Shiv puran rudra samhita sati khand chapter 7 to 10(शिव पुराण रुद्रसंहिता सती सृष्टि खंड अध्याय:6 से 10 संध्याकी आत्माहुति, उसका अरुन्धतीके रूपमें अवतीर्ण होकर मुनिवर वसिष्ठके साथ विवाह करना, ब्रह्माजीका रुद्रके विवाहके लिये प्रयत्न और चिन्ता तथा भगवान् विष्णुका उन्हें ‘शिवा’ की आराधनाके लिये उपदेश देकर चिन्तामुक्त करना)

रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खण्ड))

Shiv puran rudra samhita sati khand chapter 7 to 10(शिव पुराण रुद्रसंहिता सती सृष्टि खंड अध्याय:7 से 10 संध्याकी आत्माहुति, उसका अरुन्धतीके रूपमें अवतीर्ण होकर मुनिवर वसिष्ठके साथ विवाह करना, ब्रह्माजीका रुद्रके विवाहके लिये प्रयत्न और चिन्ता तथा भगवान् विष्णुका उन्हें ‘शिवा’ की आराधनाके लिये उपदेश देकर चिन्तामुक्त करना)

(अध्याय:6 से 10)

:-ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! जब वर देकर भगवान् शंकर अन्तर्धान हो गये, तब संध्या भी उसी स्थानपर गयी, जहाँ मुनि मेधातिथि यज्ञ कर रहे थे। भगवान् शंकरकी कृपासे उसे किसीने वहाँ नहीं देखा। उसने उस तेजस्वी ब्रह्मचारीका स्मरण किया, जिसने उसके लिये तपस्याकी विधिका उपदेश दिया था। महामुने ! पूर्वकालमें महर्षि वसिष्ठने मुझ परमेष्ठीकी आज्ञासे एक तेजस्वी ब्रह्मचारीका वेष धारण करके उसे तपस्या करनेके लिये उपयोगी

 

नियमोंका उपदेश दिया था। संध्या अपनेको तपस्याका उपदेश देनेवाले उन्हीं ब्रह्मचारी ब्राह्मण वसिष्ठको पतिरूपसे मनमें रखकर उस महायज्ञमें प्रज्वलित अग्निके समीप गयी। उस समय भगवान् शंकरकी कृपासे मुनियोंने उसे नहीं देखा। ब्रह्माजीकी वह पुत्री बड़े हर्षके साथ उस अग्निमें प्रविष्ट हो गयी। उसका पुरोडाशमय * शरीर तत्काल दग्ध हो गया। उस पुरोडाशकी अलक्षित गन्ध सब ओर फैल गयी। अग्निने भगवान् शंकरकी

आज्ञासे उसके सुवर्ण-जैसे शरीरको जलाकर शुद्ध करके पुनः सूर्यमण्डलमें पहुँचा दिया। तब सूर्यने पितरों और देवताओं- की तृप्तिके लिये उसे दो भागोंमें विभक्त करके अपने रथमें स्थापित कर दिया।

मुनीश्वर ! उसके शरीरका ऊपरी भाग प्रातःसंध्या हुआ, जो दिन और रातके बीचमें पड़नेवाली आदिसंध्या है तथा उसके शरीरका शेष भाग सायंसंध्या हुआ, जो दिन और रातके मध्यमें होनेवाली अन्तिम संध्या है! सायंसंध्या सदा ही पितरोंको प्रसन्नता प्रदान करनेवाली होती है।

सूर्योदयसे पहले जब अरुणोदय हो – प्राचीके क्षितिजमें लाली छा जाय, तब प्रातःसंध्या प्रकट होती है, जो देवताओंको प्रसन्न करनेवाली है। जब लाल कमलके समान सूर्य अस्त हो जाते हैं, उसी समय सदा सायंसंध्याका उदय होता है, जो पितरोंको आनन्द प्रदान करनेवाली है।

 

परम दयालु भगवान् शिवने उसके मनसहित प्राणोंको दिव्य शरीरसे युक्त देहधारी बना दिया। जब मुनिके यज्ञकी समाप्तिका अवसर आया, तब वह अग्निकी ज्वालामें महर्षि मेधातिथिको तपाये हुए सुवर्णकी-सी कान्तिवाली पुत्रीके रूपमें प्राप्त हुई।

 

मुनिने बड़े आमोदके साथ उस समय उस पुत्रीको ग्रहण किया। मुने ! उन्होंने यज्ञके लिये उसे नहलाकर अपनी गोदमें बिठा लिया। शिष्योंसे घिरे हुए महामुनि मेधातिथिको वहाँ बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ। उन्होंने उसका नाम ‘अरुन्धती’ रखा। वह किसी भी कारणसे धर्मका अवरोध नहीं करती थी; अतः उसी गुणके कारण उसने स्वयं यह त्रिभुवन-विख्यात नाम प्राप्त किया।

 

देवर्षे ! यज्ञको समाप्त करके कृतकृत्य हो वे मुनि पुत्रीकी प्राप्ति होनेसे बहुत प्रसन्न थे और अपने शिष्योंके साथ आश्रममें रहकर सदा उसीका लालन-पालन करते थे। देवी अरुन्धती चन्द्रभागा नदीके तटपर तापसारण्यके भीतर मुनिवर मेधातिथिके उस आश्रममें धीरे-धीरे बड़ी होने लगी।

 

जब वह विवाहके योग्य हो गयी, तब मैंने, विष्णु तथा महेश्वरने मिलकर मुझ ब्रह्माके पुत्र वसिष्ठके साथ उसका विवाह करा दिया। ब्रह्मा, विष्णु तथा महेशके हाथोंसे निकले हुए जलसे शिप्रा आदि सात परम पवित्र नदियाँ उत्पन्न हुईं।

मुने ! मेधातिथिकी पुत्री महासाध्वी अरुन्धती समस्त पतिव्रताओंमें श्रेष्ठ थी,वह महर्षि वसिष्ठको पतिरूपमें पाकर उनके साथ बड़ी शोभा पाने लगी। उससे शक्ति आदि शुभ एवं श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हुए। मुनिश्रेष्ठ ! वह प्रियतम पति वसिष्ठको पाकर विशेष शोभा पाने लगी।

 

मुनि- शिरोमणे ! इस प्रकार मैंने तुम्हारे समक्ष संध्याके पवित्र चरित्रका वर्णन किया है, जो समस्त कामनाओंके फलोंको देनेवाला, परम पावन और दिव्य है। जो स्त्री या शुभ व्रतका आचरण करनेवाला पुरुष इस प्रसंगको सुनता है, वह सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है। इसमें अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है।

प्रजापति ब्रह्माजीकी यह बात सुनकर नारदजीका मन प्रसन्न हो गया और वे इस प्रकार बोले। नारदजीने कहा-ब्रह्मन् ! आपने अरुन्धतीकी तथा पूर्वजन्ममें उसकी स्वरूपभूता संध्याकी बड़ी उत्तम दिव्य कथा सुनायी है, जो शिवभक्तिकी वृद्धि करनेवाली है।

 

धर्मज्ञ ! अब आप भगवान् शिवके उस परम पवित्र चरित्रका वर्णन कीजिये, जो दूसरोंके पापोंका विनाश करनेवाला, उत्तम एवं मंगलदायक है। जब कामदेव रतिसे विवाह करके हर्षपूर्वक चला गया, दक्ष आदि अन्य मुनि भी जब अपने-अपने स्थानको पधारे और जब संध्या तपस्या करनेके लिये चली गयी, उसके बाद वहाँ क्या हुआ ?

ब्रह्माजीने कहा-विप्रवर नारद ! तुम धन्य हो, भगवान् शिवके सेवक हो; अतः शिवकी लीलासे युक्त जो उनका शुभ चरित्र है, उसे भक्तिपूर्वक सुनो। तात ! पूर्वकालमें मैं एक बार जब मोहमें पड़ गया और भगवान् शंकरने मेरा उपहास किया,तब मुझे बड़ा क्षोभ हुआ था।

 

वस्तुतः शिवकी मायाने मुझे मोह लिया था, इसलिये मैं भगवान् शिवके प्रति ईर्ष्या करने लगा। किस प्रकार, सो बताता हूँ; सुनो। मैं उस स्थानपर गया, जहाँ दक्षराज मुनि उपस्थित थे। वहीं रतिके साथ कामदेव भी था। नारद ! उस समय मैंने बड़ी प्रसन्नताके साथ दक्ष तथा दूसरे पुत्रोंको सम्बोधित करके वार्तालाप आरम्भ किया।

 

उस वार्तालापके समय मैं शिवकी मायासे पूर्णतया मोहित था; अतः मैंने कहा – ‘पुत्रो! तुम्हें ऐसा प्रयत्न करना चाहिये, जिससे महादेवजी किसी कमनीय कान्तिवाली स्त्रीका पाणिग्रहण करें।’ इसके बाद मैंने भगवान् शिवको मोहित करनेका भार रतिसहित कामदेवको सौंपा।

 

कामदेवने मेरी आज्ञा मानकर कहा – ‘प्रभो! सुन्दरी स्त्री ही मेरा अस्त्र है, अतः शिवजीको मोहित करनेके लिये किसी नारीकी सृष्टि कीजिये।’ यह सुनकर मैं चिन्तामें पड़ गया और लंबी साँस खींचने लगा। मेरे उस निःश्वाससे राशि-राशि पुष्पोंसे विभूषित वसन्तका प्रादुर्भाव हुआ। वसन्त और मलयानिल- ये दोनों मदनके सहायक हुए।

 

इनके साथ जाकर कामदेवने वामदेवको मोहनेकी बारंबार चेष्टा की, परंतु उसे सफलता न मिली। जब वह निराश होकर लौट आया, तब उसकी बात सुनकर मुझे बड़ा दुःख हुआ। उस समय मेरे मुखसे जो निःश्वास वायु चली, उससे मारगणोंकी उत्पत्ति हुई।

 

उन्हें मदनकी सहायताके लिये आदेश देकर मैंने पुनः उन सबको शिवजीके पास भेजा, परंतु महान् प्रयत्न करनेपर भी वे भगवान् शिवको मोहमें न डाल सके। काम सपरिवार लौट आया और मुझे प्रणाम करके अपने स्थानको चला गया।

उसके चले जानेपर मैं मन-ही-मन सोचने लगा कि निर्विकार तथा मनको वशमें रखनेवाले योगपरायण भगवान् शंकर किसी स्त्रीको अपनी सहधर्मिणी बनाना कैसे स्वीकार करेंगे। यही सोचते-सोचते मैंने भक्तिभावसे उन भगवान् श्रीहरिका स्मरण किया, जो साक्षात् शिवस्वरूप तथा मेरे शरीरके जन्मदाता हैं।

 

मैंने दीन वचनोंसे युक्त शुभ स्तोत्रोंद्वारा उनकी स्तुति की। उस स्तुतिको सुनकर भगवान् शीघ्र ही मेरे सामने प्रकट हो गये। उनके चार भुजाएँ शोभा पाती थीं। नेत्र प्रफुल्ल कमलके समान सुन्दर थे। उन्होंने हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म ले रखे थे। उनके श्याम शरीरपर पीताम्बरकी बड़ी शोभा हो रही थी।

 

वे भगवान् श्रीहरि भक्त-प्रिय हैं- अपने भक्त उन्हें बहुत प्यारे हैं। सबके उत्तम शरणदाता उन श्रीहरिको उस रूपमें देखकर मेरे नेत्रोंसे प्रेमाश्रुओंकी धारा बह चली और मैं गद्गद कण्ठसे बारंबार उनकी स्तुति करने लगा। मेरे उस स्तोत्रको सुनकर अपने भक्तोंके दुःख दूर करनेवाले भगवान् विष्णु बहुत प्रसन्न हुए और शरणमें आये हुए मुझ ब्रह्मासे बोले – ‘महाप्राज्ञ विधातः ! लोकस्स्रष्टा ब्रह्मन् !

 

तुम धन्य हो। बताओ, तुमने किसलिये आज मेरा स्मरण ` किया है और किस निमित्तसे यह स्तुति की जा रही है? तुमपर कौन-सा महान् दुःख आ पड़ा है? उसे मेरे सामने इस समय कहो। मैं वह सारा दुःख मिटा दूँगा। इस विषयमें कोई संदेह या अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये।’

 

तब ब्रह्माजीने सारा प्रसंग सुनाकर कहा- ‘केशव ! यदि भगवान् शिव किसी तरह पत्नीको ग्रहण कर लें तो मैं सुखी हो जाऊँगा, मेरे अन्तःकरणका सारा दुःख दूर हो जायगा। इसीके लिये मैं आपकी शरणमें आया हूँ।’

मेरी यह बात सुनकर भगवान् मधुसूदन हँस पड़े और मुझ लोकस्रष्टा ब्रह्माका हर्ष बढ़ाते हुए मुझसे शीघ्र ही यों बोले – “विधातः ! तुम मेरा वचन सुनो। यह तुम्हारे भ्रमका निवारण करनेवाला है। मेरा वचन ही वेद-शास्त्र आदिका वास्तविक सिद्धान्त है। शिव ही सबके कर्ता-भर्ता (पालक) और हर्ता (संहारक) हैं।

 

वे ही परात्पर हैं। परब्रह्म, परेश, निर्गुण, नित्य, अनिर्देश्य, निर्विकार, अद्वितीय, अच्युत, अनन्त, सबका अन्त करनेवाले, स्वामी और सर्वव्यापी परमात्मा एवं परमेश्वर हैं।

 

सृष्टि, पालन और संहारके कर्ता, तीनों गुणोंको आश्रय देनेवाले, व्यापक, ब्रह्मा, विष्णु और महेश नामसे प्रसिद्ध, रजोगुण, सत्त्वगुण तथा तमोगुणसे परे, मायासे ही भेदयुक्त प्रतीत होनेवाले, निरीह, मायारहित, मायाके स्वामी या प्रेरक, चतुर, सगुण, स्वतन्त्र, आत्मानन्दस्वरूप, निर्विकल्प, आत्माराम, निर्द्वन्द्व, भक्तपरवश, सुन्दर विग्रहसे सुशोभित योगी, नित्य योगपरायण, योग-मार्गदर्शक, गर्वहारी, लोकेश्वर और सदा दीनवत्सल हैं। तुम उन्हींकी शरणमें जाओ।

सर्वात्मना शम्भुका भजन करो। इससे संतुष्ट होकर वे तुम्हारा कल्याण करेंगे। ब्रह्मन् ! यदि तुम्हारे मनमें यह विचार हो कि शंकर पत्नीका पाणिग्रहण करें तो शिवाको प्रसन्न करनेके उद्देश्यसे शिवका स्मरण करते हुए उत्तम तपस्या करो। अपने उस मनोरथको हृदयमें रखते हुए देवी शिवाका ध्यान करो।

 

वे देवेश्वरी यदि प्रसन्न हो जायँ तो सारा कार्य सिद्ध कर देंगी। यदि शिवा सगुणरूपसे अवतार ग्रहण करके लोकमें किसीकी पुत्री हो मानवशरीर ग्रहण करें तो वे निश्चय ही महादेवजीकी पत्नी हो सकती हैं। ब्रह्मन् ! तुम दक्षको आज्ञा दो, वे भगवान् शिवके लिये पत्नीका उत्पादन करनेके निमित्त स्वतः भक्तिभावसे प्रयत्नपूर्वक तपस्या करें।

 

तात! शिवा और शिव दोनोंको भक्तके अधीन जानना चाहिये। वे निर्गुण परब्रह्मस्वरूप होते हुए भी स्वेच्छासे सगुण हो जाते हैं।

‘विधे! भगवान् शिवकी इच्छासे प्रकट हुए हम दोनोंने जब उनसे प्रार्थना की थी, तब पूर्वकालमें भगवान् शंकरने जो बात कही थी, उसे याद करो। ब्रह्मन् ! अपनी शक्तिसे सुन्दर लीला-विहार करनेवाले निर्गुण शिवने स्वेच्छासे सगुण होकर मुझको और तुमको प्रकट करनेके पश्चात् तुम्हें तो सृष्टि-कार्य करनेका आदेश दिया और उमासहित उन अविनाशी सृष्टिकर्ता प्रभुने मुझे उस सृष्टिके पालनका कार्य सौंपा।

 

फिर नाना लीला-विशारद उन दयालु स्वामीने हँसकर आकाशकी ओर देखते हुए बड़े प्रेमसे कहा – विष्णो ! मेरा उत्कृष्ट रूप इन विधाताके अंगसे इस लोकमें प्रकट होगा, जिसका नाम रुद्र होगा।

 

रुद्रका रूप ऐसा ही होगा, जैसा मेरा है। वह मेरा पूर्णरूप होगा, तुम दोनोंको सदा उसकी पूजा करनी चाहिये। वह तुम दोनोंके सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि करनेवाला होगा। वही जगत्‌का प्रलय करनेवाला होगा। वह समस्त गुणोंका द्रष्टा, निर्विशेष एवं उत्तम योगका पालक होगा।

 

यद्यपि तीनों देवता मेरे ही रूप हैं, तथापि विशेषतः रुद्र मेरा पूर्णरूप होगा। पुत्रो ! देवी उमाके भी तीन रूप होंगे। एक रूपका नाम लक्ष्मी होगा, जो इन श्रीहरिकी पत्नी होंगी। दूसरा रूप ब्रह्मपत्नी सरस्वती हैं। तीसरा रूप सतीके नामसे प्रसिद्ध होगा। सती उमाका पूर्णरूप होंगी। वे ही भावी रुद्रकी पत्नी होंगी।’

“ऐसा कहकर भगवान् महेश्वर हमपर कृपा करनेके पश्चात् वहाँसे अन्तर्धान हो गये और हम दोनों सुखपूर्वक अपने-अपने कार्यमें लग गये। ब्रह्मन् ! समय पाकर मैं और तुम दोनों सपत्नीक हो गये और साक्षात् भगवान् शंकर रुद्रनामसे अवतीर्ण हुए। वे इस समय कैलास पर्वतपर निवास करते हैं। प्रजेश्वर ! अब शिवा भी सती नामसे अवतीर्ण होनेवाली हैं। अतः तुम्हें उनके उत्पादनके लिये ही यत्न करना चाहिये।”

ऐसा कहकर मुझपर बड़ी भारी दया करके भगवान् विष्णु अन्तर्धान हो गये और मुझे उनकी बातें सुनकर बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ।

(अध्याय ७-१०)

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