Shiv puran rudra samhita srishti khand chapter 8 (शिव पुराण रुद्रसंहिता सृष्टि खंड अध्याय:8 ब्रह्मा और विष्णुको भगवान् शिवके शब्दमय शरीरका दर्शन)

(रुद्रसंहिता, प्रथम (सृष्टि) खण्ड)

Shiv puran rudra samhita srishti khand chapter 8 (शिव पुराण रुद्रसंहिता सृष्टि खंड अध्याय:8 ब्रह्मा और विष्णुको भगवान् शिवके शब्दमय शरीरका दर्शन)

(अध्याय:8)

:’ब्रह्माजी कहते हैं-मुनिश्रेष्ठ नारद ! इस प्रकार हम दोनों देवता गर्वरहित हो निरन्तर प्रणाम करते रहे। हम दोनोंके मनमें

एक ही अभिलाषा थी कि इस ज्योतिर्लिंगके रूपमें प्रकट हुए परमेश्वर प्रत्यक्ष दर्शन दें। भगवान् शंकर दीनोंके प्रतिपालक,

अहंकारियोंका गर्व चूर्ण करनेवाले तथा सबके अविनाशी प्रभु हैं। वे हम दोनोंपर दयालु हो गये। उस समय वहाँ उन सुरश्रेष्ठसे, ‘ओ३म्’, ‘ओ३म्’ ऐसा शब्दरूप नाद प्रकट हुआ, जो स्पष्टरूपसे सुनायी देता था। वह नाद प्लुत स्वरमें अभिव्यक्त हुआ था। जोरसे प्रकट होनेवाले उस शब्दके विषयमें ‘यह क्या है’ ऐसा सोचते हुए समस्त देवताओंके आराध्य भगवान् विष्णु मेरे साथ संतुष्टचित्तसे खड़े रहे।

 

वे सर्वथा वैरभावसे रहित थे। उन्होंने लिंगके दक्षिणभागमें सनातन आदिवर्ण अकारका दर्शन किया। उत्तरभागमें उकारका, मध्यभागमें मकारका और अन्तमें ‘ओ३म्’ इस नादका साक्षात् दर्शन एवं अनुभव किया। दक्षिणभागमें प्रकट हुए आदिवर्ण अकारको सूर्यमण्डलके समान तेजोमय देखकर जब उन्होंने उत्तरभागमें दृष्टिपात किया, तब वहाँ उकार वर्ण अग्निके समान दीप्तिशाली दिखायी दिया। मुनिश्रेष्ठ ! इसी तरह उन्होंने मध्यभागमें मकारको चन्द्रमण्डलके समान उज्ज्वल कान्तिसे प्रकाशमान देखा।

 

तदनन्तर जब उसके ऊपर दृष्टि डाली, तब शुद्ध स्फटिकमणिके समान निर्मल प्रभासे युक्त, तुरीयातीत, अमल, निष्कल, निरुपद्रव, निर्द्वन्द्व, अद्वितीय, शून्यमय, बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे रहित, बाह्यान्तरभेदसे युक्त, जगत्‌के भीतर और बाहर स्वयं ही स्थित, आदि, मध्य और अन्तसे रहित, आनन्दके आदिकारण तथा सबके परम आश्रय, सत्य, आनन्द एवं अमृतस्वरूप परब्रह्मका साक्षात्कार किया। उस समय श्रीहरि यह सोचने लगे कि ‘यह अग्निस्तम्भ यहाँ कहाँसे प्रकट हुआ है?

 

हम दोनों फिर इसकी परीक्षा करें। मैं इस अनुपम अनलस्तम्भके नीचे जाऊँगा।’ ऐसा विचार करते हुए श्रीहरिने वेद और शब्द दोनोंके आवेशसे युक्त विश्वात्मा शिवका चिन्तन किया। तब वहाँ एक ऋषि प्रकट हुए, जो ऋषि-समूहके परम साररूप माने जाते हैं। उन्हीं ऋषिके द्वारा परमेश्वर श्रीविष्णुने जाना कि इस शब्दब्रह्ममय शरीरवाले परम लिंगके रूपमें साक्षात् परब्रह्मस्वरूप महादेव- जी ही यहाँ प्रकट हुए हैं।

 

ये चिन्तारहित (अथवा अचिन्त्य) रुद्र हैं। जहाँ जाकर मनसहित वाणी उसे प्राप्त किये बिना ही लौट आती है, उस परब्रह्म परमात्मा शिवका वाचक एकाक्षर (प्रणव) ही है, वे इसके वाच्यार्थरूप हैं। वह परम कारण, ऋत, सत्य, आनन्द एवं अमृतस्वरूप परात्पर परब्रह्म एकाक्षरका वाच्य है। प्रणवके एक अक्षर अकारसे जगत्‌के बीजभूत अण्डजन्मा भगवान् ब्रह्माका बोध होता है। उसके दूसरे एक अक्षर उकारसे परम कारणरूप श्रीहरिका बोध होता है और तीसरे एक अक्षर मकारसे भगवान् नील-लोहित शिवका ज्ञान होता है। अकार सृष्टिकर्ता है, उकार मोहमें डालनेवाला है और मकार नित्य अनुग्रह करनेवाला है।

 

मकार-बोध्य सर्वव्यापी शिव बीजी (बीजमात्रके स्वामी) हैं और ‘अकार’ संज्ञक मुझ ब्रह्माको ‘बीज’ कहते हैं। ‘उकार’ नामधारी श्रीहरि योनि हैं। प्रधान और पुरुषके भी ईश्वर जो महेश्वर हैं, वे बीजी, बीज और योनि भी हैं। उन्हींको ‘नाद’ कहा गया है। (उनके भीतर सबका समावेश है।) बीजी अपनी इच्छासे ही अपने बीजको अनेक रूपोंमें विभक्त करके स्थित हैं। इन बीजी भगवान् महेश्वरके लिंगसे अकाररूप बीज प्रकट हुआ, जो उकाररूप योनिमें स्थापित होकर सब ओर बढ़ने लगा। वह सुवर्णमय अण्डके रूपमें ही बताने योग्य था।

 

उसका और कोई विशेष लक्षण नहीं लक्षित होता था। वह दिव्य अण्ड अनेक वर्षांतक जलमें ही स्थित रहा। तदनन्तर एक हजार वर्षके बाद उस अण्डके दो टुकड़े हो गये। जलमें स्थित हुआ वह अण्ड अजन्मा ब्रह्माजीकी उत्पत्तिका स्थान था और साक्षात् महेश्वरके आघातसे ही फूटकर दो भागोंमें बँट गया था। उस अवस्थामें उसका ऊपर स्थित हुआ सुवर्णमय कपाल बड़ी शोभा पाने लगा। वही द्युलोकके रूपमें प्रकट हुआ तथा जो उसका दूसरा नीचेवाला कपाल था, वही यह पाँच लक्षणोंसे युक्त पृथिवी है। उस अण्डसे चतुर्मुख ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिनकी ‘क’ संज्ञा है। वे समस्त लोकोंके स्रष्टा हैं। इस प्रकार वे भगवान् महेश्वर ही ‘अ’, ‘उ’ और ‘म्’ इन त्रिविध रूपोंमें वर्णित हुए हैं।

 

इसी अभिप्रायसे उन ज्योतिर्लिंगस्वरूप सदाशिवने ‘ओ३म्’, ‘ओ३म्’ ऐसा कहा – यह बात यजुर्वेदके श्रेष्ठ मन्त्र कहते हैं। यजुर्वेदके श्रेष्ठ मन्त्रोंका यह कथन सुनकर ऋचाओं और साममन्त्रोंने भी हमसे आदरपूर्वक कहा- ‘हे हरे ! हे ब्रह्मन् ! यह बात ऐसी ही है।’ इस तरह देवेश्वर शिवको जानकर श्रीहरिने शक्तिसम्भूत मन्त्रोंद्वारा उत्तम एवं महान् अभ्युदयसे शोभित होनेवाले उन महेश्वरदेवका स्तवन किया।

 

 

इसी बीचमें मेरे साथ विश्वपालक भगवान् विष्णु के  एक और भी अद्भुत एवं सुन्दर रूप देखा। मुने ! वह रूप पाँच मुखों और दस भुजाओंसे अलंकृत था। उसकी कान्ति कर्पूरके समान गौर थी। वह नाना प्रकारकी छटाओंसे छविमान् और भाँति-भाँतिके आभूषणोंसे विभूषित था। उस परम उदार महापराक्रमी और महापुरुषके लक्षणोंसे सम्पन्न अत्यन्त उत्कृष्ट रूपका दर्शन करके मैं और श्रीहरि दोनों कृतार्थ हो गये।

तत्पश्चात् परमेश्वर भगवान् महेश प्रसन्न हो अपने दिव्य शब्दमय रूपको प्रकट करके हँसते हुए खड़े हो गये। अकार उनका मस्तक और आकार ललाट है। इकार दाहिना और ईकार बायाँ नेत्र है। उकारको उनका दाहिना और ऊकारको बायाँ कान बताया जाता है।

 

ऋकार उन परमेश्वरका दायाँ कपोल है और ऋकार बायाँ। लृ और लू-ये उनकी नासिकाके दोनों छिद्र हैं। एकार उन सर्वव्यापी प्रभुका ऊपरी ओष्ठ है और ऐकार अधर। ओकार तथा औकार – ये दोनों क्रमशः उनकी ऊपर और नीचेकी दो दन्तपंक्तियाँ हैं।

 

‘अं’ और ‘अः’ उन देवाधिदेव शूलधारी शिवके दोनों तालु हैं। क आदि पाँच अक्षर उनके दाहिने पाँच हाथ हैं और च आदि पाँच अक्षर बायें पाँच हाथ; ट आदि और त आदि पाँच- पाँच अक्षर उनके पैर हैं। पकार पेट है। फकारको दाहिना पार्श्व बताया जाता है और बकारको बायाँ पार्श्व।

 

भकारको कंधा कहते हैं। मकार उन योगी महादेव शम्भुका हृदय है। ‘य’ से लेकर ‘स’ तक सात अक्षर सर्वव्यापी शिवके शब्दमय शरीरकी सात धातुएँ हैं। हकार उनकी नाभि है और क्षकारको मेद्र (मूत्रेन्द्रिय) कहा गया है। इस प्रकार निर्गुण एवं गुणस्वरूप परमात्माके शब्दमय रूपको भगवती उमाके साथ देखकर मैं और श्रीहरि दोनों कृतार्थ हो गये।

 

इस तरह शब्द-ब्रह्ममय-शरीरधारी महेश्वर शिवका दर्शन पाकर मेरे साथ श्रीहरिने उन्हें प्रणाम किया और पुनः ऊपरकी ओर देखा। उस समय उन्हें पाँच कलाओंसे युक्त ॐकारजनित मन्त्रका साक्षात्कार हुआ। तत्पश्चात् महादेवजीका ‘ॐ तत्त्वमसि’ यह महावाक्य दृष्टिगोचर हुआ, जो परम उत्तम मन्त्ररूप है तथा शुद्ध स्फटिकके समान निर्मल है।

 

फिर सम्पूर्ण धर्म और अर्थका साधक तथा बुद्धिस्वरूप गायत्री नामक दूसरा महान् मन्त्र लक्षित हुआ, जिसमें चौबीस अक्षर हैं तथा जो चारों पुरुषार्थरूपी फल देनेवाला है। तत्पश्चात् मृत्युंजय-मन्त्र फिर पंचाक्षर-मन्त्र तथा दक्षिणामूर्तिसंज्ञक चिन्तामणि-मन्त्रका साक्षात्कार हुआ। इसप्रकार पाँच मन्त्रोंकी उपलब्धि करके भगवान् श्रीहरि उनका जप करने लगे।

तदनन्तर ऋक्, यजुः और साम- ये जिनके रूप हैं, जो ईशोंके मुकुटमणि ईशान हैं, जो पुरातन पुरुष हैं, जिनका हृदय अघोर अर्थात् सौम्य है, जो हृदयको प्रिय लगनेवाले सर्वगुह्य सदाशिव हैं, जिनके चरण वाम-परम सुन्दर हैं, जो महान् देवता हैं और महान् सर्पराजको आभूषणके रूपमें धारण करते हैं, जिनके सभी ओर पैर और सभी ओर नेत्र हैं, जो मुझ ब्रह्माके भी अधिपति, कल्याणकारी तथा सृष्टि, पालन एवं संहार करनेवाले हैं, उन वरदायक साम्बशिवका मेरे साथ भगवान् विष्णुने प्रिय वचनोंद्वारा संतुष्टचित्तसे स्तवन किया।

(अध्याय ८)

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