Shiv puran rudra samhita yudh khand chapter 43 (शिव पुराण रुद्रसंहिता युद्ध  खंड अध्याय 43 हिरण्यकशिपुकी तपस्या और ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति)

(रुद्रसंहिता, पंचम (युद्ध) खण्ड)

Shiv puran rudra samhita yudh khand chapter 43 (शिव पुराण रुद्रसंहिता युद्ध  खंड अध्याय 43 हिरण्यकशिपुकी तपस्या और ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति)

सनत्कुमारजी कहते हैं- व्यासजी ! इधर वराहरूपधारी श्रीहरिके द्वारा इस प्रकार भाईके मारे जानेपर हिरण्यकशिपु शोक और क्रोधसे संतप्त हो उठा। श्रीहरिके साथ वैर करना तो उसे रुचता ही था, अतः उसने संहारप्रेमी वीर असुरोंको प्रजाका विनाश करनेके लिये आज्ञा दे दी। तब वे संहारप्रिय असुर स्वामीकी आज्ञाको सिर चढ़ाकर देवताओं और प्रजाओंका विनाश करने लगे।

 

इस प्रकार जब उन दुष्ट- चित्तवाले असुरोंद्वारा सारा देवलोक तहस-नहस कर दिया गया, तब देवता स्वर्गको छोड़कर गुप्तरूपसे भूतलपर विचरने लगे। उधर भाईकी मृत्युसे दुःखी हुए हिरण्यकशिपुने भाईको जलांजलि देकर उसकी स्त्री आदिको ढाढ़स बंधाया। तत्पश्चात् उस दैत्यराजने अपने लिये विचार किया कि ‘मैं अजेय, अजर और अमर हो जाऊँ। मेरा ही एकच्छत्र साम्राज्य रहे और मेरा प्रतिद्वन्द्वी कोई न रह जाय।’ यों धारणा बनाकर वह मन्दराचलपर गया और वहाँ एक गुफामें अत्यन्त घोर तपस्या करने लगा।

 

उस समय वह पैरके अँगूठेके बल खड़ा था। उसकी भुजाएँ ऊपरको उठी थीं और दृष्टि आकाशकी ओर लगी थी। उसकी तपस्यासे संतप्त होकर देवताओंका मुख विकृत हो उठा। वे स्वर्गको छोड़कर ब्रह्मलोकमें जा पहुँचे और उन्होंने ब्रह्मासे अपना दुखड़ा कह सुनाया। व्यासजी ! उन देवताओंके इस प्रकार कहनेपर स्वयम्भू ब्रह्मा भृगु, दक्ष आदिके साथ उस दैत्येश्वरके आश्रमपर गये।

 

तब जिसने अपने तपसे सम्पूर्ण लोकोंको संतप्त कर दिया था, उस हिरण्यकशिपुने वर देनेके लिये आये हुए पद्मयोनि ब्रह्माको अपने सामने उपस्थित देखा। उधर पितामहने भी उससे कहा – ‘वर माँग।’ तब जिसकी बुद्धि मोहित नहीं हुई थी, उस असुरने विधाताकी उस मधुर वाणीको सुनकर इस प्रकार कहा।

हिरण्यकशिपु बोला-ऐश्वर्यशाली प्रजापति ! पितामह ! मैं चाहता हूँ कि स्वर्गमें, भूतलपर, दिनमें, रातमें, ऊपर अथवा नीचे-कहीं भी शस्त्र, अस्त्र, पाश, वज्र, शुष्क वृक्ष, पर्वत, जल, अग्निके रूपमें शत्रुके प्रहारसे, देवता, दैत्य, मुनि, सिद्ध किंबहुना आपद्वारा रचे हुए जीवोंके हाथों मुझे कभी भी मृत्युका भय न हो।

सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने ! हिरण्यकशिपुके वैसे वचन सुनकर पद्मयोनि ब्रह्माके मनमें दयाका भाव जाग्रत् हो उठा। उन्होंने मन-ही-मन विष्णुको प्रणाम करके उससे कहा – ‘दैत्येन्द्र ! मैं तुझपर प्रसन्न हूँ,

अतः तुझे सारी वस्तुएँ प्राप्त होंगी। तूने छियानबे हजार वर्षांतक तप किया है, अब तेरी कामना पूर्ण हो चुकी है; अतः तपसे विरत होकर उठ और दानवोंके राज्यका उपभोग कर।’ ब्रह्माकी वाणी सुनकर हिरण्यकशिपुका मुख प्रसन्नतासे खिल उठा। इस प्रकार जब पितामहने उसे दानव-राज्यपर अभिषिक्त कर दिया, तब वह उन्मत्त हो उठा और त्रिलोकीको नष्ट करनेका विचार करने लगा।

 

फिर तो उसने सम्पूर्ण धर्मोका उच्छेद करके संग्राममें समस्त देवताओंको भी जीत लिया। तब देवता भागकर विष्णुके पास पहुँचे। वहाँ श्रीहरिने देवताओं और मुनियोंकी दुःखगाथा सुनकर उन्हें आश्वासन दिया और शीघ्र ही उस दैत्यके वध करनेका वचन दिया। तब देवता अपने स्थानको लौट गये। तदनन्तर महात्मा विष्णुने ऐसा रूप धारण किया, जो आधा सिंह और आधा मनुष्यका था।

 

वह अत्यन्त भयंकर तथा विकराल दीख रहा था। उसका मुख खूब फैला हुआ था, नासिका बड़ी सुन्दर थी और नख तीखे थे। गर्दनपर जटाएँ लहरा रही थीं। दाढ़ें ही आयुध थे। उससे करोड़ों सूर्योके समान प्रभा छिटक रही थी और उसका प्रभाव प्रलयकालीन अग्निके सदृश था। अधिक कहाँतक कहा जाय, वह रूप जगन्मय था। इसी रूपसे वे भगवान् भास्करके अस्ताचलकी शरण लेनेपर असुरोंकी नगरीमें प्रविष्ट हुए।

 

उन अतुल प्रभावशाली नृसिंहको देखकर सभी दैत्य एक साथ उनपर टूट पड़े। तब उन अद्भुत पराक्रमी नृसिंहने महाबली दैत्योंके साथ युद्ध करके बहुतोंको मार डाला और बहुतोंको पकड़कर तोड़-मरोड़ दिया। फिर वे उस नगरमें घूमने लगे। तब उन सर्वमय सिंहको देखकर दैत्यराजके पुत्र प्रह्लादने राजासे कहा- ‘यह मृगेन्द्र तो जगन्मय दीख रहा है। यह यहाँ किसलिये आया है।’

प्रह्लादने पुनः कहा-पिताजी ! मुझे तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि ये भगवान् अनन्त हैं और नृसिंहका रूप धारण करके आपके नगरमें प्रविष्ट हुए हैं; क्योंकि मुझे इनकी मूर्ति बड़ी विकराल दीख रही है। अतः आप युद्धसे हटकर इनकी शरणमें जाइये। इनसे बढ़कर त्रिलोकीमें दूसरा कोई योद्धा नहीं है, इसलिये आप इन मृगेन्द्रके सामने झुककर अपने राज्यका उपभोग कीजिये।

 

अपने पुत्रकी बात सुनकर उस दुरात्माने उससे कहा- ‘बेटा! क्या तू भयभीत हो गया ?’ अपने पुत्रसे यों कहकर दैत्योंके अधिपति राजा हिरण्यकशिपुने महाबली दैत्योंको आज्ञा देते हुए कहा- ‘वीरो ! तुमलोग इस बेडौल भ्रुकुटि और नेत्रवाले सिंहको पकड़ लो।’ तब स्वामीकी आज्ञासे उन मृगेन्द्रको पकड़नेकी इच्छासे वे सभी बड़े-बड़े दैत्य रणभूमिमें घुसे; परंतु जैसे रूपकी अभिलाषासे अग्निमें प्रवेश करनेवाले पतिंगे जल- भुन जाते हैं, उसी तरह वे सब-के-सब क्षणभरमें ही जलकर भस्म हो गये।

 

दैत्योंके दग्ध हो जानेपर भी वह दैत्यराज सम्पूर्ण शस्त्र, अस्त्र, शक्ति, ऋष्टि, पाश, अंकुश और पावक आदिसे उन मृगेन्द्रके साथ लोहा लेता ही रहा। इस प्रकार बहुत कालतक भयानक युद्ध हुआ। अन्तमें उन नृसिंहने वज्रके समान कठोर अपनी अनेकों भुजाओंसे उस दैत्यको पकड़ लिया और उसे अपने जानुओंपर लिटाकर दानवोंके मर्मको विदीर्ण करनेवाले नखांकुरोंसे उसकी छाती चीर डाली तथा खूनसे लथपथ हुए उसके हृदयकमलको निकाल लिया। फिर तो उसी क्षण उसके प्राणपखेरू उड़ गये।

 

तब भगवान् नृसिंहने बारंबारके आघातसे जिसके सारे अंग चूर-चूर हो गये थे, उस काष्ठभूत दैत्यको छोड़ दिया। उस समय उस देवशत्रुके मारे जानेपर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। उसी अवसरपर प्रह्लादने आकर उनके चरणोंमें सिर झुकाया। तब अद्भुत पराक्रमी विष्णुने प्रह्लादको बुलाकर उन्हें दैत्योंके राज्यपर अभिषिक्त कर दिया और स्वयं अतर्कित गतिको प्राप्त हो गये अर्थात् अन्तर्धान हो गये।

 

तदनन्तर पितामह आदि समस्त सुरेश्वर परम प्रसन्न हो अपना कार्य सिद्ध करनेवाले पूजनीय भगवान् विष्णुको उसी दिशामें प्रणाम करके अपने-अपने धामको चले गये। विप्रवर ! प्रसंगवश मैंने रुद्रसे अन्धककी उत्पत्ति, वराहसे हिरण्याक्षकी मृत्यु, नृसिंहके हाथों उसके भाईका विनाश और प्रह्लादकी राज्य-प्राप्तिका वर्णन कर दिया। द्विजश्रेष्ठ ! अब मैं शिवकी कृपासे प्राप्त हुए अन्धकके प्रभावका, शंकरजीके साथ उसके युद्धका और पीछे जिस प्रकार उसे महेशके गणाध्यक्षपदकी प्राप्ति हुई, उस कथाका वर्णन करता हूँ, सुनो।

(अध्याय ४३)

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