Shiv puran rudra samhita srishti khand chapter 16(शिव पुराण रुद्रसंहिता सृष्टि खंड अध्याय:16 स्वायम्भुव मनु और शतरूपाकी, ऋषियोंकी तथा दक्षकन्याओंकी संतानोंका वर्णन तथा सती और शिवकी महत्ताका प्रतिपादन)

(रुद्रसंहिता, प्रथम (सृष्टि) खण्ड)

Shiv puran rudra samhita srishti khand chapter 16(शिव पुराण रुद्रसंहिता सृष्टि खंड अध्याय:16 स्वायम्भुव मनु और शतरूपाकी, ऋषियोंकी तथा दक्षकन्याओंकी संतानोंका वर्णन तथा सती और शिवकी महत्ताका प्रतिपादन)

(अध्याय:16)

ब्रह्माजी कहते हैं- नारद ! तदनन्तर मैंने शब्दतन्मात्रा आदि सूक्ष्म-भूतोंको स्वयं ही पंचीकृत करके अर्थात् उन पाँचोंका परस्पर सम्मिश्रण करके उनसे स्थूल आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वीकी सृष्टि की। पर्वतों, समुद्रों और वृक्षों आदिको उत्पन्न किया। कलासे लेकर युगपर्यन्त जो काल-विभाग हैं, उनकी रचना की। मुने ! उत्पत्ति और विनाशवाले और भी बहुत-से पदार्थोंका मैंने निर्माण किया, परंतु इससे मुझे संतोष नहीं हुआ। तब साम्ब शिवका ध्यान करके मैंने

साधनपरायण पुरुषोंकी सृष्टि की। अपने दोनों नेत्रोंसे मरीचिको, हृदयसे भृगुको, सिरसे अंगिराको, व्यानवायुसे मुनिश्रेष्ठ पुलहको, उदानवायुसे पुलस्त्यको, समान- वायुसे वसिष्ठको, अपानसे क्रतुको, दोनों कानोंसे अत्रिको, प्राणोंसे दक्षको, गोदसे तुमको, छायासे कर्दम मुनिको तथा संकल्पसे समस्त साधनोंके साधन धर्मको उत्पन्न किया। मुनिश्रेष्ठ ! इस तरह इन उत्तम साधकोंकी सृष्टि करके महादेवजीकी कृपासे मैंने अपने-आपको कृतार्थ माना। तात! तत्पश्चात् संकल्पसे उत्पन्न हुए धर्म मेरी

आज्ञासे मानवरूप धारण करके साधकोंकी प्रेरणासे साधनमें लग गये। इसके बाद मैंने

अपने विभिन्न अंगोंसे देवता, असुर आदिके रूपमें असंख्य पुत्रोंकी सृष्टि करके उन्हें भिन्न-भिन्न शरीर प्रदान किये। मुने ! तदनन्तर अन्तर्यामी भगवान् शंकरकी प्रेरणासे अपने शरीरको दो भागोंमें विभक्त करके मैं दो रूपवाला हो गया। नारद ! आधे शरीरसे मैं स्त्री हो गया और आधेसे पुरुष। उस पुरुषने उस स्त्रीके गर्भसे सर्वसाधनसमर्थ उत्तम जोड़ेको उत्पन्न किया। उस जोड़ेमें जो पुरुष था, वही स्वायम्भुव मनुके नामसे प्रसिद्ध हुआ। स्वायम्भुव मनु उच्चकोटिके साधक हुए तथा जो स्त्री हुई, वह शतरूपा कहलायी। वह योगिनी एवं तपस्विनी हुई। तात ! मनुने वैवाहिक विधिसे अत्यन्त सुन्दरी शतरूपाका पाणिग्रहण किया और उससे वे मैथुनजनित सृष्टि उत्पन्न करने लगे। उन्होंने शतरूपासे

प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो पुत्र और

तीन कन्याएँ उत्पन्न कीं। कन्याओंके नाम थे-आकृति, देवहूति और प्रसूति। मनुने आकूतिका विवाह प्रजापति रुचिके साथ किया। मझली पुत्री देवहूति कर्दमको ब्याह दी और उत्तानपादकी सबसे छोटी बहिन प्रसूति प्रजापति दक्षको दे दी। उनकी संतान- परम्पराओंसे समस्त चराचर जगत् व्याप्त है। रुचिसे आकूतिके गर्भसे यज्ञ और दक्षिणा नामक स्त्री-पुरुषका जोड़ा उत्पन्न हुआ। यज्ञके दक्षिणासे बारह पुत्र हुए। मुने ! कर्दमद्वारा देवहूतिके गर्भसे बहुत-सी पुत्रियाँ उत्पन्न हुईं। दक्षके प्रसूतिसे चौबीस कन्याएँ हुईं। उनमेंसे श्रद्धा आदि तेरह कन्याओंका विवाह दक्षने धर्मके साथ कर दिया। मुनीश्वर ! धर्मकी उन पत्नियोंके नाम सुनो – श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लञ्जा, वसु, शान्ति, सिद्धि और कीर्ति- ये सब तेरह हैं। इनसे छोटी जो शेष ग्यारह सुलोचना कन्याएँ थीं, उनके नाम इस प्रकार हैं- ख्याति, सती, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, संनति, अनसूया, ऊर्जा, स्वाहा तथा स्वधा। भृगु, शिव, मरीचि, अंगिरा मुनि, पुलस्त्य, पुलह, मुनिश्रेष्ठ क्रतु, अत्रि, वसिष्ठ, अग्नि और पितरोंने क्रमशः इन ख्याति आदि कन्याओंका पाणिग्रहण किया। भृगु आदि मुनिश्रेष्ठ साधक हैं। इनकी संतानोंसे चराचर प्राणियोंसहित सारी त्रिलोकी भरी हुई है।

इस प्रकार अम्बिकापति महादेवजीकी आज्ञासे अपने पूर्वकर्मोंके अनुसार बहुत-से प्राणी असंख्य श्रेष्ठ द्विजोंके रूपमें उत्पन्न हुए। कल्पभेदसे दक्षके साठ कन्याएँ बतायी

गयी हैं। उनमेंसे दस कन्याओंका विवाह उन्होंने धर्मके साथ किया। सत्ताईस कन्याएँ चन्द्रमाको ब्याह दीं और विधिपूर्वक तेरह कन्याओंके हाथ दक्षने कश्यपके हाथमें दे दिये। नारद ! उन्होंने चार कन्याएँ श्रेष्ठ रूपवाले तार्थ्य (अरिष्टनेमि) को ब्याह दीं तथा भृगु, अंगिरा और कृशाश्वको दो- दो कन्याएँ अर्पित कीं। उन स्त्रियोंसे उनके पतियोंद्वारा बहुसंख्यक चराचर प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई। मुनिश्रेष्ठ ! दक्षने महात्मा कश्यपको जिन तेरह कन्याओंका विधिपूर्वक दान दिया था, उनकी संतानोंसे सारी त्रिलोकी व्याप्त है। स्थावर और जंगम कोई भी सृष्टि ऐसी नहीं है, जो कश्यपकी संतानोंसे शून्य हो। देवता, ऋषि, दैत्य, वृक्ष, पक्षी, पर्वत तथा तृण-लता आदि सभी कश्यपपत्नियोंसे पैदा हुए हैं। इस प्रकार दक्ष-कन्याओंकी संतानोंसे सारा चराचर जगत् व्याप्त है। पातालसे लेकर सत्यलोकपर्यन्त समस्त ब्रह्माण्ड निश्चय ही उनकी संतानोंसे सदा भरा रहता है, कभी खाली नहीं होता।

इस तरह भगवान् शंकरकी आज्ञासे ब्रह्माजीने भलीभाँति सृष्टि की। पूर्वकालमें सर्वव्यापी शम्भुने जिन्हें तपस्याके लिये प्रकट किया था तथा रुद्रदेवने त्रिशूलके अग्रभागपर रखकर जिनकी सदा रक्षा की है, वे ही सतीदेवी लोकहितका कार्य सम्पादित करनेके लिये दक्षसे प्रकट हुई

थीं। उन्होंने भक्तोंके उद्धारके लिये अनेक लीलाएँ कीं। इस प्रकार देवी शिवा ही सती होकर भगवान् शंकरसे ब्याही गयीं; किंतु पिताके यज्ञमें पतिका अपमान देख उन्होंने अपने शरीरको त्याग दिया और फिर उसे ग्रहण नहीं किया। वे अपने परमपदको प्राप्त हो गयीं। फिर देवताओंकी प्रार्थनासे वे ही शिवा पार्वतीरूपमें प्रकट हुईं और बड़ी भारी तपस्या करके पुनः भगवान् शिवको उन्होंने प्राप्त कर लिया। मुनीश्वर ! इस जगत्में उनके अनेक नाम प्रसिद्ध हुए। उनके कालिका, चण्डिका, भद्रा, चामुण्डा, विजया, जया, जयन्ती, भद्रकाली, दुर्गा, भगवती, कामाख्या, कामदा, अम्बा, मृडानी और सर्वमंगला आदि अनेक नाम हैं, जो भोग और मोक्ष देनेवाले हैं। ये सभी नाम उनके गुण और कर्मोंके अनुसार हैं।

मुनिश्रेष्ठ नारद ! इस प्रकार मैंने सृष्टिक्रमका तुमसे वर्णन किया है। ब्रह्माण्डका यह सारा भाग भगवान् शिवकी आज्ञासे मेरे द्वारा रचा गया है। भगवान् शिवको परब्रह्म परमात्मा कहा गया है। मैं, विष्णु तथा रुद्र- ये तीन देवता गुणभेदसे उन्हींके रूप बतलाये गये हैं। वे मनोरम शिवलोकमें शिवाके साथ स्वच्छन्द विहार करते हैं। भगवान् शिव स्वतन्त्र परमात्मा हैं। निर्गुण और सगुण भी वे ही हैं।

(अध्याय १६)

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