Shiv puran rudra samhita yudh khand chapter 13 to 29 (शिव पुराण रुद्रसंहिता युद्ध  खंड अध्याय 13 से 29 दम्भकी तपस्या और विष्णुद्वारा उसे पुत्रप्राप्तिका वरदान, शंखचूडका जन्म, तप और उसे वरप्राप्ति, ब्रह्माजीकी आज्ञासे उसका पुष्करमें तुलसीके पास आना और उसके साथ वार्तालाप, ब्रह्माजीका पुनः वहाँ प्रकट होकर दोनोंको आशीर्वाद देना और शंखचूडका गान्धर्व विवाहकी विधिसे तुलसीका पाणिग्रहण करना)

(रुद्रसंहिता, पंचम (युद्ध) खण्ड)

Shiv puran rudra samhita yudh khand chapter 13 to 29 (शिव पुराण रुद्रसंहिता युद्ध  खंड अध्याय 13 से 29 दम्भकी तपस्या और विष्णुद्वारा उसे पुत्रप्राप्तिका वरदान, शंखचूडका जन्म, तप और उसे वरप्राप्ति, ब्रह्माजीकी आज्ञासे उसका पुष्करमें तुलसीके पास आना और उसके साथ वार्तालाप, ब्रह्माजीका पुनः वहाँ प्रकट होकर दोनोंको आशीर्वाद देना और शंखचूडका गान्धर्व विवाहकी विधिसे तुलसीका पाणिग्रहण करना)

(अध्याय 13 से 29 )

:-तदनन्तर जलन्धरकी उत्पत्तिसे लेकर उसके वधतकका प्रसंग सुनाकर सनत्कुमारजीने कहा – मुने ! अब शम्भुका दूसरा चरित्र प्रेमपूर्वक श्रवण करो। उसके सुननेमात्रसे शिवभक्ति सुदृढ़ हो जाती है। व्यासजी ! शंखचूड नामक एक महावीर दानव था, जो देवोंके लिये कण्टकस्वरूप था। उसे शिवजीने रणके मुहानेपर त्रिशूलसे मार डाला था।

 

शिवजीका वह दिव्य चरित्र परम पावन तथा पापनाशक है। तुमपर अधिक स्नेह होनेके कारण मैं उसका वर्णन करता हूँ, तुम प्रेमपूर्वक उसे श्रवण करो। ब्रह्माके पुत्र जो महर्षि मरीचि थे, उनके पुत्र कश्यप हुए। ये मननशील, धर्मिष्ठ, सृष्टिकर्ता, विद्यासम्पन्न तथा प्रजापति थे। दक्षने प्रसन्न होकर अपनी तेरह कन्याओंका विवाह इनके साथ कर दिया। उनकी संतानोंका इतना अधिक विस्तार हुआ कि उसका वर्णन करना कठिन है।

 

उन कश्यप- पत्नियोंमें एकका नाम दनु था। वह श्रेष्ठ सुन्दरी तथा महारूपवती थी। उस साध्वीका सौभाग्य बढ़ा हुआ था। मुने ! उस दनुके बहुत-से महाबली पुत्र उत्पन्न हुए। विस्तारभय से उनके नाम नहीं गिनाये जा रहे हैं। उनमें एकका नाम विप्रचित्ति था, जो महान् बल-पराक्रमसे सम्पन्न था। उसका पुत्र दम्भ हुआ, जो जितेन्द्रिय, धार्मिक तथा विष्णुभक्त था।

 

जब उसके कोई पुत्र नहीं हुआ, तब उस वीरको चिन्ता व्याप्त हो गयी। उसने शुक्राचार्यको गुरु बनाकर उनसे श्रीकृष्ण-मन्त्र प्राप्त किया और पुष्करमें जाकर घोर तप करना आरम्भ किया। वहाँ सुदृढ़ आसन लगाकर कृष्ण-मन्त्रका जप करते हुए उसके एक लाख वर्ष बीत गये। तब उस तपस्वीके मस्तकसे एक जाज्वल्यमान तेज निकलकर सर्वत्र व्याप्त हो गया। वह तेज इतना दुस्सह था कि उससे सम्पूर्ण देवता, मुनि तथा मनु संतप्त हो उठे।

 

तब वे इन्द्रको अगुआ बनाकर ब्रह्माके शरणापन्न हुए। वहाँ उन्होंने सम्पूर्ण सम्पत्तियोंके दाता विधाताको प्रणाम करके उनकी स्तुति की और फिर विशेष- रूपसे व्याकुल होकर अपना सारा वृत्तान्त उनसे कह सुनाया। उनकी बात सुनकर ब्रह्मा भी उन्हें साथ लेकर वह सारा वृत्तान्त विष्णुको सुनानेके लिये वैकुण्ठको चले। वहाँ पहुँचकर सब लोगोंने त्रिलोकीके अधीश्वर तथा रक्षक परमात्मा विष्णुको विनीतभावसे प्रणाम किया और फिर हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे।

 

देवता बोले- देवदेव ! हमें पता नहीं कि यहाँ कौन-सा कारण उत्पन्न हो गया है। हम किसके तेजसे संतप्त हो उठे हैं, यह आप ही बतलाइये। दीनबन्धो ! अपने दुःखी सेवकोंके रक्षक तो आप ही हैं; अतः शरणदाता ! रमानाथ ! हम शरणागतोंकी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये।

 

सनत्कुमारजी कहते हैं-मुने ! ब्रह्मा आदि देवताओंके वचनको सुनकर शरणागतवत्सल भगवान् विष्णु मुसकराये और प्रेमपूर्वक बोले। विष्णुने कहा- अमरो ! शान्त रहो, घबराओ मत, भयभीत न होओ। कोई उलट-पलट नहीं होगा; क्योंकि अभी प्रलयका समय नहीं आया है। (यह तेज तो) दम्भ नामक दानवका है, जो मेरा भक्त है और पुत्रकी कामनासे तप कर रहा है। मैं उसे वरदान देकर शान्त कर दूँगा।

सनत्कुमारजी कहते हैं-मुने ! भगवान् विष्णुके यों कहनेपर ब्रह्मा आदि देवताओंकी व्यग्रता जाती रही, वे सभी धैर्य धारण करके अपने-अपने धामको लौट गये। इधर भगवान् अच्युत भी वर प्रदान करनेके लिये पुष्करको चल पड़े, जहाँ वह दम्भ नामक दानव तप कर रहा था।

 

वहाँ पहुँचकर श्रीहरिने अपने मन्त्रका जप करनेवाले भक्त दम्भको सान्त्वना देते हुए मधुर वाणीमें कहा- ‘वर माँग!’ तब विष्णुका उपर्युक्त वचन सुनकर और उन्हें आगे उपस्थित देखकर दम्भ बड़ी भक्तिके साथ उनके चरणोंमें लोट-पोट हो गया और बारंबार स्तुति करते हुए बोला।

 

दम्भने कहा- देवाधिदेव ! कमलनयन ! आपको नमस्कार है। रमानाथ ! मुझपर कृपा कीजिये। त्रिलोकेश ! मुझे एक ऐसा वीर पुत्र दीजिये, जो आपका भक्त तथा महान् बल- पराक्रमसे सम्पन्न हो। वह त्रिलोकीको जीत ले, परंतु देवता उसे पराजित न कर सकें। सनत्कुमारजी कहते हैं-मुने !

 

दानवराज दम्भके यों कहनेपर श्रीहरिने उसे वह वर दे दिया और उस घोर तपसे उसे निवृत्त करके स्वयं अन्तर्धान हो गये। दानवेन्द्र दम्भकी तपस्या सिद्ध हो चुकी थी, जिससे उसका मनोरथ पूर्ण हो गया था; अतः वह भी श्रीहरिके चले जानेपर उस दिशाको नमस्कार करके अपने घरको लौट गया। थोड़े ही समयके उपरान्त उसकी भाग्यवती पत्नी गर्भवती हो गयी। वह अपने तेजसे घरके भीतरी भागको प्रकाशित करती हुई शोभा पाने लगी। मुने !

 

श्रीकृष्णके पार्षदोंका अग्रणी जो सुदामा नामक गोप था, जिसे राधाजीने शाप दे दिया था, वही उसके गर्भमें प्रविष्ट हुआ था। तदनन्तर समय आनेपर साध्वी दम्भ-पत्नीने एक तेजस्वी बालकको जन्म दिया। तब पिताने बहुत-से मुनीश्वरोंको बुलाकर उसका विधिपूर्वक जातकर्म आदि संस्कार सम्पन्न किया। द्विजोत्तम ! उस पुत्रके उत्पन्न होनेपर बहुत बड़ा उत्सव मनाया गया। फिर शुभ दिन आनेपर पिताने उस बालकका ‘शंखचूड’ ऐसा नामकरण किया। वह अपने पिताके घरमें शुक्लपक्षके चन्द्रमाकी भाँति बढ़ने लगा। वह अत्यन्त तेजस्वी था, अतः उसने बचपनमें ही सारी विद्याएँ सीख लीं।

 

वह नित्य बालक्रीडा करके अपने माता- पिताका हर्ष बढ़ाने लगा और अपने समस्त कुटुम्बियोंका तो वह विशेषरूपसे प्रेम- भाजन हो गया।तदनन्तर जब शंखचूड बड़ा हुआ, तब वह जैगीषव्य मुनिके उपदेशसे पुष्करमें जाकर ब्रह्माजीको प्रसन्न करनेके लिये भक्तिपूर्वक तपस्या करने लगा। उस समय वह एकाग्रमन हो अपनी इन्द्रियोंको काबूमें करके गुरूपदिष्ट ब्रह्मविद्याका जप करता रहा। यों पुष्करमें तपस्या करते हुए दानवराज शंखचूडको वर देनेके लिये लोकगुरु एवं ऐश्वर्यशाली ब्रह्मा शीघ्र ही वहाँ पधारे और उस दानवेन्द्रसे बोले- ‘वर माँग!’

 

ब्रह्माजीको देखकर उसने अत्यन्त नम्रतासे उन्हें अभिवादन किया और फिर उत्तम वाणीसे उनकी स्तुति की। तत्पश्चात् उसने ब्रह्मासे वर माँगते हुए कहा- ‘भगवन् ! मैं देवताओंके लिये अजेय हो जाऊँ।’ तब ब्रह्माजी परम प्रसन्न होकर बोले- ‘तथास्तु- ऐसा ही होगा।’ फिर उन्होंने शंखचूडको वह दिव्य श्रीकृष्णकवच प्रदान किया, जो जगत्‌के सम्पूर्ण मंगलोंका भी मंगल और सर्वत्र विजय प्रदान करनेवाला है। तदनन्तर ब्रह्माजीने उसे आज्ञा दी कि ‘तुम बदीवनको जाओ। वहीं धर्मध्वजकी कन्या तुलसी सकामभावसे तपस्या कर रही है। तुम उसके साथ विवाह कर लो।’

 

यों कहकर ब्रह्माजी उसी क्षण उसके सामने ही तुरंत अन्तर्धान हो गये। तब तपः- सिद्ध शंखचूडने भी, जिसके सारे मनोरथ तपोबलसे पूर्ण हो चुके थे और मुखपर प्रसन्नता खेल रही थी, पुष्करमें ही उस जगत्‌के मंगलोंके भी मंगलस्वरूप कवचको गलेमें बाँध लिया और ब्रह्माके आज्ञानुसार वह तत्काल ही बदरिकाश्रमको चल पड़ा। वहाँ दानव शंखचूड सहसा उस स्थानपर जा पहुँचा जहाँ धर्मध्वजकी पुत्री तुलसी तप कर रही थी। सुन्दरी तुलसीका रूप अत्यन्त कमनीय और मनोहर था।

 

वह उत्तम शीलसे सम्पन्न थी। उस सतीको देखकर शंखचूड उसके समीप ही ठहर गया और मधुर वाणीमें उससे बोला।शंखचूडने कहा-सुन्दरी ! तुम कौन हो ? किसकी पुत्री हो ? तुम यहाँ चुपचाप बैठकर क्या कर रही हो ? यह सारा रहस्य मुझे बतलाओ।सनत्कुमारजी कहते हैं-मुने ! शंखचूडके ये सकाम वचन सुनकर तुलसीने उससे कहा।

 

तुलसी बोली- मैं धर्मध्वजकी तपस्विनी कन्या हूँ और यहाँ तपोवनमें तप कर रही हूँ। आप कौन हैं? सुखपूर्वक अपने अभीष्ट स्थानको चले जाइये; क्योंकि नारीजाति ब्रह्मा आदिको भी मोहमें डाल देनेवाली होती है। यह विषतुल्य, निन्दनीय, दोष उत्पन्न करनेवाली, मायारूपिणी तथा विचारशीलोंको भी श्रृंखलाके समान जकड़ लेनेवाली होती है।

 

सनत्कुमारजी कहते हैं- महर्षे ! तुलसी जब इस प्रकार रसभरी बातें कहकर चुप हो गयी, तब उसे मुसकराती देखकर शंखचूडने भी कहना आरम्भ किया।

 

शंखचूड बोला- देवि ! तुमने जो बात कही है, वह सारी-की-सारी मिथ्या हो, ऐसी बात नहीं है। उसमें कुछ सत्य है और कुछ असत्य भी। इसका विवरण मुझसे सुनो। शोभने ! जगत्में जितनी पतिव्रता नारियाँ हैं, उनमें तुम अग्रणी हो। मेरा तो ऐसा विचार है कि जैसे मैं पापबुद्धि कामी नहीं हूँ, उसी प्रकार तुम भी कामपराधीना नहीं हो। फिर भी इस समय मैं ब्रह्माजीकी आज्ञासे तुम्हारे समीप आया हूँ और गान्धर्व विवाहकी विधिसे तुम्हें ग्रहण करूँगा।

 

भद्रे ! क्या तुम मुझे नहीं जानती हो अथवा तुमने कभी मेरा नाम भी नहीं सुना है? अरे ! देवताओंमें भगदड़ डालनेवाला शंखचूड मैं ही हूँ। मैं दनुका वंशज तथा दम्भ नामक दानवका पुत्र हूँ। पूर्वकालमें मैं श्रीहरिका पार्षद था। मेरा नाम सुदामा गोप था। इस समय मैं राधिकाजीके शापसे दानवराज शंखचूड होकर उत्पन्न हुआ हूँ। ये सारी बातें मुझे ज्ञात हैं; क्योंकि श्रीकृष्ण- के प्रभावसे मुझे अपने पूर्वजन्मका स्मरण बना हुआ है।

 

सनत्कुमारजी कहते हैं-मुने ! तुलसीके समक्ष यों कहकर शंखचूड चुप हो गया। जब दानवराजने आदरपूर्वक तुलसीसे ऐसा सत्य वचन कहा, तब वह परम प्रसन्न हुई और मुसकराकर कहने लगी।

 

तुलसी बोली- भद्र पुरुष ! आज आपने अपने सात्त्विक विचारसे मुझे पराजित कर दिया है। जो पुरुष स्त्रीद्वारा परास्त न हो सके, वह संसारमें धन्यवादका पात्र है; क्योंकि जिसे स्त्री जीत लेती है, वह पुरुष सदाचारी होते हुए भी सदा अपावन बना रहता है। देवता, पितर और समस्त मानव उसकी निन्दा करते हैं। जननाशौच तथा मरणाशौचमें ब्राह्मण दस दिनोंमें, क्षत्रिय बारह दिनोंमें और वैश्य पंद्रह दिनोंमें शुद्ध हो जाता है तथा शूद्रकी शुद्धि एक मासमें हो जाती है-ऐसा वेदका अनुशासन है; परंतु स्त्रीसे पराजित हुए पुरुषकी शुद्धि चितादाहके अतिरिक्त अन्य किसी प्रकारसे सम्भव ही नहीं है।

 

इसी कारण उसके पितर उसके द्वारा दिये गये पिण्ड-तर्पण आदिको इच्छापूर्वक ग्रहण नहीं करते तथा देवता भी उसके द्वारा अर्पित किये गये पुष्प- फल आदिको स्वीकार नहीं करते। जिसका मन स्त्रियोंद्वारा आहत हो जाता है, उसके ज्ञान, उत्तम तप, जप, होम, पूजन, विद्या और दानसे क्या लाभ ?

 

अर्थात् उसके ये सभी निष्फल हो जाते हैं। मैंने आपके विद्या, प्रभाव और ज्ञानकी जानकारीके लिये ही आपकी परीक्षा ली है; क्योंकि कामिनीको चाहिये कि वह अपने मनोनीत कान्तकी परीक्षा करके ही उसे पतिरूपसे वरण करे।सनत्कुमारजी कहते हैं – व्यासजी ! जिस समय तुलसी यों वार्तालाप कर रही थी, उसी समय सृष्टिकर्ता ब्रह्मा वहाँ आ पहुँचे और इस प्रकार कहने लगे।

 

ब्रह्माजीने कहा- शंखचूड ! तुम इसके साथ क्या व्यर्थमें वाद-विवाद कर रहे हो ? तुम गान्धर्व विवाहकी विधिसे इसका पाणिग्रहण करो; क्योंकि निश्चय ही तुम पुरुषरत्न हो और यह सती-साध्वी नारियोंमें रत्नस्वरूपा है। ऐसी दशामें निपुणाका निपुणके साथ समागम गुणकारी ही होगा। (फिर तुलसीकी ओर लक्ष्य करके बोले-) सती-साध्वी तुलसी ! तू ऐसे गुणवान् कान्तकी क्या परीक्षा ले रही है? यह तो देवताओं, असुरों तथा दानवोंका मान मर्दन करनेवाला है।

 

सुन्दरी ! तू इसके साथ सम्पूर्ण लोकोंमें सर्वदा उत्तम उत्तम स्थानोंपर चिरकालतक यथेष्ट विहार कर। शरीरान्त होनेपर यह पुनः गोलोकमें श्रीकृष्णको ही प्राप्त होगा और इसकी मृत्यु हो जानेपर तू भी वैकुण्ठमें चतुर्भुज भगवान्‌को प्राप्त करेगी।सनत्कुमारजी कहते हैं-मुने ! इस प्रकार आशीर्वाद देकर ब्रह्मा अपने धामको चले गये। तब दानव शंखचूडने गान्धर्व विवाहकी विधिसे तुलसीका पाणिग्रहण किया। यों तुलसीके साथ विवाह करके वह अपने पिताके स्थानको चला गया और मनोरम भवनमें उस रमणीके साथ विहार करने लगा।

(अध्याय १३-२९)

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