(रुद्रसंहिता, प्रथम (सृष्टि) खण्ड)
Shiv puran rudra samhita srishti khand chapter 6 (शिव पुराण रुद्रसंहिता सृष्टि खंड अध्याय: 6 महाप्रलयकालमें केवल सद्ब्रह्मकी सत्ताका प्रतिपादन, उस निर्गुण- निराकार ब्रह्मसे ईश्वरमूर्ति (सदाशिव) का प्राकट्य, सदाशिवद्वारा स्वरूपभूता शक्ति (अम्बिका) का प्रकटीकरण, उन दोनोंके द्वारा उत्तम क्षेत्र (काशी या आनन्दवन) का प्रादुर्भाव, शिवके वामांगसे परम पुरुष (विष्णु) का आविर्भाव तथा उनके सकाशसे प्राकृत तत्त्वोंकी क्रमशः उत्पत्तिका वर्णन)
(अध्याय: 6)
:-ब्रह्माजीने कहा-ब्रह्मन् ! देवशिरोमणे ! तुम सदा समस्त जगत्के उपकारमें ही लगे रहते हो। तुमने लोगोंके हितकी कामनासे यह बहुत उत्तम बात पूछी है। जिसके सुननेसे सम्पूर्ण लोकोंके समस्त पापोंका क्षय हो जाता है, उस अनामय शिवतत्त्वका मैं तुमसे वर्णन करता हूँ।
शिवतत्त्वका स्वरूप बड़ा ही उत्कृष्ट और अद्भुत है। जिस समय समस्त चराचर जगत् नष्ट हो गया था, सर्वत्र केवल अन्धकार-ही-अन्धकार था। न सूर्य दिखायी देते थे न चन्द्रमा। अन्यान्य ग्रहों और नक्षत्रोंका भी पता नहीं था। न दिन होता था न रात; अग्नि, पृथ्वी, वायु और जलकी भी सत्ता नहीं थी।
प्रधान तत्त्व (अव्याकृत प्रकृति) से रहित सूना आकाशमात्र शेष था, दूसरे किसी तेजकी उपलब्धि नहीं होती थी। अदृष्ट आदिका भी अस्तित्व नहीं था। शब्द और स्पर्श भी साथ छोड़ चुके थे। गन्ध और रूपकी भी अभिव्यक्ति नहीं होती थी। रसका भी अभाव हो गया था। दिशाओंका भी भान नहीं होता था। इस प्रकार सब ओर निरन्तर सूचीभेद्य घोर अन्धकार फैला हुआ था। उस समय ‘तत्सद्द्ब्रह्म’ इस श्रुतिमें जो ‘सत्’ सुना जाता है, एकमात्र वही शेष था।
जब ‘यह’, ‘वह’, ‘ऐसा’, ‘जो’ इत्यादि रूपसे निर्दिष्ट होनेवाला भावाभावात्मक जगत् नहीं था, उस समय एकमात्र वह ‘सत्’ ही शेष था, जिसे योगीजन अपने हृदयाकाशके भीतर निरन्तर देखते हैं। वह सत्तत्त्व मनका विषय नहीं है।
वाणीकी भी वहाँतक कभी पहुँच नहीं होती। वह नाम तथा रूप-रंगसे भी शून्य है। वह न स्थूल है न कृश, न ह्रस्व है न दीर्घ तथा न लघु है न गुरु। उसमें न कभी वृद्धि होती है न ह्रास। श्रुति भी उसके विषयमें चकितभावसे ‘है’ इतना ही कहती है, अर्थात् उसकी सत्तामात्रका ही निरूपण कर पाती है, उसका कोई विशेष विवरण देनेमें असमर्थ हो जाती है।
वह सत्य, ज्ञानस्वरूप, अनन्त, परमानन्दमय, परम ज्योतिःस्वरूप, अप्रमेय, आधाररहित, निर्विकार, निराकार, निर्गुण, योगिगम्य, सर्वव्यापी, सबका एकमात्र कारण, निर्विकल्प, निरारम्भ, मायाशून्य, उपद्रव- रहित, अद्वितीय, अनादि, अनन्त, संकोच- विकाससे शून्य तथा चिन्मय है।
जिस परब्रह्मके विषयमें ज्ञान और अज्ञानसे पूर्ण उक्तियोंद्वारा इस प्रकार (ऊपर बताये अनुसार) विकल्प किये जाते हैं; उसने कुछ कालके बाद (सृष्टिका समय आनेपर) द्वितीयकी इच्छा प्रकट की – उसके भीतर एकसे अनेक होनेका संकल्प उदित हुआ। तब उस निराकार परमात्माने अपनी लीलाशक्तिसे अपने लिये मूर्ति (आकार-की कल्पना की। वह मूर्ति सम्पूर्ण ऐश्वर्य-गुणोंसे सम्पन्न, सर्वज्ञानमयी, शुभ- स्वरूपा, सर्वव्यापिनी, सर्वरूपा, सर्वदर्शिनी, सर्वकारिणी, सबकी एकमात्र वन्दनीया, सर्वाद्या, सब कुछ देनेवाली और सम्पूर्ण संस्कृतियोंका केन्द्र थी। उस शुद्धरूपिणी ईश्वर-मूर्तिकी कल्पना करके वह अद्वितीय, अनादि, अनन्त, सर्वप्रकाशक, चिन्मय, सर्वव्यापी और अविनाशी परब्रह्म अन्तर्हित हो गया। जो मूर्तिरहित परम ब्रह्म है, उसीकी
मूर्ति (चिन्मय आकार) भगवान् सदाशिव हैं। अर्वाचीन और प्राचीन विद्वान् उन्हींको ईश्वर कहते हैं। उस समय एकाकी रहकर स्वेच्छानुसार विहार करनेवाले उन सदाशिवने अपने विग्रहसे स्वयं ही एक स्वरूपभूता शक्तिकी सृष्टि की, जो उनके अपने श्रीअंगसे कभी अलग होनेवाली नहीं थी। उस पराशक्तिको प्रधान, प्रकृति, गुणवती, माया, बुद्धितत्त्वकी जननी तथा विकाररहित बताया गया है। वह शक्ति अम्बिका कही गयी है। उसीको प्रकृति, सर्वेश्वरी, त्रिदेवजननी, नित्या और मूलकारण भी कहते हैं। सदाशिवद्वारा प्रकट की गयी उस शक्तिके आठ भुजाएँ हैं। उस शुभलक्षणा देवीके मुखकी शोभा विचित्र है। वह अकेली ही अपने मुखमण्डलमें सदा एक सहस्त्र चन्द्रमाओंकी कान्ति धारण करती है। नाना प्रकारके आभूषण उसके श्रीअंगोंकी शोभा बढ़ाते हैं। वह देवी नाना प्रकारकी गतियोंसे सम्पन्न है और अनेक प्रकारके अस्त्र-शस्त्र धारण करती है। उसके खुले हुए नेत्र खिले हुए कमलके समान जान पड़ते हैं। वह अचिन्त्य तेजसे जगमगाती है। वह सबकी योनि है और सदा उद्यमशील रहती है। एकाकिनी होनेपर भी वह माया संयोगवशात् अनेक हो जाती है।
वे जो सदाशिव हैं, उन्हें परमपुरुष, ईश्वर, शिव, शम्भु और महेश्वर कहते हैं। वे अपने मस्तकपर आकाश-गंगाको धारण करते हैं। उनके भालदेशमें चन्द्रमा शोभा पाते हैं। उनके पाँच मुख हैं और प्रत्येक मुखमें तीन-तीन नेत्र हैं। उनका चित्त सदा प्रसन्न रहता है। वे दस भुजाओंसे युक्त और त्रिशूलधारी हैं। उनके श्रीअंगोंकी प्रभा
कर्पूरके समान श्वेत-गौर है। वे अपने सारे अंगोंमें भस्म रमाये रहते हैं। उन कालरूपी ब्रह्मने एक ही समय शक्तिके नाथ ‘शिवलोक’ नामक क्षेत्रका निर्माण किया था। उस उत्तम क्षेत्रको ही काशी कहते हैं। वह परम निर्वाण या मोक्षका स्थान है, जो सबके ऊपर विराजमान है। वे प्रिया-प्रियतमरूप शक्ति और शिव, जो परमानन्दस्वरूप हैं, उस मनोरम क्षेत्रमें नित्य निवास करते हैं। काशीपुरी परमानन्दरूपिणी है। मुने ! शिव और शिवाने प्रलयकालमें भी कभी उस क्षेत्रको अपने सांनिध्यसे मुक्त नहीं किया है। इसलिये विद्वान् पुरुष उसे ‘अविमुक्त क्षेत्र’ के नामसे भी जानते हैं। वह क्षेत्र आनन्दका हेतु है। इसलिये पिनाकधारी शिवने पहले उसका नाम ‘आनन्दवन’ रखा था। उसके बाद वह ‘अविमुक्त’ के नामसे प्रसिद्ध हुआ।
देवर्षे ! एक समय उस आनन्दवनमें रमण करते हुए शिवा और शिवके मनमें यह इच्छा हुई कि किसी दूसरे पुरुषकी भी सृष्टि करनी चाहिये, जिसपर यह सृष्टि-संचालनका महान् भार रखकर हम दोनों केवल काशीमें रहकर इच्छानुसार विचरें और निर्वाण धारण करें। वही पुरुष हमारे अनुग्रहसे सदा सबकी सृष्टि करे, पालन करे और वही अन्तमें सबका संहार भी करे। यह चित्त एक समुद्रके समान है। इसमें चिन्ताकी उत्ताल तरंगें उठ-उठकर इसे चंचल बनाये रहती हैं। इसमें सत्त्वगुणरूपी रत्न, तमो- गुणरूपी ग्राह और रजोगुणरूपी मूँगे भरे हुए हैं।
इस विशाल चित्त-समुद्रको संकुचित करके हम दोनों उस पुरुषके प्रसादसे आनन्दकानन (काशी)-में सुख- पूर्वक निवास करें। यह आनन्दवन वह स्थान है, जहाँ हमारी मनोवृत्ति सब ओरसे सिमिटकर इसीमें लगी हुई है तथा जिसके बाहरका जगत् चिन्तासे आतुर प्रतीत होता है। ऐसा निश्चय करके शक्तिसहित सर्वव्यापी परमेश्वर शिवने अपने वामभागके दसवें अंगपर अमृत मल दिया।
फिर तो वहाँसे एक पुरुष प्रकट हुआ, जो तीनों लोकोंमें सबसे अधिक सुन्दर था। वह शान्त था। उसमें सत्त्वगुणकी अधिकता थी तथा वह गम्भीरताका अथाह सागर था। मुने ! क्षमा नामक गुणसे युक्त उस पुरुषके लिये ढूँढ़नेपर भी कहीं कोई उपमा नहीं मिलती थी। उसकी कान्ति इन्द्रनील मणिके समान श्याम थी। उसके अंग-अंगसे दिव्य शोभा छिटक रही थी और नेत्र प्रफुल्ल कमलके समान शोभा पा रहे थे।
श्रीअंगोंपर सुवर्णकी- सी कान्तिवाले दो सुन्दर रेशमी पीताम्बर शोभा दे रहे थे। किसीसे भी पराजित न होनेवाला वह वीर पुरुष अपने प्रचण्ड भुजदण्डोंसे सुशोभित हो रहा था। तदनन्तर उस पुरुषने परमेश्वर शिवको प्रणाम करके कहा- ‘स्वामिन् ! मेरे नाम निश्चित कीजिये और काम बताइये। उस पुरुषकी यह बात सुनकर महेश्वर भगवान् शंकर हँसते हुए मेघके समान गम्भीर वाणीमें उससे बोले –
शिवने कहा-वत्स! व्यापक होनेके कारण तुम्हारा विष्णु नाम विख्यात हुआ। इसके सिवा और भी बहुत-से नाम होंगे, जो भक्तोंको सुख देनेवाले होंगे। तुम सुस्थिर उत्तम तप करो; क्योंकि वही समस्त कार्योंका साधन है।
ऐसा कहकर भगवान् शिवने श्वास- मार्गसे श्रीविष्णुको वेदोंका ज्ञान प्रदान किया। तदनन्तर अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले श्रीहरि भगवान् शिवको प्रणाम करके बड़ी भारी तपस्या करने लगे और शक्तिसहित परमेश्वर शिव भी पार्षदगणोंके साथ वहाँसे अदृश्य हो गये। भगवान् विष्णुने सुदीर्घ कालतक बड़ी कठोर तपस्या की। तपस्याके परिश्रमसे युक्त भगवान् विष्णुके अंगोंसे नाना प्रकारकी जलधाराएँ निकलने लगीं।
यह सब भगवान् शिवकी मायासे ही सम्भव हुआ। महामुने ! उस जलसे सारा सूना आकाश व्याप्त हो गया। वह ब्रह्मरूप जल अपने स्पर्शमात्रसे सब पापोंका नाश करनेवाला सिद्ध हुआ। उस समय थके हुए परम पुरुष विष्णुने स्वयं उस जलमें शयन किया। वे दीर्घकालतक बड़ी प्रसन्नताके साथ उसमें रहे। नार अर्थात् जलमें शयन करनेके कारण ही उनका ‘नारायण’ यह श्रुतिसम्मत नाम प्रसिद्ध हुआ।
उस समय उन परम पुरुष नारायणके सिवा दूसरी कोई प्राकृत वस्तु नहीं थी। उसके बाद ही उन महात्मा नारायणदेवसे यथासमय सभी तत्त्व प्रकट हुए। महामते ! विद्वन् ! मैं उन तत्त्वोंकी उत्पत्तिका प्रकार बता रहा हूँ। सुनो, प्रकृतिसे महत्तत्त्व प्रकट हुआ और महत्तत्त्वसे तीनों गुण। इन गुणोंके भेदसे ही त्रिविध अहंकारकी उत्पत्ति हुई। अहंकारसे पाँच तन्मात्राएँ हुईं और उन तन्मात्राओंसे पाँच भूत प्रकट हुए। उसी समय ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियोंका भी प्रादुर्भाव हुआ। मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार मैंने तुम्हें तत्त्वोंकी संख्या बतायी है। इनमेंसे पुरुषको छोड़कर शेष सारे तत्त्व प्रकृतिसे प्रकट हुए हैं, इसलिये सब-के-सब जड हैं। तत्त्वोंकी संख्या चौबीस है। उस समय एकाकार हुए चौबीस तत्त्वोंको ग्रहण करके वे परम पुरुष नारायण भगवान् शिवकी इच्छासे ब्रह्मरूप जलमें सो गये।
(अध्याय ६)