Shiv puran shatrudra samhita chapter 21 to 25 शिव पुराण शतरुद्रसंहिता अअध्याय21 से 25 शिवजीके पिप्पलाद-अवतारके प्रसंगमें देवताओंकी दधीचि मुनिसे अस्थि-याचना, दधीचिका शरीरत्याग, वज्र-निर्माण तथा उसके द्वारा वृत्रासुरका वध, सुवर्चाका देवताओंको शाप, पिप्पलादका जन्म और उनका विस्तृत वृत्तान्त)

(शतरुद्रसंहिता)

Shiv puran shatrudra samhita chapter 21 to 25 शिव पुराण शतरुद्रसंहिता अअध्याय21 से 25 शिवजीके पिप्पलाद-अवतारके प्रसंगमें देवताओंकी दधीचि मुनिसे अस्थि-याचना, दधीचिका शरीरत्याग, वज्र-निर्माण तथा उसके द्वारा वृत्रासुरका वध, सुवर्चाका देवताओंको शाप, पिप्पलादका जन्म और उनका विस्तृत वृत्तान्त)

 

:-तदनन्तर महेशावतार तथा वृषेशावतारका चरित सुनाकर नन्दीश्वरने कहा- महाबुद्धिमान् सनत्कुमारजी ! अब तुम अत्यन्त आह्लादपूर्वक महेश्वरके ‘पिप्पलाद’ नामक परमोत्कृष्ट अवतारका वर्णन श्रवण करो। यह उत्तम आख्यान भक्तिकी वृद्धि करनेवाला है। मुनीश्वर ! एक समय दैत्योंने वृत्रासुरकी सहायतासे इन्द्र आदि समस्त देवताओंको पराजित कर दिया। तब उन सभी देवताओंने सहसा दधीचिके आश्रममें अपने-अपने अस्त्रोंको फेंककर तत्काल ही हार मान ली।

 

तत्पश्चात् मारे जाते हुए वे इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता तथा देवर्षि शीघ्र ही ब्रह्मलोकमें जा पहुँचे और वहाँ (ब्रह्माजीसे) उन्होंने अपना वह दुखड़ा कह सुनाया। देवताओंका वह कथन सुनकर लोकपितामह ब्रह्माने सारा रहस्य यथार्थरूपसे प्रकट कर दिया कि ‘यह सब त्वष्टाकी करतूत है, त्वष्टाने ही तुमलोगोंका वध करनेके लिये तपस्याद्वारा इस महातेजस्वी वृत्रासुरको उत्पन्न किया है। यह दैत्य महान् आत्मबलसे सम्पन्न तथा समस्त दैत्योंका अधिपति है।

 

अतः अब ऐसा प्रयत्न करो जिससे इसका वध हो सके। बुद्धिमान् देवराज ! मैं धर्मके कारण इस विषयमें एक उपाय बतलाता हूँ, सुनो। जो दधीचि नामवाले महामुनि हैं, वे तपस्वी और जितेन्द्रिय हैं। उन्होंने पूर्वकालमें शिवजीकी समाराधना करके वज्र-सरीखी अस्थियाँ हो जानेका वर प्राप्त किया है। अतः तुमलोग उनसे उनकी हड्डियोंके लिये याचना करो। वे अवश्य दे देंगे। फिर उन अस्थियोंसे – वज्रदण्डका निर्माण करके तुम निश्चय ही – उससे वृत्रासुरको मार डालना।’

नन्दीश्वरजी कहते हैं-मुने ! ब्रह्माका – यह वचन सुनकर इन्द्र देवगुरु बृहस्पति – तथा देवताओंको साथ ले तुरंत ही दधीचि – ऋषिके उत्तम आश्रमपर आये। वहाँ इन्द्रने -सुवर्चासहित दधीचि मुनिका दर्शन किया ■ और आदरपूर्वक हाथ जोड़कर उन्हें नमस्कार ■किया; फिर देवगुरु बृहस्पति तथा अन्य ■ देवताओंने भी नम्रतापूर्वक उन्हें सिर ■ झुकाया। दधीचि मुनि विद्वानोंमें श्रेष्ठ तो थे = ही, वे तुरंत ही उसके अभिप्रायको ताड़ गये। तब उन्होंने अपनी पत्नी सुवर्चाको अपने आश्रमसे अन्यत्र भेज दिया। तत्पश्चात् देवताओंसहित देवराज इन्द्र, जो स्वार्थ- साधनमें बड़े दक्ष हैं, अर्थशास्त्रका आश्रय लेकर मुनिवरसे बोले।

इन्द्रने कहा- ‘मुने ! आप महान् शिवभक्त, दाता तथा शरणागतरक्षक हैं; इसीलिये हम सभी देवता तथा देवर्षि त्वष्टाद्वारा अपमानित होनेके कारण आपकी शरणमें आये हैं। विप्रवर! आप अपनी वज्रमयी अस्थियाँ हमें प्रदान कीजिये; क्योंकि आपकी हड्डीसे वज्रका निर्माण करके मैं उस देवद्रोहीका वध करूँगा।’ इन्द्रके यों कहनेपर परोपकार- परायण दधीचि मुनिने अपने स्वामी शिवका ध्यान करके अपना शरीर छोड़ दिया।

 

उनके समस्त बन्धन नष्ट हो चुके थे, अतः वे तुरंत ही ब्रह्मलोकको चले गये। उस समय वहाँ पुष्पोंकी वर्षा होने लगी और सभी लोग आश्चर्यचकित हो गये। तदनन्तर इन्द्रने शीघ्र ही सुरभि गौको बुलाकर उस शरीरको चटवाया और उन हड्डियोंसे अस्त्र-निर्माण करनेके लिये विश्वकर्माको आदेश दिया। तब इन्द्रकी आज्ञा पाकर विश्वकर्माने शिवजीके तेजसे सुदृढ़ हुई मुनिकी वज्रमयी हड्डियोंसे सम्पूर्ण अस्त्रोंकी कल्पना की। उनके रीढ़िकी हड्डीसे वज्र और ब्रह्मशिर नामक बाण बनाया तथा अन्य अस्थियोंसे अन्यान्य बहुत-से अस्त्रोंका निर्माण किया।

 

तब शिवजीके तेजसे उत्कर्षको प्राप्त हुए इन्द्रने उस वज्रको लेकर क्रोधपूर्वक वृत्रासुरपर आक्रमण किया, ठीक उसी तरह जैसे रुद्रने यमराजपर धावा किया था। फिर तो कवच आदिसे भलीभाँति सुरक्षित हुए इन्द्रने तुरंत ही पराक्रम प्रकट करके उस वज्रद्वारा वृत्रासुरके पर्वतशिखर-सरीखे सिरको काट गिराया। तात ! उस समय स्वर्गवासियोंने महान् विजयोत्सव मनाया, इन्द्रपर पुष्पोंकी वृष्टि होने लगी और सभी देवता उनकी स्तुति करने लगे। तदनन्तर महान् आत्मबलसे सम्पन्न दधीचि मुनिकी पतिव्रता पत्नी सुवर्चा पतिके आज्ञानुसार अपने आश्रमके भीतर गयी। वहाँ देवताओंके लिये पतिको मरा हुआ जानकर वह देवताओंको शाप देते हुए बोली।

सुवर्चाने कहा-‘अहो! इन्द्रसहित ये सभी देवता बड़े दुष्ट हैं और अपना कार्य सिद्ध करनेमें निपुण, मूर्ख तथा लोभी हैं; इसलिये ये सब-के-सब आजसे मेरे शापसे पशु हो जायें।’ इस प्रकार उस तपस्वी मुनिपत्नी सुवर्चाने उन इन्द्र आदि समस्त देवताओंको शाप दे दिया। तत्पश्चात् उस पतिव्रताने पतिलोकमें जानेका विचार किया। फिर तो मनस्विनी सुवर्चाने परम पवित्र लकड़ियोंद्वारा एक चिता तैयार की। उसी समय शंकरजीकी प्रेरणासे सुखदायिनी आकाशवाणी हुई, वह उस मुनिपत्नी सुवर्चाको आश्वासन देती हुई बोली।

आकाशवाणीने कहा- प्राज्ञे ! ऐसा साहस मत करो, मेरी उत्तम बात सुनो। देवि ! तुम्हारे उदरमें मुनिका तेज वर्तमान है, तुम उसे यत्नपूर्वक उत्पन्न करो। पीछे तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा करना; क्योंकि शास्त्रका ऐसा आदेश है कि गर्भवतीको अपना शरीर नहीं जलाना चाहिये अर्थात् सती नहीं होना चाहिये।

नन्दीश्वरजी कहते हैं-मुनीश्वर ! यों कहकर वह आकाशवाणी उपराम हो गयी। उसे सुनकर वह मुनिपत्नी क्षणभरके लिये विस्मयमें पड़ गयी। परंतु उस सती-साध्वी सुवर्चाको तो पतिलोककी प्राप्ति ही अभीष्ट थी, अतः उसने बैठकर पत्थरसे अपने उदरको विदीर्ण कर डाला। तब उसके पेटसे मुनिवर दधीचिका वह गर्भ बाहर निकल आया। उसका शरीर परम दिव्य और प्रकाशमान था तथा वह अपनी प्रभासे दसों दिशाओंको उद्भासित कर रहा था।

तात ! दधीचिके उत्तम तेजसे प्रादुर्भूत हुआ वह गर्भ अपनी लीला करनेमें समर्थ साक्षात् रुद्रका अवतार था। मुनिप्रिया सुवर्चाने दिव्यस्वरूपधारी अपने उस पुत्रको देखकर मन-ही-मन समझ लिया कि यह रुद्रका अवतार है। फिर तो वह महासाध्वी परमानन्दमग्न हो गयी और शीघ्र ही उसे नमस्कार करके उसकी स्तुति करने लगी। मुनीश्वर ! उसने उस स्वरूपको अपने हृदयमें धारण कर लिया। तदनन्तर पतिलोककी कामनावाली विमलेक्षणा माता सुवर्चा मुसकराकर अपने उस पुत्रसे परम स्नेहपूर्वक बोली।

सुवर्चाने कहा-तात परमेशान ! तुम इस अश्वत्थ वृक्षके निकट चिरकालतक स्थित रहो। महाभाग ! तुम समस्त प्राणियोंके लिये सुखदाता होओ और अब मुझे प्रेमपूर्वक पतिलोकमें जानेके लिये आज्ञा दो। वहाँ पतिके साथ रहती हुई मैं रुद्ररूपधारी तुम्हारा ध्यान करती रहूँगी।

नन्दीश्वरजी कहते हैं- मुने ! साध्वी सुवर्चाने अपने पुत्रसे यों कहकर परम समाधिद्वारा पतिका ही अनुगमन किया। मुनिवर ! इस प्रकार दधीचिपत्नी सुवर्चा शिवलोकमें पहुँचकर अपने पतिसे जा मिली और आनन्दपूर्वक शंकरजीकी सेवा करने लगी। तात ! इतनेमें ही हर्षमें भरे हुए इन्द्रसहित समस्त देवता मुनियोंके साथ आमन्त्रित हुएकी तरह शीघ्रतासे वहाँ आ पहुँचे।

 

तब प्रसन्न बुद्धिवाले ब्रह्माने उस बालकका नाम पिप्पलाद रखा। फिर सभी देवता महोत्सव मनाकर अपने-अपने धामको चले गये। तदनन्तर महान् ऐश्वर्यशाली रुद्रावतार पिप्पलाद उसी अश्वत्थके नीचे लोकोंकी हितकामनासे चिरकालिक तपमें प्रवृत्त हुए। लोकाचारका अनुसरण करनेवाले पिप्पलादका यों तपस्या करते हुए बहुत बड़ा समय व्यतीत हो गया।

तदनन्तर पिप्पलादने राजा अनरण्यकी कन्या पद्मासे विवाह करके तरुण हो उसके साथ विलास किया। उन मुनिके दस पुत्र उत्पन्न हुए, जो सब-के-सब पिताके ही समान महात्मा और उग्र तपस्वी थे। वे अपनी माता पद्माके सुखकी वृद्धि करनेवाले हुए। इस प्रकार महाप्रभु शंकरके लीलावतार मुनिवर पिप्पलादने महान् ऐश्वर्यशाली तथा नाना प्रकारकी लीलाएँ कीं। उन कृपालुने जगत्में शनैश्चरकी पीड़ाको, जिसका निवारण करना सबकी शक्तिके बाहर था, देखकर लोगोंको प्रसन्नतापूर्वक यह वरदान दिया कि ‘जन्मसे लेकर सोलह वर्षतककी आयुवाले मनुष्योंको तथा शिवभक्तोंको शनिकी पीड़ा नहीं हो सकती।

 

यह मेरा वचन सर्वथा सत्य है। यदि कहीं शनि मेरे वचनका अनादर करके उन मनुष्योंको पीड़ा पहुँचायेगा तो वह निस्संदेह भस्म हो जायगा।’ तात ! इसीलिये उस भयसे भीत हुआ ग्रहश्रेष्ठ शनैश्चर विकृत होनेपर भी वैसे मनुष्योंको कभी पीड़ा नहीं पहुँचाता। मुनिवर !

इस प्रकार मैंने लीलासे मनुष्यरूप धारण करनेवाले पिप्पलादका उत्तम चरित तुम्हें सुना दिया, यह सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है। गाधि, कौशिक और महामुनि पिप्पलाद – ये तीनों स्मरण किये जानेपर शनैश्चरजनित पीड़ाका नाश कर देते हैं। वे मुनिवर दधीचि, जो परम ज्ञानी, सत्पुरुषोंके प्रिय- तथा महान् शिवभक्त थे, धन्य हैं, जिनके यहाँ स्वयं आत्मज्ञानी महेश्वर पिप्पलाद – नामक पुत्र होकर उत्पन्न हुए।

तात ! यह आख्यान निर्दोष, स्वर्गप्रद, कुग्रहजनित दोषोंका – संहारक, सम्पूर्ण मनोरथोंका पूरक और – शिवभक्तिकी विशेष वृद्धि करनेवाला है।

(अध्याय २१-२५)

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