(रुद्रसंहिता, पंचम (युद्ध) खण्ड)
Shiv puran rudra samhita yudh khand chapter 42 (शिव पुराण रुद्रसंहिता युद्ध खंड अध्याय 42 उमाद्वारा शम्भुके नेत्र मूँद लिये जानेपर अन्धकारमें शम्भुके पसीनेसे अन्धकासुरकी उत्पत्ति, हिरण्याक्षकी पुत्रार्थ तपस्या और शिवका उसे पुत्ररूपमें अन्धकको देना, हिरण्याक्षका त्रिलोकीको जीतकर पृथ्वीको रसातलमें ले जाना और वराहरूपधारी विष्णुद्वारा उसका वध)
:-सनत्कुमारजी कहते हैं- व्यासजी ! अब जिस प्रकार अन्धकासुरने परमात्मा शम्भुके गणाध्यक्ष-पदको प्राप्त किया था, महेश्वरके उस मंगलमय चरितको श्रवण करो। मुनीश्वर ! अन्धकासुरने पहले शिवजीके साथ बड़ा घोर संग्राम किया था, परंतु पीछे बारंबार सात्त्विकभावके उद्रेकसे उसने शम्भुको प्रसन्न कर लिया; क्योंकि नाना प्रकारकी लीलाएँ करनेवाले शम्भु शरणागतरक्षक तथा परम भक्तवत्सल हैं। उनका माहात्म्य परम अद्भुत है।
व्यासजीने पूछा-ऐश्वर्यशाली मुनिवर !
वह अन्धक कौन था और भूतलपर किस वीर्यवान्के कुलमें उत्पन्न हुआ था ? दैत्योंमें प्रधान तथा महामनस्वी उस बलवान् अन्धकका स्वरूप कैसा था और वह किसका पुत्र था ? उसने परम तेजस्वी शम्भुकी गणाध्यक्षताको कैसे प्राप्त किया ? यदि अन्धक गणेश्वर हो गया तब तो वह परम धन्यवादका पात्र है।
सनत्कुमारजीने कहा- मुने ! पूर्वकालकी बात है, एक समय भक्तोंपर कृपा करनेवाले तथा देवताओंके चक्रवर्ती सम्राट् भगवान् शंकरको विहार करनेकी इच्छा हुई। तब वे पार्वती और गणोंको साथ ले अपने निवासभूत कैलास पर्वतसे चलकर काशीपुरीमें आये। वहाँ उन्होंने उस पुरीको अपनी राजधानी बनाया और भैरव नामक वीरको उसका
रक्षक नियुक्त किया। फिर पार्वतीजीके साथ रहते हुए वे भक्तजनोंको सुख देनेवाली अनेक प्रकारकी लीलाएँ करने लगे। एक समय वे उसके वरदानके प्रभाववश अनेकों वीराग्रगण्य गणेश्वरों और शिवाके साथ मन्दराचलपर गये और वहाँ भी तरह-तरहकी क्रीडाएँ करने लगे।
एक दिन जब प्रचण्ड पराक्रमी कपर्दी शिव मन्दराचलकी पूर्व दिशामें बैठे थे, उसी समय गिरिजाने नर्मक्रीडावश उनके नेत्र बंद कर दिये। इस प्रकार जब पार्वतीने मूँगे, सुवर्ण और कमलकी प्रभावाले अपने करकमलोंसे हरके नेत्र बंद कर दिये, तब उनके नेत्रोंके मुँद जानेके कारण वहाँ क्षणभरमें ही घोर अन्धकार फैल गया। पार्वतीके हाथोंका महेश्वरके शरीरसे स्पर्श होनेके कारण शम्भुके ललाटमें स्थित अग्निसे संतप्त होकर मदजल प्रकट हो गया और जलकी बहुत-सी बूँदें टपक पड़ीं।
तदनन्तर उन बूँदोंने एक गर्भका रूप धारण कर लिया। उससे एक ऐसा जीव प्रकट हुआ, जिसका मुख विकराल था। वह अत्यन्त भयंकर, क्रोधी, कृतघ्न, अंधा, कुरूप, जटाधारी, काले रंगका, मनुष्यसे भिन्न, बेडौल और सुन्दर बालोंवाला था। उसके कण्ठसे घोर घर-घर शब्द निकल रहा था। वह कभी गाता, कभी हँसता और कभी रोने लगता था तथा जबड़ोंको चाटते हुए नाच रहा था।उस अद्भुत दृश्यवाले जीवके प्रकट होनेपर शिवजी मुसकराकर पार्वतीजीसे बोले।
श्रीमहेश्वरने कहा- ‘प्रिये! मेरे नेत्रोंको मूंदकर तुमने ही तो यह कर्म किया है, फिर तुम उससे भय क्यों कर रही हो?’ शंकरजीके उस वचनको सुनकर गौरी हँस पड़ीं और उनके नेत्रोंपरसे उन्होंने अपने हाथ हटा लिये। फिर तो वहाँ प्रकाश छा गया, परंतु उस प्राणीका रूप भयंकर ही बना रहा और अन्धकारसे उत्पन्न होनेके कारण उसके नेत्र भी अंधे थे। तब वैसे प्राणीको प्रकट हुआ देखकर गौरीने महेश्वरसे पूछा।
गौरीने कहा- भगवन्! मुझे सच-सच बताइये कि हमलोगोंके सामने प्रकट हुआ यह बेडौल प्राणी कौन है। यह तो अत्यन्त भयंकर है। किस निमित्तको लेकर किसने इसकी सृष्टि की है और यह किसका पुत्र है?
सनत्कुमारजी कहते हैं- महर्षे ! जब लीला रचनेवाली तथा तीनों लोकोंकी जननी गौरीने सृष्टिकर्ताकी उस अंधी- सृष्टिके विषयमें यों प्रश्न किया, तब लीलाविहारी भगवान् शंकर अपनी प्रियाके उस वचनको सुनकर कुछ मुसकराये और इस प्रकार बोले।
महेश्वरने कहा- अद्भुत चरित्र रचनेवाली अम्बिके ! सुनो। जब तुमने मेरे नेत्र मूँद लिये थे, उसी समय यह अद्भुत एवं प्रचण्ड पराक्रमी प्राणी मेरे पसीनेसे प्रकट हुआ। इसका नाम अन्धक है। तुम्हीं इसको उत्पन्न करनेवाली हो, अतः सखियोंसहित तुम्हें करुणापूर्वक इसकी गणोंसे यथायोग्य रक्षा करते रहना चाहिये। आर्ये ! इस प्रकार बुद्धिपूर्वक विचार करके ही तुम्हें सब कार्य करना चाहिये।
सनत्कुमारजी कहते हैं-मुने ! अपने स्वामीके ऐसे वचन सुनकर गौरीका हृदय करुणार्द्र हो गया। वे अपनी सखियोंसहित अन्धककी अपने पुत्रकी भाँति नाना प्रकारके उपायोंद्वारा रक्षा करने लगीं। तदनन्तर शिशिर ऋतु आनेपर दैत्य हिरण्याक्ष पुत्रकी कामनासे उसी वनमें आया; क्योंकि उसकी पत्नीने उसके ज्येष्ठ बन्धुकी संतान-परम्पराको देखकर उसे संतानार्थ तपश्चर्याके लिये प्रेरित किया था।
वहाँ वह कश्यपनन्दन हिरण्याक्ष वनका आश्रय ले पुत्र-प्राप्तिके लिये घोर तप करने लगा। उसके मनमें महेश्वरके दर्शनकी इच्छा थी, अतः वह क्रोध आदि दोषोंको अपने काबूमें करके ठूंठकी भाँति निश्चल होकर समाधिस्थ हो गया। द्विजेन्द्र ! तब जिसकी ध्वजामें वृषका चिह्न वर्तमान है तथा जो पिनाक धारण करनेवाले हैं, वे महेश उसकी तपस्यासे पूर्णतया प्रसन्न होकर उसे वर प्रदान करनेके लिये चले और उस स्थानपर पहुँचकर दैत्यप्रवर हिरण्याक्षसे बोले।
महेशने कहा- दैत्यनाथ ! अब तू अपनी इन्द्रियोंका विनाश मत कर। किसलिये तूने इस व्रतका आश्रय लिया है? तू अपना मनोरथ तो प्रकट कर। मैं वरदाता शंकर हूँ; अतः तेरी जो अभिलाषा होगी, वह सब मैं तुझे प्रदान करूँगा।
सनत्कुमारजी कहते हैं- महर्षे ! महेश्वरके उस सरस वचनको सुनकर दैत्यराज हिरण्याक्ष परम प्रसन्न हुआ। उसने गिरीशके चरणोंमें नमस्कार करके अनेक प्रकारसे उनकी स्तुति की; फिर वह अंजलि बाँधे सिर झुकाकर कहने लगा।
हिरण्याक्षने कहा- चन्द्रभाल ! मेरे उत्तम पराक्रमसम्पन्न तथा दैत्यकुलके अनुरूप कोई पुत्र नहीं है, इसीलिये मैंने इस व्रतका अनुष्ठान किया है। देवेश ! मुझे परम बलशाली पुत्र दीजिये।
सनत्कुमारजी कहते हैं-मुने ! दैत्यराजके उस वचनको सुनकर कृपालु शंकर प्रसन्न हो गये और उससे बोले- ‘दैत्याधिप ! तेरे भाग्यमें तेरे वीर्यसे उत्पन्न होनेवाला पुत्र तो नहीं लिखा है, किंतु मैं तुझे एक पुत्र देता हूँ। मेरा एक पुत्र है, जिसका नाम अन्धक है। वह तेरे ही समान पराक्रमी और अजेय है। तू सम्पूर्ण दुःखोंको त्यागकर उसीको पुत्ररूपसे वरण कर ले और इस प्रकार पुत्र प्राप्त कर ले।’
सनत्कुमारजी कहते हैं- महर्षे ! उससे यों कहकर गौरीके साथ विराजमान उन महात्मा भूतनाथ त्रिपुरारि शंकरने प्रसन्न होकर हिरण्याक्षको वह पुत्र दे दिया। इस प्रकार शिवजीसे पुत्र प्राप्त करके वह महामनस्वी दैत्य परम प्रसन्न हुआ। उसने अनेकों स्तोत्रोंद्वारा रुद्रकी पूजा करके प्रदक्षिणा की और फिर वह अपने राज्यको चला गया।
गिरीशसे पुत्र प्राप्त कर लेनेके बाद वह प्रचण्ड पराक्रमी दैत्य सम्पूर्ण देवताओंको जीतकर इस पृथ्वीको अपने देश रसातलमें उठा ले गया। तब देवताओं, मुनियों और सिद्धोंने अनन्त पराक्रमी विष्णुकी आराधना की। फिर तो भगवान् विष्णु सर्वात्मक यज्ञमय विकराल वाराह- शरीर धारणकर थूथुनके अनेकों प्रहारोंसे पृथ्वीको विदीर्ण करके पाताललोकमें जा घुसे।
वहाँ उन्होंने कभी न टूटनेवाले अपनी अगली दाढ़ोंसे तथा थूथुनसे सैकड़ों दैत्योंका कचूमर निकालकर अपने वज्र- सदृश कठोर पाद-प्रहारोंसे निशाचरोंकी सेनाको मथ डाला। तत्पश्चात् अद्भुत एवं प्रचण्ड तेजस्वी विष्णुने करोड़ों सूर्योके समान प्रकाशमान सुदर्शन- चक्रसे हिरण्याक्षके प्रज्वलित सिरको काट लिया और दुष्ट दैत्योंको जलाकर भस्म कर दिया। यह देखकर देवराज इन्द्रको बड़ी प्रसन्नता हुई।
उन्होंने उस असुर-राज्यपर अन्धकको अभिषिक्त कर दिया। फिर महात्मा इन्द्र विष्णुको अपनी दाढ़ोंद्वारा पाताललोकसे पृथ्वीको लाते हुए देखकर परम प्रसन्न हुए और अपने स्थानपर आकर पूर्ववत् स्वर्ग और भूतलकी रक्षा करने लगे। इधर वाराहरूप धारण करके उत्तम कार्य करनेवाले उग्ररूपधारी श्रीहरि प्रसन्नचित्त हुए समस्त देवों, मुनियों और पद्मयोनि ब्रह्माद्वारा प्रशंसित होकर अपने लोकको चले गये।
इस प्रकार वाराहरूपधारी विष्णु- द्वारा असुरराज हिरण्याक्षके मारे जानेपर समस्त देव, मुनि तथा अन्यान्य सभी जीव सुखी हो गये।
(अध्याय ४२)