(रुद्रसंहिता, पंचम (युद्ध) खण्ड)
Shiv puran rudra samhita yudh khand chapter 36 to 40 (शिव पुराण रुद्रसंहिता युद्ध खंड अध्याय 36 से 40 देवताओं और दानवोंका युद्ध, शंखचूडके साथ वीरभद्रका संग्राम, पुनः उसके साथ भद्रकालीका भयंकर युद्ध करना और आकाशवाणी सुनकर निवृत्त होना, शिवजीका शंखचूडके साथ युद्ध और आकाशवाणी सुनकर युद्धसे निवृत्त हो विष्णुको प्रेरित करना, विष्णुद्वारा शंखचूडके कवच और तुलसीके शीलका अपहरण, फिर रुद्रके हाथों त्रिशूलद्वारा शंखचूडका वध, शंखकी उत्पत्तिका कथन)
:-सनत्कुमारजी कहते हैं- महर्षे ! जब उस दूतने शंखचूडके पास जाकर विस्तार- पूर्वक शिवजीका वचन कह सुनाया- तथा तत्त्वतः उनके यथार्थ निश्चयको भी – प्रकट किया, तब उसे सुनकर प्रतापी दानव- – राज शंखचूडने भी परम प्रसन्नतापूर्वक युद्धको ही अंगीकार किया।
फिर तो वह तुरंत ही मन्त्रियोंसहित रथपर जा बैठा और उसने अपनी सेनाको शंकरके साथ युद्ध करनेके लिये आदेश दिया। इधर अखिलेश्वर शिवजीने भी तत्काल ही अपनी सेनाको तथा देवोंको आगे बढ़नेकी आज्ञा दी और स्वयं भी लीलावश युद्धके लिये संनद्ध हो गये। फिर तो शीघ्र ही युद्ध आरम्भ हो गया। उस समय नाना प्रकारके रणवाद्य बजने लगे। वीरोंके शब्द और कोलाहल चारों ओर गूँज उठे।
मुने ! इस प्रकार देवताओं और दानवोंका परस्पर युद्ध होने लगा। उस समय वे दोनों सेनाएँ धर्मपूर्वक जूझने लगीं। स्वयं महेन्द्र वृषपर्वाके साथ लड़ने लगे और विप्रचित्तिके साथ सूर्यका धर्मयुद्ध होने लगा। विष्णु दम्भके साथ भीषण संग्राम करने लगे।
कालासुरसे काल, गोकर्णसे अग्नि, कालकेयसे कुबेर, मयसे विश्वकर्मा, भयंकरसे मृत्यु, संहारसे यम, कालाम्बिकसे वरुण, चंचलसे वायु, घटपृष्ठसे बुध, रक्ताक्षसे शनैश्चर, रत्नसारसे जयन्त, वर्चागणोंसे वसुगण, दोनों दीप्तिमानोंसे दोनों अश्विनीकुमार, धूम्रसे नलकूबर, धुरंधरसे धर्म, गणकाक्षसे मंगल, शोभाकरसे वैश्वानर, पिपिटसे मन्मथ, गोकामुख, चूर्ण, खड्ग, धूम्र, संहल, प्रतापी विश्व और पलाश नामक असुरोंसे बारहों आदित्य धर्मपूर्वक लोहा लेने लगे। इस प्रकार शिवकी सहायताके लिये आये हुए अमरोंका असुरोंके साथ युद्ध होने लगा।
ग्यारहों महारुद्र महान् बल- पराक्रमसे सम्पन्न ग्यारह भयंकर असुर-वीरोंसे भिड़ गये। उग्र और चण्ड आदिके साथ महामणि, राहुके साथ चन्द्रमा और शुक्राचार्यके साथ बृहस्पति धर्मयुद्ध करने लगे। इस प्रकार उस महायुद्धमें नन्दीश्वर आदि सभी शिवगण श्रेष्ठ दानवोंके साथ संग्राम करने लगे।
विस्तारभयसे उनका पृथक् वर्णन नहीं किया गया है। मुने ! उस समय सारी सेनाएँ निरन्तर युद्धमें व्यस्त थीं और शम्भु काल्यसुतके साथ वटवृक्षके नीचे विराजमान थे। उधर शंखचूड भी रत्नाभरणोंसे विभूषित हो करोड़ों दानवोंके साथ रमणीय रत्नसिंहासनपर बैठा हुआ था। फिर देवताओं तथा असुरोंमें चिरकालतक अत्यन्त भयानक युद्ध होता रहा।
तदनन्तर शंखचूड भी आकर उस भीषण संग्राममें जुट गया। इसी बीच महाबली वीर वीरभद्र समरभूमिमें बलशाली शंखचूडसे जा भिड़े। उस युद्धमें दानवराज जिन-जिन अस्त्रोंकी वर्षा करता था, उन- उनको वीरभद्र खेल-ही-खेलमें अपने बाणोंसे काट डालते थे।
व्यासजी ! इसी समय देवी भद्रकालीने समरभूमिमें जाकर बड़ा भयंकर सिंहनाद किया। उनके उस शब्दको सुनकर सभी दानव मूच्छित हो गये। उस समय देवीने बारंबार अट्टहास किया और मधुपान करके वे रणके मुहानेपर नृत्य करने लगीं। उनके साथ ही उग्रदंष्ट्रा, उग्रदण्डा और कोटवीने भी मधुपान किया तथा अन्यान्य देवियोंने भी खूब मधु पीकर युद्धस्थलमें नाचना आरम्भ किया।
उस समय शिवगणों तथा देवोंके दलोंमें महान् कोलाहल मच गया। सारा सुरसमुदाय बहुत प्रकारसे गर्जना करता हुआ हर्षमग्न हो गया। तदनन्तर कालीने शंखचूडके ऊपर प्रलयकालीन अग्निकी शिखाके समान उद्दीप्त आग्नेयास्त्र चलाया, परंतु दानवराजने वैष्णवास्त्रसे उसे शीघ्र ही शान्त कर दिया। तब देवी भद्रकालीने उसपर नारायणास्त्रका प्रयोग किया।
वह अस्त्र दानव-शत्रुको देखकर बढ़ने लगा। तब प्रलयाग्निकी ज्वालाके समान उद्दीप्त होते हुए नारायणास्त्रको देखकर शंखचूड दण्डकी भाँति भूमिपर लेट गया और बारंबार प्रणाम करने लगा। तब उस दानवको नम्र हुआ देखकर वह अस्त्र निवृत्त हो गया। तत्पश्चात् देवीने उसपर मन्त्रपूर्वक ब्रह्मास्त्र छोड़ा।
उस अस्त्रको प्रज्वलित होता हुआ देखकर दानवराजने भूमिपर खड़े होकर उसे प्रणाम किया और ब्रह्मास्त्रसे ही उसका निवारण कर दिया। तदनन्तर वह दानवराज कुपित हो उठा और वेगपूर्वक अपने धनुषको खींचकर देवीके ऊपर मन्त्रपाठ करते हुए दिव्यास्त्रोंकी वर्षा करने लगा।
भद्रकाली समरभूमिमें अपने विस्तृत मुखको फैलाकर उन अस्त्रोंको निगल गयीं और अट्टहासपूर्वक गर्जना करने लगीं, जिससे दानव भयभीत हो गये। तब शंखचूडने कालीके ऊपर एक सौ योजन लंबी शक्तिसे वार किया; परंतु देवीने अपने दिव्यास्त्रसमूहसे उसके सौ टुकड़े कर दिये। यों उन दोनोंमें चिरकालतक युद्ध होता रहा और सभी देवता तथा दानव दर्शक बनकर उसे देखते रहे।
अन्तमें देवीने महान् कोपावेशसे उसपर वेगपूर्वक मुष्टि-प्रहार किया। उसकी चोटसे वह दानवराज चक्कर काटने लगा और उसी क्षण मूच्छित हो गया। फिर क्षणभरमें ही उसकी चेतना लौट आयी और वह उठ खड़ा हुआ; परंतु उस प्रतापीने मातृबुद्धि होनेके कारण देवीके साथ बाहुयुद्ध नहीं किया। तब देवीने उस दानवको पकड़कर उसे बारंबार घुमाया और बड़े क्रोधसे वेगपूर्वक ऊपरको उछाल दिया।
प्रतापी शंखचूड वेगसे ऊपरको उछला और पृथ्वीपर गिरकर पुनः उठ खड़ा हुआ। उस महायुद्धमें वह तनिक भी भ्रान्त नहीं हुआ था; बल्कि उसका मन प्रसन्न था। तत्पश्चात् वह भद्रकालीको प्रणाम करके बहुमूल्य रत्नोंद्वारा निर्मित अपने परम मनोहर विमानपर जा बैठा। इधर कालिका भूखसे विह्वल होकर दानवोंका रक्तपान करने लगीं। इसी अवसरपर वहाँ यों आकाशवाणी हुई – ‘ईश्वरि !
अभी रणभूमिमें सिंहनाद करनेवाले डेढ़ लाख दानवेन्द्र और बचे हैं। ये बड़े उद्धत हैं, अतः तुम इन्हें अपना आहार बना लो। परंतु देवि ! संग्राममें दानवराज शंखचूडको मारनेके लिये मन मत दौड़ाओ; क्योंकि यह तुम्हारे लिये अवध्य है-ऐसा निश्चय समझो।’ आकाशवाणीद्वारा कहे हुए वचनको सुनकर देवी भद्रकालीने बहुत-से दानवोंका मांस भक्षण करके उनका रक्तपान किया और फिर वे शिवजीके निकट चली गयीं। वहाँ उन्होंने पूर्वापरके क्रमसे सारा युद्ध-वृत्तान्त कह सुनाया।
व्यासजीने पूछा- महाबुद्धिमान् सनत्कुमारजी ! कालीका वह कथन सुनकर महेश्वरने उस समय क्या कहा और कौन- सा कार्य किया। उसे आप वर्णन करनेकी कृपा करें; क्योंकि मेरे मनमें उसे सुननेकी प्रबल उत्कण्ठा जाग उठी है।
सनत्कुमारजी बोले- मुने ! शम्भु तो जीवोंके कल्याणकर्ता, परमेश्वर और बड़े लीलाविहारी हैं। वे कालीद्वारा कहे हुए वचनको सुनकर उन्हें आश्वासन देते हुए हँसने लगे। तदनन्तर आकाशवाणीको सुनकर तत्त्वज्ञान-विशारद स्वयं शंकर अपने गणोंके साथ समरभूमिकी ओर चले।
उस समय वे महावृषभ नन्दीश्वरपर सवार थे और उन्हींके समान पराक्रमी वीरभद्र, भैरव और क्षेत्रपाल आदि उनके साथ थे। रणभूमिमें पहुँचकर महेश्वरने वीररूप धारण किया। उस समय उन रुद्रकी बड़ी शोभा हो रही थी और वे मूर्तिमान् काल-से दीख रहे थे। जब शंखचूडकी दृष्टि शिवजीपर पड़ी, तब वह विमानसे उतर पड़ा और परम भक्तिके साथ दण्डकी भाँति पृथ्वीपर लोटकर उसने सिरके बल उन्हें प्रणाम किया।
इस प्रकार नमस्कार करनेके पश्चात् वह तुरंत ही अपने विमानपर जा बैठा और कवच धारण करके उसने धनुष-बाण उठाया। फिर तो दोनों ओरसे बाणोंकी झड़ी लग गयी। यों व्यर्थ ही बाण-वर्षा करनेवाले शिव और शंखचूडका वह उग्र युद्ध सैकड़ों वर्षांतक चलता रहा। अन्तमें युद्धस्थलमें शंखचूडका वध करनेके लिये महाबली महेश्वरने सहसा अपना वह त्रिशूल उठाया, जिसका निवारण करना बड़े-बड़े तेजस्वियोंके लिये भी अशक्य है।
तब तत्काल ही उसका निषेध करनेके लिये यों आकाशवाणी हुई – “शंकर! मेरी प्रार्थना सुनिये और इस समय इस त्रिशूलको मत चलाइये। ईश ! यद्यपि आप क्षणमात्रमें पूरे ब्रह्माण्डका विनाश करनेमें सर्वथा समर्थ हैं, फिर इस अकेले दानव शंखचूडकी तो बात ही क्या है, तथापि आप स्वामीके द्वारा देवमर्यादाका विनाश नहीं होना चाहिये। महादेव ! आप उस (देवमर्यादा) को सुनिये और उसे सत्य एवं सफल बनाइये। ‘ ( वह देवमर्यादा यह है कि) जबतक इस शंखचूडके हाथमें श्रीहरिका परम उग्र कवच वर्तमान रहेगा और इसकी पतिव्रता पत्नी (तुलसी) का सतीत्व अखण्डित रहेगा, तबतक इसपर जरा और मृत्यु अपना प्रभाव नहीं डाल सकेंगे।’ अतः जगदीश्वर शंकर ! ब्रह्माके इस वचनको सत्य कीजिये।”
तब सत्पुरुषोंके आश्रयस्वरूप शिवजीने उस आकाशवाणीको सुनकर ‘तथास्तु’ कहकर उसे स्वीकार कर लिया और विष्णुको उस कार्यके लिये प्रेरित किया। फिर तो शिवजीकी इच्छासे विष्णु वहाँसे चल पड़े। वे तो मायावियोंमें भी श्रेष्ठ मायावी ठहरे। अतः उन्होंने एक वृद्ध ब्राह्मणका वेष धारण किया और शंखचूडके निकट जाकर उससे यों कहा।
वृद्ध ब्राह्मण बोले- ‘दानवेन्द्र ! इस समय मैं याचक होकर तुम्हारे पास आया हूँ, तुम मुझे भिक्षा दो। दीनवत्सल ! अभी मैं अपने मनोरथको प्रकट नहीं करूँगा। (जब तुम देना स्वीकार कर लोगे, तब) पीछे मैं उसे बताऊँगा और तब तुम उसे पूर्ण करना।’ ब्राह्मणकी बात सुनकर राजेन्द्र शंखचूडका मुख और नेत्र प्रसन्नतासे खिल उठे। जब उसने ‘ओम्’ कहकर उसे स्वीकार कर लिया, तब ब्राह्मणने छलपूर्वक कहा –
‘मैं तुम्हारा कवच चाहता हूँ।’ यह सुनकर ऐश्वर्यशाली दानवराज शंखचूडने, जो ब्राह्मण- भक्त और सत्यवादी था, वह दिव्य कवच जो उसे प्राणके समान था, ब्राह्मणको दे दिया। इस प्रकार श्रीहरिने मायाद्वारा उससे वह कवच ले लिया और फिर शंखचूडका रूप धारण करके वे तुलसीके पास पहुँचे। वहाँ जाकर सबके आत्मा एवं तुलसीके नित्य स्वामी श्रीहरिने शंखचूडरूपसे उसके शीलका हरण कर लिया।
इसी समय विष्णुभगवान्ने शम्भुसे अपनी सारी बात कह सुनायी। तब शिवजीने शंखचूडके वधके निमित्त अपना उद्दीप्त त्रिशूल हाथमें लिया। परमात्मा शंकरका वह विजय नामक त्रिशूल अपनी उत्कृष्ट प्रभा बिखेर रहा था। उससे सारी दिशाएँ, पृथ्वी और आकाश प्रकाशित हो उठे। वह मध्याह्मकालीन करोड़ों सूर्यो तथा प्रलयाग्नि- की शिखाके समान चमकीला था। उसका निवारण करना असम्भव था। वह दुर्धर्ष, कभी व्यर्थ न होनेवाला और शत्रुओंका संहारक था।
वह तेजोंका अत्यन्त उग्र समूह, सम्पूर्ण शस्त्रास्त्रोंका सहायक, भयंकर और सारे देवताओं तथा असुरोंके लिये दुस्सह था। वह एक ही स्थानपर ऐसा दमक रहा था, मानो लीलाका आश्रय लेकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका संहार करनेके लिये उद्यत हो। उसकी लंबाई एक हजार धनुष और चौड़ाई सौ हाथ थी। उस जीव-ब्रह्मस्वरूप शूलका किसीके द्वारा निर्माण नहीं हुआ था। उसका रूप नित्य था। आकाशमें चक्कर काटता हुआ वह त्रिशूल शिवजीकी आज्ञासे शंखचूडके ऊपर गिरा और उसने उसी क्षण उसे राखकी ढेरी बना दिया।
विप्र ! महेश्वरका वह शूल मनके समान वेगशाली था। वह शीघ्र ही अपना कार्य पूर्ण करके शंकरके पास आ पहुँचा और फिर आकाशमार्गसे चला गया। उस समय स्वर्गमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं। गन्धर्व और किन्नर गान करने लगे। देवों तथा मुनियोंने स्तुति करना आरम्भ किया और अप्सराएँ नृत्य करने लगीं। शिवजीके ऊपर लगातार पुष्पोंकी वर्षा होने लगी और ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र आदि देवता तथा मुनिगण उनकी प्रशंसा करने लगे।
दानवराज शंखचूड भी शिवजीकी कृपासे शापमुक्त हो गया और उसे उसके पूर्व (श्रीकृष्ण-पार्षद-)-रूपकी प्राप्ति हो गयी। शंखचूडकी हड्डियोंसे शंख-जातिका प्रादुर्भाव हुआ, जिस शंखका जल शंकरके अतिरिक्त समस्त देवताओंके लिये प्रशस्त माना जाता है। महामुने ! श्रीहरि और लक्ष्मीको तथा उनके सम्बन्धियोंको भी शंखका जल विशेषरूपसे अत्यन्त प्रिय है; किंतु शिवके लिये नहीं।
इस प्रकार शंखचूडको मारकर शंकर उमा, स्कन्द और गणोंके साथ प्रसन्नतापूर्वक नन्दीश्वरपर सवार हो शिवलोकको चले गये। भगवान् विष्णुने वैकुण्ठके लिये प्रस्थान किया और देवगण परमानन्दमग्न हो अपने-अपने लोकको चले गये। उस समय जगत्में चारों ओर परम शान्ति छा गयी। सबको निर्विघ्नरूपसे सुख मिलने लगा। आकाश निर्मल हो गया और सारी पृथ्वीपर उत्तम-उत्तम मंगलकार्य होने लगे।
मुने ! इस प्रकार मैंने तुमसे महेशके जिस चरित्रका वर्णन किया है, वह आनन्ददायक, सर्वदुःखहारी, लक्ष्मीप्रद और सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है।
(अध्याय ३६-४०)