Shiv puran rudra samhita yudh khand chapter 47 to 49 (शिव पुराण रुद्रसंहिता युद्ध  खंड अध्याय 47 से 49 नन्दीश्वरद्वारा शुक्राचार्यका अपहरण और शिवद्वारा उनका निगला जाना, सौ वर्षके बाद शुक्रका शिवलिंगके रास्ते बाहर निकलना, शिवद्वारा उनका ‘शुक्र’ नाम रखा जाना, शुक्रद्वारा जपे गये मृत्युंजय- मन्त्र और शिवाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रका वर्णन, शिवद्वारा अन्धकको वर-प्रदान)

(रुद्रसंहिता, पंचम (युद्ध) खण्ड)

Shiv puran rudra samhita yudh khand chapter 47 to 49 (शिव पुराण रुद्रसंहिता युद्ध  खंड अध्याय 47 से 49 नन्दीश्वरद्वारा शुक्राचार्यका अपहरण और शिवद्वारा उनका निगला जाना, सौ वर्षके बाद शुक्रका शिवलिंगके रास्ते बाहर निकलना, शिवद्वारा उनका ‘शुक्र’ नाम रखा जाना, शुक्रद्वारा जपे गये मृत्युंजय- मन्त्र और शिवाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रका वर्णन, शिवद्वारा अन्धकको वर-प्रदान)

 

व्यासजीने पूछा- महाबुद्धिमान् सनत्कुमार जी  बहुत ही महान् भयंकर एवं रोमांचकारी संग्राम चल रहा था, उस समय त्रिपुरारि शंकरने दैत्यगुरु विद्वान् शुक्राचार्यको निगल लिया था- यह घटना मैंने संक्षेपमें ही सुनी थी। अब आप उसे विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये। पिनाकधारी शिवके उदरमें जाकर उन महायोगी शुक्राचार्यने क्या किया था ? शम्भुकी जठराग्निने उन्हें जलाया क्यों नहीं ?

 

भृगुनन्दन बुद्धिमान् शुक्र भी तो कल्पान्तकालीन अग्निके समान उग्र तेजस्वी थे। वे शम्भुके जठर-पंजरसे कैसे निकले ? उन्होंने कैसे और कितने कालतक आराधना की थी? तात ! उन्हें जो मृत्युका शमन करनेवाली पराविद्या प्राप्त हुई थी, वह विद्या कौन-सी है, जिससे मृत्युका निवारण हो जाता है? मुने ! लीलाविहारी देवाधिदेव भगवान् शंकरके त्रिशूलसे छूटे हुए अन्धकको गणाध्यक्षताकी प्राप्ति कैसे हुई ? तात ! मुझे शिवलीलामृत श्रवण करनेकी विशेष लालसा है, अतः आप मुझपर कृपा करके वह सारा वृत्तान्त पूर्णरूपसे वर्णन कीजिये।

ब्रह्माजी कहते हैं- अमिततेजस्वी व्यासजीके इन वचनोंको सुनकर सनत्कुमार शिवजीके चरणकमलोंका स्मरण करके कहने लगे।

सनत्कुमारजीने कहा- मुनिवर ! भगवान् शंकरके प्रमथोंकी जब अत्यन्त विजय होने लगी, तब अन्धक घबराकर शुक्राचार्यजीकी शरणमें गया और उसने गिड़गिड़ाकर मृतसंजीवनी विद्याके द्वारा मरे हुए असुरोंको जीवित करनेकी प्रार्थना की। इसपर शुक्राचार्यने शरणागतधर्मकी रक्षा करना उचित समझा।

फिर तो वे युद्धस्थलमें गये और आदरपूर्वक विद्याके स्वामी शंकरका स्मरण करके एक-एक दैत्यपर मृतसंजीवनी विद्याका प्रयोग करने लगे। उस विद्याका प्रयोग होते ही वे सभी दैत्य-दानव वीर एक साथ ही हथियार लिये हुए इस प्रकार उठ खड़े हुए मानो अभी सोकर उठे हों। जैसे पूर्णतया अभ्यस्त किया हुआ वेद, समरभूमिमें बादल और श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणोंको दिया हुआ धन आपत्तिके समय तुरंत प्रकट हो जाता है, उसी प्रकार वे उठ खड़े हुए।

 

शुक्राचार्यके संजीवनी-प्रयोगसे जब बड़े-बड़े दानव जीवित होकर प्रमथोंको बुरी तरह मारने लगे, तब प्रमथोंने जाकर प्रमथेश्वरेश शिवको यह समाचार सुनाया। तब शिवजीने कहा- ‘नन्दिन् ! तुम अभी तुरंत ही जाओ और दैत्योंके बीचसे द्विजश्रेष्ठ शुक्राचार्यको उसी प्रकार उठा लाओ जैसे बाज लवाको उठा ले जाता है।’

सनत्कुमारजी कहते हैं- महर्षे ! वृषभध्वजके यों कहनेपर नन्दी साँड़के समान बड़े जोरसे गरजे और तुरंत ही सेनाको लाँघकर उस स्थानपर जा पहुँचे जहाँ भृगुवंशके दीपक शुक्राचार्य विराजमान थे। वहाँ समस्त दैत्य हाथोंमें पाश, खड्ग, वृक्ष, पत्थर और पर्वतखण्ड लिये हुए उनकी रक्षा कर रहे थे। यह देखकर बलशाली नन्दीने उन दैत्योंको विक्षुब्ध करके शुक्राचार्यका उसी प्रकार अपहरण कर लिया, जैसे शरभ हाथीको उठा ले जाता है।

 

महाबली नन्दीद्वारा पकड़े जानेपर शुक्राचार्यके वस्त्र खिसक गये। उनके आभूषण गिरने लगे और केश खुल गये। तब देवशत्रु दानव उन्हें छुड़ानेके लिये सिंहनाद करते हुए नन्दीके पीछे दौड़े और जैसे मेघ जलकी वर्षा करते हैं, उसी तरह नन्दीश्वरके ऊपर वज्र, त्रिशूल, तलवार, फरसा, बरेंठी और गोफन आदि अस्त्रोंकी उग्र वृष्टि करने लगे।

 

तब उस देवासुर-संग्रामके विकराल रूप धारण करनेपर गणाधिराज नन्दीने अपने मुखकी आगसे सैकड़ों शस्त्रोंको भस्म कर दिया और उन भृगुनन्दनको दबोचकर शत्रुदलको व्यथित करते हुए वे शिवजीके समीप आ पहुँचे तथा शीघ्र ही उन्हें निवेदित करते हुए बोले- ‘भगवन्! ये शुक्राचार्य उपस्थित हैं।’ तब भूतनाथ देवाधिदेव शंकरने पवित्र पुरुषद्वारा प्रदान किये हुए उपहारकी भाँति शुक्राचार्यको पकड़ लिया और बिना कुछ कहे उन्हें फलकी तरह मुखमें डाल लिया। उस समय समस्त असुर उच्चस्वरसे हाहाकार करने लगे।

व्यासजी ! जब गिरिजेश्वरने शुक्राचार्यको निगल लिया, तब दैत्योंकी विजयकी आशा जाती रही। उस समय उनकी दशा सूँडरहित गजराज, सींगहीन साँड़, मस्तकविहीन देह, अध्ययनरहित ब्राह्मण, उद्यमहीन प्राणी, भाग्यहीनके उद्यम, पतिरहित स्त्री, फलवर्जित बाण, पुण्यहीनोंकी आयु, व्रतरहित वेदाध्ययन, एकमात्र वैभवशक्तिके बिना निष्फल हुए कर्मसमूह, शूरताहीन क्षत्रिय और सत्यके बिना धर्मसमुदायकी भाँति शोचनीय हो गयी। दैत्योंका सारा उत्साह जाता रहा।

 

तब अन्धकने महान् दुःख प्रकट करते हुए अपने शूरवीरोंको बहुत उत्साहित किया और कहा- ‘वीरो! जो रणांगण छोड़कर भाग जाते हैं, उनकी ख्याति अपयशरूपी कालिमासे मलिन हो जाती है और उन्हें इस लोकमें तथा परलोकमें-कहीं भी सुख नहीं मिलता। यदि पुनर्जन्मरूपी मलका अपहरण करनेवाले धरातीर्थ – रणतीर्थमें अवगाहन कर लिया जाय तो अन्य तीर्थोंमें स्नान, दान और तपकी क्या आवश्यकता है अर्थात् इनका फल रणभूमिमें प्राणत्याग करनेसे ही प्राप्त हो जाता है।’

 

दैत्यराजके इस वचनको पूर्णरूपसे धारण करके वे दैत्य तथा दानव रणभेरी बजाकर रणभूमिमें प्रमथगणोंपर टूट पड़े और उन्हें मथने लगे तथा बाण, खड्ग, वज्र-सरीखे कठोर पत्थर, भुशुण्डी, भिन्दिपाल, शक्ति, भाले, फरसे, खट्वांग, पट्टिश, त्रिशूल, लकुट और मुसलोंद्वारा परस्पर प्रहार करते हुए भयंकर मार-काट मचाने लगे। इस प्रकार अत्यन्त घमासान युद्ध हुआ।

 

इसी बीच विनायक, स्कन्द, नन्दी, सोमनन्दी, वीर नैगमेय और महाबली वैशाख आदि उग्र गणोंने त्रिशूल, शक्ति और बाणसमूहोंकी धारावाहिक वर्षा करके अन्धकको अन्धा बना दिया। फिर तो प्रमथों तथा असुरोंकी सेनाओंमें महान् कोलाहल मच गया। उस घोर शब्दको सुनकर शम्भुके उदरमें स्थित शुक्राचार्य आश्रयरहित वायुकी भाँति निकलनेका मार्ग ढूँढ़ते हुए चक्कर काटने लगे।

उस समय उन्हें रुद्रके उदरमें पातालसहित सातों लोक, ब्रह्मा, नारायण, इन्द्र, आदित्य और अप्सराओंके विचित्र भुवन तथा वह प्रमथासुर-संग्राम भी दीख पड़ा। इस प्रकार वे सौ वर्षोंतक शिवजीकी कुक्षिमें चारों ओर भ्रमण करते रहे; परंतु उन्हें उसी प्रकार कोई छिद्र नहीं दीख पड़ा, जैसे दुष्टकी दृष्टि सदाचारीके छिद्रको नहीं देख पाती।

 

तब भृगुनन्दनने शैवयोगका आश्रय ले एक मन्त्रका जप किया। उस मन्त्रके प्रभावसे वे शम्भुके जठरपंजरसे शुक्ररूपमें लिंगमार्गसे बाहर निकले। तब उन्होंने शिवजीको प्रणाम किया। गौरीने उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकार कर लिया और विघ्नरहित बना दिया। तदनन्तर करुणासागर महेश्वर भृगुनन्दन शुक्राचार्यको वीर्यके रास्ते निकला हुआ देखकर मुसकराते हुए बोले।

महेश्वरने कहा- भृगुनन्दन ! चूँकि तुम मेरे लिंगमार्गसे शुक्रकी तरह निकले हो, इसलिये अब तुम शुक्र कहलाओगे। जाओ, अब तुम मेरे पुत्र हो गये।

सनत्कुमारजी कहते हैं-मुनिवर ! देवेश्वर शंकरके यों कहनेपर सूर्यके सदृश कान्तिमान् शुक्रने पुनः शिवजीको प्रणाम किया और वे हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे।

शुक्रने कहा- भगवन् ! आपके पैर, सिर, नेत्र, हाथ और भुजाएँ अनन्त हैं। आपकी मूर्तियोंकी भी गणना नहीं हो सकती। ऐसी दशामें मैं आप स्तुत्यकी सिर झुकाकर किस प्रकार स्तुति करूँ। आपकी आठ मूर्तियाँ बतायी जाती हैं और आप अनन्तमूर्ति भी हैं। आप सम्पूर्ण सुरों और असुरोंकी कामना पूर्ण करनेवाले हैं तथा अनिष्ट-दृष्टिसे देखनेपर आप संहार भी कर डालते हैं। ऐसे स्तवनके योग्य आपकी मैं किस प्रकार स्तुति करूँ।

सनत्कुमारजी कहते हैं-मुने ! इस प्रकार शुक्रने शिवजीकी स्तुति करके उन्हें नमस्कार किया और उनकी आज्ञासे वे पुनः दानवोंकी सेनामें प्रविष्ट हुए, ठीक उसी तरह जैसे चन्द्रमा मेघोंकी घटामें प्रवेश करते हैं। व्यासजी ! इस प्रकार रणभूमिमें शंकरने जिस तरह शुक्रको निगल लिया था, वह वृत्तान्त तो तुम्हें सुना दिया। अब शम्भुके उदरमें शुक्रने जिस मन्त्रका जप किया था, उसका वर्णन सुनो।

महर्षे ! वह मन्त्र इस प्रकार है-

‘ॐ नमस्ते देवेशाय सुरासुरनमस्कृताय भूतभव्यमहादेवाय हरितपिङ्गललोचनाय बलाय बुद्धिरूपिणे वैयाघ्रवसनच्छदायारणेयाय त्रैलोक्यप्रभवे ईश्वराय हराय हरिनेत्राय युगान्तकरणायानलाय गणेशाय लोकपालाय महाभुजाय महाहस्ताय शूलिने महादंष्ट्रिणे कालाय महेश्वराय अव्ययाय कालरूपिणे नीलग्रीवाय महोदराय गणाध्यक्षाय सर्वात्मने सर्वभावनाय सर्वगाय मृत्युहन्त्रे पारियात्रसुव्रताय ब्रह्मचारिणे वेदान्तगाय तपोऽन्तगाय पशुपतये व्यङ्गाय शूलपाणये वृषकेतवे हरये जटिने शिखण्डिने लकुटिने महायशसे भूतेश्वराय गुहावासिने वीणापणवतालवते अमराय दर्शनीयाय बालसूर्यनिभाय श्मशानवासिने भगवते उमापतये अरिंदमाय भगस्याक्षि- पातिने पूष्णो दशननाशनाय क्रूरकर्तकाय पाशहस्ताय प्रलयकालाय उल्कामुखायाग्निकेतवे मुनये दीप्ताय विशाम्पतये उन्नयते जनकाय चतुर्थकाय लोकसत्तमाय वामदेवाय वाग्दाक्षिण्याय वामतो भिक्षवे भिक्षुरूपिणे जटिने स्वयं जटिलाय शक्रहस्तप्रतिस्तम्भकाय वसूनां स्तम्भकाय क्रतवे क्रतुकराय कालाय मेधाविने मधुकराय चलाय वानस्पत्याय वाजसनेतिसमाश्रमपूजिताय जगद्धात्रे जगत्कर्ते पुरुषाय शाश्वताय ध्रुवाय धर्माध्यक्षाय त्रिवर्त्मने भूतभावनाय त्रिनेत्राय बहुरूपाय सूर्यायुतसमप्रभाय देवाय सर्वतूर्यनिनादिने सर्वबाधाविमोचनाय बन्धनाय सर्वधारिणे धर्मोत्तमाय पुष्पदन्तायाविभागाय मुखाय सर्वहराय हिरण्यश्रवसे द्वारिणे भीमाय भीमपराक्रमाय ॐ नमो नमः ।*

इसी श्रेष्ठ मन्त्रका जप करके शुक्र शम्भुके जठर-पंजरसे लिंगके रास्ते उत्कट वीर्यकी तरह निकले थे। उस समय गौरीने उन्हें पुत्ररूपसे अपनाया और जगदीश्वर शिवने अजर-अमर बना दिया। तब वे दूसरे शंकरके सदृश शोभा पाने लगे। तीन हजार वर्ष व्यतीत होनेके पश्चात् वे ही वेदनिधि मुनिवर शुक्र पुनः इस भूतलपर महेश्वरसे उत्पन्न हुए। उस समय उन्होंने धैर्यशाली एवं तपस्वी दानवराज अन्धकको देखा। उसका शरीर सूख गया था और वह त्रिशूलपर लटका हुआ परमेश्वर शिवका ध्यान कर रहा था। (वह शिवजीके १०८ नामोंका इस प्रकार स्मरण कर रहा था -)

महादेव – देवताओंमें महान्, विरूपाक्ष – विकराल नेत्रोंवाले, चन्द्रार्धकृतशेखर – मस्तकपर अर्धचन्द्र धारण करनेवाले, अमृत – अमृतस्वरूप, शाश्वत – सनातन, स्थाणु- समाधिस्थ होनेपर ठूंठके समान स्थिर, नीलकण्ठ-गलेमें नील चिह्न धारण करनेवाले, पिनाकी-पिनाक नामक धनुष धारण करनेवाले, वृषभाक्ष-वृषभके नेत्र- सरीखे विशाल नेत्रोंवाले, महाज्ञेय – ‘महान्’ रूपसे जाननेयोग्य, पुरुष – अन्तर्यामी, सर्वकामद-सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाले, कामारि-कामदेवके शत्रु,

कामदहन-कामदेवको दग्ध कर देनेवाले,कामरूप-इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले, कपर्दी-विशाल जटाओंवाले,विरूप – विकराल रूपधारी, गिरिश- गिरिवर कैलासपर शयन करनेवाले, भीम -सृक्की-बड़े-बड़े भयंकर रूपवाले,जबड़ोंवाले, रक्तवासा-लाल वस्त्रधारी,योगी-योगके ज्ञाता, कालदहन-कालको भस्म कर देनेवाले, त्रिपुरघ्न- त्रिपुरोंके संहारकर्ता, कपाली- कपाल धारण

 

करनेवाले, गूढव्रत-जिनका व्रत प्रकट नहीं होता, गुप्तमन्त्र-गोपनीय मन्त्रोंवाले, गम्भीर-गम्भीर स्वभाववाले,भावगोचर-भक्तोंकी भावनाके अनुसार प्रकट होनेवाले, अणिमादिगुणाधार -अणिमा आदि सिद्धियोंके अधिष्ठान,त्रिलोकैश्वर्यदायक – त्रिलोकीका ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले, वीर-बलशाली, वीरहन्ता -शत्रुवीरोंको मारनेवाले, घोर – दुष्टोंके लिये भयंकर, विरूप-विकट रूप धारण करनेवाले, मांसल-मोटे-ताजे शरीरवाले,पटु-निपुण, महामांसाद – श्रेष्ठ फलका गूदा खानेवाले, उन्मत्त-मतवाले, भैरव-कालभैरवस्वरूप, महेश्वर – देवेश्वरोंमें भी श्रेष्ठ,

 

त्रैलोक्यद्रावण-त्रिलोकीका विनाश करनेवाले, लुब्ध-स्वजनोंके लोभी,लुब्धक – महाव्याधस्वरूप, यज्ञसूदन – दक्ष- यज्ञके विनाशक, कृत्तिकासुतयुक्त – कृत्तिकाओंके पुत्र (स्वामिकार्तिक)-से युक्त, उन्मत्त-उन्मत्तका-सा वेष धारण करनेवाले, कृत्तिवासा-गजासुरके चमड़ेको ही वस्त्ररूपमें धारण करनेवाले, गजकृत्तिपरीधान-हाथीका चर्म लपेटनेवाले, क्षुब्ध-भक्तोंका कष्ट देखकर क्षुब्ध हो जानेवाले, भुजगभूषण-सर्पोको भूषणरूपमें धारण करनेवाले, दत्तालम्ब – भक्तोंके अवलम्बदाता, वेताल-वेतालस्वरूप, घोर-घोर, शाकिनीपूजित – शाकिनियों- द्वारा समाराधित, अघोर-अघोरपथके प्रवर्तक, घोरदैत्यघ्न – भयंकर दैत्योंके संहारक, घोरघोष – भीषण शब्द करनेवाले,

 

वनस्पति-वनस्पतिस्वरूप, भस्मांग- शरीरमें भस्म रमानेवाले, जटिल – जटाधारी, शुद्ध – परम पावन, भेरुण्डशतसेवित – सैकड़ों भेरुण्डनामक पक्षियोंद्वारा सेवित, भूतेश्वर-भूतोंके अधिपति, भूतनाथ – भूतगणोंके स्वामी, पंचभूताश्रित – पंचभूतोंको आश्रय देनेवाले, खग- गगनविहारी, क्रोधित – क्रोधयुक्त, निष्ठुर – दुष्टोंपर कठोर व्यवहार करनेवाले, चण्ड- प्रचण्ड पराक्रमी, चण्डीश-चण्डीके प्राणनाथ, चण्डिकाप्रिय-चण्डिकाके प्रियतम, चण्डतुण्ड-अत्यन्त कुपित मुखवाले, गरुत्मान्-गरुडस्वरूप, निस्त्रिश-खड्गस्वरूप, शवभोजन-

 

शवका भोग लगानेवाले, लेलिहान-कुद्ध होनेपर जीभ लपलपानेवाले, महारौद्र- अत्यन्त भयंकर, मृत्यु-मृत्युस्वरूप, मृत्योरगोचर- मृत्युकी भी पहुँचसे परे, मृत्योर्मृत्यु – मृत्युके भी काल, महासेन – विशाल सेनावाले कार्तिकेय-स्वरूप, श्मशानारण्यवासी – श्मशान एवं अरण्यमें विचरनेवाले, राग-प्रेमस्वरूप, विराग – आसक्तिरहित, रागान्ध-प्रेममें मस्त रहनेवाले, वीतराग- वैरागी, शतार्चि- तेजकी असंख्य चिनगारियोंसे युक्त, सत्त्व-सत्त्वगुणरूप, रजः – रजोगुणरूप, तमः – तमोगुणरूप, अधर्म-अधर्मरूप, धर्म-धर्मस्वरूप, वासवानुज-इन्द्रके छोटे भाई उपेन्द्रस्वरूप, सत्य-सत्यरूप, असत्य-सत्यसे भी परे, सद्रूप-उत्तम रूपवाले, असद्रूप- बीभत्स रूपधारी,

करनेवाले, अहेतुक-हेतुरहित, अर्धनारीश्वर-आधा पुरुष और आधा स्त्रीका रूप धारण भानुकोटिशतप्रभ-कोटिशत भानु – सूर्यस्वरूप, सूर्योके समान प्रभाशाली, यज्ञ- यज्ञस्वरूप, यज्ञपति-यज्ञेश्वर, रुद्र – संहारकर्ता, ईशान-ईश्वर, वरद-वरदाता, शिव- कल्याणस्वरूप। परमात्मा शिवकी इन १०८ मूर्तियोंका ध्यान करनेसे वह दानव उस महान् भयसे मुक्त हो गया।

उस समय प्रसन्न हुए जटाधारी शंकरने उसे मुक्त करके उस त्रिशूलके अग्रभागसे उतार लिया और दिव्य अमृतकी वर्षासे अभिषिक्त कर दिया। तत्पश्चात् महात्मा महेश्वर उसने जो कुछ किया था, उस सबका सान्त्वना- पूर्वक वर्णन करते हुए उस महादैत्य अन्धकसे बोले।

ईश्वरने कहा- हे दैत्येन्द्र ! मैं तेरे इन्द्रिय- निग्रह, नियम, शौर्य और धैर्यसे प्रसन्न हो गया हूँ; अतः सुव्रत ! अब तू कोई वर माँग ले। दैत्योंके राजाधिराज ! तूने निरन्तर मेरी आराधना की है, इससे तेरा सारा कल्मष धुल गया और अब तू वर पानेके योग्य हो गया है। इसीलिये मैं तुझे वर देनेके लिये आया हूँ; क्योंकि तीन हजार वर्षोंतक बिना खाये-पीये प्राण धारण किये रहनेसे तूने जो पुण्य कमाया है, उसके फलस्वरूप तुझे सुखकी प्राप्ति होनी चाहिये।

सनत्कुमारजी कहते हैं-मुने ! यह सुनकर अन्धकने भूमिपर अपने घुटने टेक दिये और फिर वह हाथ जोड़कर काँपता हुआ भगवान् उमापतिसे बोला।

अन्धकने कहा- भगवन्! आपकी महिमा जाने बिना मैंने पहले रणांगणमें हर्षगद्गद वाणीसे आपको जो दीन, हीन तथा नीच-से-नीच कहा है और मूर्खतावश लोकमें जो-जो निन्दित कर्म किया है, प्रभो ! उस सबको आप अपने मनमें स्थान न दें अर्थात् उसे भूल जायँ। महादेव ! मैं अत्यन्त ओछा और दुःखी हूँ। मैंने कामदोषवश पार्वतीके विषयमें भी जो दूषित भावना कर ली थी, उसे आप क्षमा कर दें।

 

आपको तो अपने कृपण, दुःखी एवं दीन भक्तपर सदा ही विशेष दया करनी चाहिये। मैं उसी तरहका एक दीन भक्त हूँ और आपकी शरणमें आया हूँ। देखिये, मैंने आपके सामने अंजलि बाँध रखी है। अब आपको मेरी रक्षा करनी चाहिये। ये जगज्जननी पार्वतीदेवी भी मुझपर प्रसन्न हो जायँ और सारे क्रोधको त्यागकर मुझे कृपादृष्टिसे देखें। चन्द्रशेखर ! कहाँ तो इनका भयंकर क्रोध और कहाँ मैं तुच्छ दैत्य ?

चन्द्रमौलि ! मैं किसी प्रकार उसको सहन नहीं कर सकता। शम्भो ! कहाँ तो परम उदार आप और कहाँ बुढ़ापा, मृत्यु तथा काम-क्रोध आदि दोषोंके वशीभूत.मैं ? (अर्थात् मेरी आपके साथ क्या तुलना है?) महेश्वर ! आपके ये युद्धकला-निपुण महाबली वीर पुत्र मेरी कृपणतापर विचार करके अब क्रोधके वशीभूत मत हों। तुषार, हार, चन्द्रकिरण, शंख, कुन्दपुष्प और चन्द्रमाके-से वर्णवाले शिव ! मैं इन पार्वतीको गुरुताके गौरववश नित्य मातृ-दृष्टिसे देखूँ ! मैं नित्य आप दोनोंका भक्त बना रहूँ।

 

देवताओंके साथ होनेवाला मेरा वैर दूर हो जाय तथा मैं शान्तचित्त हो योग-चिन्तन करता हुआ गणोंके साथ निवास करूँ। महेशान ! आपकी कृपासे मैं उत्पन्न हुए इस विरोधी दानवभावका पुनः कभी स्मरण न करूँ, यही उत्तम वर मुझे प्रदान कीजिये।

सनत्कुमारजी कहते हैं- मुनिसत्तम ! इतनी बात कहकर वह दैत्यराज माता पार्वतीकी ओर देखकर त्रिनयन शंकरका ध्यान करता हुआ मौन हो गया। तब रुद्रने उसकी ओर कृपादृष्टिसे देखा। उनकी दृष्टि पड़ते ही उसे अपने पूर्ववृत्तान्त तथा अद्भुत जन्मका स्मरण हो आया। उस घटनाका स्मरण होते ही उसका मनोरथ पूर्ण हो गया। फिर तो माता-पिता (उमा-महेश्वर)- को प्रणाम करके वह कृतकृत्य हो गया। उस समय पार्वती तथा बुद्धिमान् शंकरने उसका मस्तक सूंघकर प्यार किया।

 

इस प्रकार अन्धकने प्रसन्न हुए चन्द्रशेखरसे अपना सारा मनोरथ प्राप्त कर लिया। मुने ! महादेवजीकी कृपासे अन्धकको जिस प्रकार परम सुखद गणाध्यक्ष पद प्राप्त हुआ था, वह सारा-का-सारा पुरातन वृत्तान्त मैंने सुना दिया और मृत्युंजय मन्त्रका भी वर्णन कर दिया। यह मन्त्र मृत्युका विनाशक और सम्पूर्ण कामनाओंका फल प्रदान करनेवाला है। इसे प्रयत्नपूर्वक जपना चाहिये।

(अध्याय ४७-४९)

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