज्यको प्राप्त होता है- इसमें संशय नहीं है। तत्पश्चात् शम्भुने उमासे कहा-‘अव्यये ! मैं नन्दीका अभिषेक करके इसे गणाध्यक्ष बनाना चाहता हूँ! इस विषयमें तुम्हारी क्या राय है?’
तब उमा बोलीं- देवेश ! आप नन्दीको गणाध्यक्षपद प्रदान कर सकते हैं; क्योंकि परमेश्वर ! यह शिलादनन्दन मेरे लिये पुत्र-सरीखा है, इसलिये नाथ ! यह मुझे बहुत ही प्यारा है। तदनन्तर भक्तवत्सल भगवान् शंकरने अपने अतुलबलशाली गणोंको बुलाकर उनसे कहा।
शिवजी बोले-गणनायको ! तुम सब लोग मेरी एक आज्ञाका पालन करो। यह मेरा प्रिय पुत्र नन्दीश्वर सभी गणनायकोंका अध्यक्ष और गणोंका नेता है; इसलिये तुम सब लोग मिलकर इसका मेरे गणोंके अधिपतिपदपर प्रेमपूर्वक अभिषेक करो। आजसे यह नन्दीश्वर तुमलोगोंका स्वामी होगा।
नन्दीश्वरजी कहते हैं-मुने ! शंकरजीके इस कथनपर सभी गणनायकोंने ‘एवमस्तु’ कहकर उसे स्वीकार किया और वे सामग्री जुटानेमें लग गये। फिर सब देवताओं और मुनियोंने मिलकर मेरा अभिषेक किया। तदनन्तर मरुतोंकी मनोहारिणी दिव्य कन्या सुयशासे मेरा विवाह करवा दिया। उस समय मुझे बहुत-सी दिव्य वस्तुएँ मिलीं।
महामुने ! इस प्रकार विवाह करके मैंने अपनी उस पत्नीके साथ शम्भु, शिवा, ब्रह्मा और श्रीहरिके चरणोंमें प्रणाम किया। तब त्रिलोकेश्वर भक्तवत्सल भगवान् शिव पत्नीसहित मुझसे परम प्रेमपूर्वक बोले।
ईश्वरने कहा-सत्पुत्र ! यह तुम्हारी प्रिया सुयशा और तुम मेरी बात सुनो। तुम मुझे परम प्रिय हो, अतः मैं स्नेहपूर्वक तुम्हें मनोवांछित वर प्रदान करूँगा। गणेश्वर नन्दीश ! देवी पार्वतीसहित मैं तुमपर सदा संतुष्ट हूँ, इसलिये वत्स ! तुम मेरा उत्तम वचन श्रवण करो। तुम मेरे अटूट प्रेमी, विशिष्ट, परम ऐश्वर्यसम्पन्न, महायोगी, महान् धनुर्धारी, अजेय, सबको जीतनेवाले, महाबली और सदा पूज्य होओगे।
जहाँ मैं रहूँगा, वहाँ तुम्हारी स्थिति होगी और जहाँ तुम रहोगे, वहाँ मैं उपस्थित रहूँगा। यही दशा तुम्हारे पिता और पितामहकी भी होगी। पुत्र ! तुम्हारे ये महाबली पिता परम ऐश्वर्यशाली, मेरे भक्त और गणाध्यक्ष होंगे। वत्स ! ये ही नियम तुम्हारे पितामहपर भी लागू होंगे। अन्तमें तुम सब लोग मुझसे वरदान प्राप्त करके मेरा सांनिध्य प्राप्त करोगे।
नन्दीश्वरजी कहते हैं-मुने ! तत्पश्चात् महाभागा उमादेवी वर देनेके लिये उत्सुक हो मुझ नन्दीसे बोलीं- ‘बेटा ! तू मुझसे भी वर माँग ले, मैं तेरी सारी अभीष्ट कामनाओंको पूर्ण कर दूँगी।’ तब देवीके उस वचनको सुनकर मैंने हाथ जोड़कर कहा- ‘देवि !
आपके चरणोंमें मेरी सदा उत्तम भक्ति बनी रहे।’ मेरी याचना सुनकर देवीने कहा- ‘एवमस्तु – ऐसा ही होगा।’ फिर शिवा नन्दीकी प्रियतमा पत्नी सुयशासे बोलीं। देवीने कहा-वत्से ! तुम भी अपना अभीष्ट वर ग्रहण करो – तुम्हारे तीन नेत्र होंगे। तुम जन्म-बन्धनसे छूट जाओगी और पुत्र-पौत्रोंसे सम्पन्न रहोगी तथा तुम्हारी मुझमें और अपने स्वामीमें अटल भक्ति बनी रहेगी।
नन्दीश्वरजी कहते हैं-मुने ! तदनन्तर शिवजीकी आज्ञासे परम प्रसन्न हुए ब्रह्मा,विष्णु तथा समस्त देवगणोंने भी प्रेमपूर्वक हम दोनोंको वरदान दिये। तत्पश्चात् परमेश्वर शिव कुटुम्बसहित मुझे अपनाकर तथा उमासहित वृषपर आरूढ़ हो सम्बन्धियों एवं बान्धवोंके साथ अपने निवासस्थानको चले गये। तब वहाँ उपस्थित विष्णु आदि समस्त देवता मेरी प्रशंसा तथा शिव-शिवाकी स्तुति करते हुए अपने-अपने धामको चल दिये।
वत्स ! इस प्रकार मैंने तुमसे अपने अवतारका वर्णन कर दिया। महामुने ! यह मनुष्योंके लिये सदा आनन्ददायक और शिवभक्तिका वर्धक है। जो श्रद्धालु मानव भक्तिभावित चित्तसे मुझ नन्दीके इस जन्म, वरप्राप्ति, अभिषेक और विवाहके वृत्तान्तको सुनेगा अथवा दूसरोंको सुनायेगा तथा पढ़ेगा या दूसरेको पढ़ायेगा, वह इस लोकमें सम्पूर्ण सुखोंको भोगकर अन्तमें परमगतिको प्राप्त होगा।
(अध्याय ७)