Shiv puran shatrudra samhita chapter 16 to 18 (शिव पुराण शतरुद्रसंहिता अध्याय 16 से  18 शिवजीके महाकाल आदि दस अवतारोंका तथा ग्यारह रुद्र-अवतारोंका वर्णन)

(शतरुद्रसंहिता)

Shiv puran shatrudra samhita chapter 16 to 18 (शिव पुराण शतरुद्रसंहिता अध्याय 16 से  18 शिवजीके महाकाल आदि दस अवतारोंका तथा ग्यारह रुद्र-अवतारोंका वर्णन)

 

:-तदनन्तर यक्षेश्वरावतारकी बात कहकर नन्दीश्वरने कहा-मुने ! अब शंकरजीके उपासनाकाण्डद्वारा सेवित महाकाल आदि दस अवतारोंका वर्णन भक्तिपूर्वक श्रवण करो। उनमें पहला अवतार ‘महाकाल’ नामसे प्रसिद्ध है, जो सत्पुरुषोंको भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है। उस अवतारकी शक्ति भक्तोंकी मनोवांछा पूर्ण करनेवाली महाकाली हैं। दूसरा ‘तार’ नामक अवतार हुआ, जिसकी शक्ति तारादेवी हुईं।

 

वे दोनों भुक्ति-मुक्तिके प्रदाता तथा अपने सेवकोंके लिये सुखदायक हैं। ‘बाल भुवनेश’ नामसे तीसरा अवतार हुआ। उसमें बाला भुवनेशी शिवा शक्ति हुईं, जो सज्जनोंको सुख देनेवाली हैं। चौथा भक्तोंके लिये सुखद तथा भोग-मोक्षप्रदायक ‘षोडश श्रीविद्येश’ नामक अवतार हुआ और षोडशी श्रीविद्या शिवा उसकी शक्ति हुईं। पाँचवाँ अवतार ‘भैरव’ नामसे प्रसिद्ध हुआ, जो सर्वदा भक्तोंकी कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है। इस अवतारकी शक्तिका नाम है भैरवी गिरिजा, जो अपने उपासकोंकी अभीष्ट- दायिनी हैं। छठा शिवावतार ‘छिन्नमस्तक ‘ नामसे कहा जाता है और भक्तकामप्रदा गिरिजाका नाम छिन्नमस्ता है।

 

सम्पूर्ण मनोरथोंके दाता शम्भुका सातवाँ अवतार ‘धूमवान्’ नामसे विख्यात हुआ। उस अवतारमें श्रेष्ठ उपासकोंकी लालसा पूर्ण करनेवाली शिवा धूमावती हुईं। शिवजीका आठवाँ सुखदायक अवतार ‘बगलामुख’ है। उसकी शक्ति महान् आनन्ददायिनी बगलामुखी नामसे विख्यात हुईं। नवाँ शिवावतार ‘मातंग’ नामसे कहा जाता है। उस समय सम्पूर्ण अभिलाषाओंको पूर्ण करनेवाली शर्वाणी मातंगी हुईं।

 

शम्भुके भुक्ति-मुक्तिरूप फल प्रदान करनेवाले दसवें अवतारका नाम ‘कमल’ है, जिसमें अपने भक्तोंका सर्वथा पालन करनेवाली गिरिजा कमला कहलायीं। ये ही शिवजीके दस अवतार हैं। ये सब-के-सब भक्तों तथा सत्पुरुषोंके लिये सुखदायक तथा भोग-मोक्षके प्रदाता हैं। जो लोग महात्मा शंकरके इन दसों अवतारोंकी निर्विकारभावसे सेवा करते हैं, उन्हें ये नित्य नाना प्रकारके सुख देते रहते हैं।

 

मुने ! इस प्रकार मैंने दसों अवतारोंका माहात्म्य वर्णन कर दिया। तन्त्रशास्त्रमें तो यह सर्वकामप्रद बतलाया गया है। मुने ! इन शक्तियोंकी भी अद्भुत महिमा है। तन्त्र आदि शास्त्रोंमें इस महिमाका सर्वकामप्रदरूपसे वर्णन किया गया है। ये नित्य दुष्टोंको दण्ड देनेवाली और ब्रह्मतेजकी विशेषरूपसे वृद्धि करनेवाली हैं।

 

ब्रह्मन् ! इस प्रकार मैंने तुमसे महेश्वरके महाकाल आदि दस शुभ अवतारोंका शक्तिसहित वर्णन कर दिया। जो मनुष्य समस्त शिवपर्वोंके अवसरपर इस परम पावन कथाका भक्तिपूर्वक पाठ करता है, वह शिवजीका परम प्यारा हो जाता है। (इस आख्यानका पाठ करनेसे) ब्राह्मणके ब्रह्मतेजकी वृद्धि होती है, क्षत्रिय विजय लाभ करता है, वैश्य धनपति हो जाता है और शूद्रको सुखकी प्राप्ति होती है। स्वधर्मपरायण शिवभक्तोंको यह चरित सुननेसे सुख प्राप्त होता है और उनकी शिवभक्ति विशेषरूपसे बढ़ जाती है।

मुने ! अब मैं शंकरजीके एकादश श्रेष्ठ अवतारोंका वर्णन करता हूँ, सुनो। उन्हें श्रवण करनेसे असत्यादिजनित बाधा पीड़ा नहीं पहुँचा सकती। पूर्वकालकी बात है, एक बार इन्द्र आदि समस्त देवता दैत्योंसे पराजित हो गये। तब वे भयभीत हो अपनी पुरी अमरावतीको छोड़कर भाग खड़े हुए। यों दैत्योंद्वारा अत्यन्त पीडित हुए वे सभी देवता कश्यपजीके पास गये। वहाँ उन्होंने परम व्याकुलतापूर्वक हाथ जोड़ एवं मस्तक झुकाकर उनके चरणोंमें अभिवादन किया और उनका भलीभाँति स्तवन करके आदरपूर्वक अपने आनेका कारण प्रकट किया तथा दैत्योंद्वारा पराजित होनेसे उत्पन्न हुए अपने सारे दुःखोंको कह सुनाया।

 

तात ! तब उनके पिता कश्यपजी देवताओंकी उस कष्ट-कहानीको सुनकर अधिक दुःखी नहीं हुए; क्योंकि उनकी बुद्धि शिवजीमें आसक्त थी। मुने ! उन शान्तबुद्धि मुनिने धैर्य धारण करके देवताओंको आश्वासन दिया और स्वयं परम हर्षपूर्वक विश्वनाथपुरी काशीको चल पड़े।

 

वहाँ पहुँचकर उन्होंने गंगाजीके जलमें स्नान करके अपना नित्य-नियम पूरा किया और फिर आदरपूर्वक उमासहित सर्वेश्वर भगवान् विश्वनाथकी भलीभाँति अर्चना की। तदनन्तर शम्भुदर्शनके उद्देश्यसे एक शिवलिंगकी स्थापना करके वे देवताओंके हितार्थ परम प्रसन्नतापूर्वक घोर तप करने लगे।

 

मुने ! शिवजीके चरणकमलोंमें आसक्त मनवाले धैर्यशाली मुनिवर कश्यपको जब यों तप करते हुए बहुत अधिक समय व्यतीत हो गया, तब सत्पुरुषोंके गतिस्वरूप भगवान् शंकर अपने चरणोंमें तल्लीन मनवाले कश्यप ऋषिको वर देनेके लिये वहाँ प्रकट हुए। भक्तवत्सल महेश्वर परम प्रसन्न तो थे ही, अतः वे अपने भक्त मुनिवर कश्यपसे बोले- ‘वर माँगो।’ उन महेश्वरको देखते ही प्रसन्न बुद्धिवाले देवताओंके पिता कश्यपजी हर्षमग्न हो गये और हाथ जोड़कर उनके चरणोंमें नमस्कार करके स्तुति करते हुए यों बोले- ‘महेश्वर ! मैं सर्वथा आपका शरणागत हूँ।

 

स्वामिन् ! देवताओंके दुःखका विनाश करके मेरी अभिलाषा पूर्ण कीजिये। देवेश ! मैं पुत्रोंके दुःखसे विशेष दुःखी हूँ, अतः ईश ! मुझे सुखी कीजिये; क्योंकि आप देवताओंके सहायक हैं। नाथ! महाबली दैत्योंने देवताओं और यक्षोंको पराजित कर दिया है, इसलिये शम्भो ! आप मेरे पुत्ररूपसे प्रकट होकर देवताओंके लिये आनन्ददाता बनिये।’

नन्दीश्वरजी कहते हैं-मुने ! कश्यपजीके ऐसा कहनेपर सर्वेश्वर भगवान् शंकर उनसे ‘तथेति-ऐसा ही होगा’ यों कहकर उनके सामने वहीं अन्तर्धान हो गये।

तब कश्यप भी महान् आनन्दके साथ तुरंत ही अपने स्थानको लौट गये। वहाँ उन्होंने वह सारा वृत्तान्त आदरपूर्वक देवताओंसे कह सुनाया। तदनन्तर भगवान् शंकर अपना वचन सत्य करनेके लिये कश्यपद्वारा सुरभीके पेटसे ग्यारह रूप धारण करके प्रकट हुए। उस समय महान् उत्सव मनाया गया। सारा जगत् शिवमय हो गया। कश्यपमुनिके साथ-साथ सभी देवता हर्षविभोर हो गये। उनके नाम रखे गये-कपाली, पिंगल, भीम, विरूपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, अहिर्बुध्न्य, शम्भु, चण्ड तथा भव। ये ग्यारहों रुद्र सुरभीके पुत्र कहलाते हैं। ये सुखके आवासस्थान हैं तथा देवताओंकी कार्यसिद्धिके लिये शिवरूपसे उत्पन्न हुए।

ये कश्यपनन्दन वीरवर रुद्र महान् बल- पराक्रमसम्पन्न थे; इन्होंने संग्राममें देवताओंकी सहायता करके दैत्योंका संहार कर डाला। इन्हीं रुद्रोंकी कृपासे इन्द्र आदि देवगण दैत्योंको जीतकर निर्भय हो गये। उनका मन स्वस्थ हो गया और वे अपना-अपना राज्य-कार्य सँभालने लगे। अब भी शिव-स्वरूपधारी वे सभी महारुद्र देवताओंकी रक्षाके लिये सदा स्वर्गमें विराजमान रहते हैं। तात ! इस प्रकार मैंने तुमसे शंकरजीके ग्यारह रुद्र-अवतारोंका वर्णन कर दिया। ये सभी समस्त लोकोंके लिये सुखदायक हैं। यह निर्मल आख्यान सम्पूर्ण पापोंका विनाशक, धन, यश और आयुका प्रदाता तथा सम्पूर्ण मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला है।

(अध्याय १६-१८)

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