Shiv puran rudra samhita sati khand chapter 39(शिव पुराण रुद्रसंहिता सती खंड अध्याय 39 श्रीविष्णु और देवताओंसे अपराजित दधीचिका उनके लिये शाप और क्षुवपर अनुग्रह)

(रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खण्ड))

Shiv puran rudra samhita sati khand chapter 39(शिव पुराण रुद्रसंहिता सती खंड अध्याय 39 श्रीविष्णु और देवताओंसे अपराजित दधीचिका उनके लिये शाप और क्षुवपर अनुग्रह)

(अध्याय 39)

:-ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! भक्तवत्सल भगवान् विष्णु राजा क्षुवका हित-साधन करनेके लिये ब्राह्मणका रूप धारणकर दधीचिके आश्रमपर गये। वहाँ उन जगद्‌गुरु श्रीहरिने शिवभक्तशिरोमणि ब्रह्मर्षि दधीचिको प्रणाम करके क्षुवके कार्यकी सिद्धिके लिये उद्यत हो उनसे यह बात कही।

श्रीविष्णु बोले- भगवान् शिवकी आराधनामें तत्पर रहनेवाले अविनाशी ब्रह्मर्षि दधीचि ! मैं तुमसे एक वर माँगता हूँ। उसे तुम मुझे दे दो।क्षुवके कार्यकी सिद्धि चाहनेवाले देवाधिदेव श्रीहरिके इस प्रकार याचना करनेपर शैवशिरोमणि दधीचिने शीघ्र ही भगवान् विष्णुसे इस प्रकार कहा।

दधीचि बोले- ब्रह्मन् ! आप क्या चाहते हैं, यह मुझे ज्ञात हो गया। आप क्षुवका काम बनानेके लिये साक्षात् भगवान् श्रीहरि ही ब्राह्मणका रूप धारण करके यहाँ आये हैं। इसमें संदेह नहीं कि आप पूरे मायावी हैं। किंतु देवेश ! जनार्दन ! मुझे भगवान् रुद्रकी कृपासे भूत, भविष्य और वर्तमान – तीनों कालोंका ज्ञान सदा ही बना रहता है। सुव्रत ! मैं आपको जानता हूँ।

 

आप पापहारी श्रीहरि एवं विष्णु हैं। यह ब्राह्मणका वेश छोड़िये। दुष्टबुद्धिवाले राजा क्षुवने आपकी आराधना की है। (इसीलिये आप पधारे हैं) भगवन् ! हरे ! आपकी भक्तवत्सलताको भी मैं जानता हूँ। यह छल छोड़िये। अपने रूपको ग्रहण कीजिये और भगवान् शंकरके स्मरणमें मन लगाइये।

 

मैं भगवान् शंकरकी आराधनामें लगा रहता हूँ। ऐसी दशामें भी यदि मुझसे किसीको भय हो तो आप उसे यत्नपूर्वक सत्यकी शपथके साथ कहिये। मेरा मन शिवके स्मरणमें ही लगा रहता है। मैं कभी झूठ नहीं बोलता। इस संसारमें किसी देवता या दैत्यसे भी मुझे भय नहीं होता।

श्रीविष्णु बोले-उत्तम व्रतका पालन करनेवाले दधीचि ! तुम्हारा भय सर्वथा नष्ट ही है; क्योंकि तुम शिवकी आराधनामें तत्पर रहते हो। इसीलिये सर्वज्ञ हो। परंतु मेरे कहनेसे तुम एक बार अपने प्रतिद्वन्द्वी राजा क्षुवसे जाकर कह दो कि ‘राजेन्द्र ! मैं तुमसे डरता हूँ।’

भगवान् विष्णुका यह वचन सुनकर भी शैवशिरोमणि महामुनि दधीचि निर्भय ही रहे और हँसकर बोले।दधीचिने कहा- मैं देवाधिदेव पिनाकपाणि भगवान् शम्भुके प्रसादसे कहीं, कभी किसीसे और किंचिन्मात्र भी नहीं डरता – सदा ही निर्भय रहता हूँ।

इसपर श्रीहरिने मुनिको दबानेकी चेष्टा की। देवताओंने भी उनका साथ दिया; किंतु सबके सभी अस्त्र कुण्ठित हो गये। तदनन्तर भगवान् श्रीविष्णुने अगणित गणोंकी सृष्टि की। परंतु महर्षिने उनको भी भस्म कर दिया। तब भगवान्ने अपनी अनन्त विष्णुमूर्ति प्रकट की। यह सब देखकर च्यवनकुमारने वहाँ जगदीश्वर भगवान् विष्णुसे कहा।

दधीचि बोले-महाबाहो ! मायाको त्याग दीजिये। विचार करनेसे यह प्रतिभासमात्र प्रतीत होती है। माधव ! मैंने सहस्त्रों दुर्विज्ञेय वस्तुओंको जान लिया है। आप मुझमें अपने सहित सम्पूर्ण जगत्को देखिये। निरालस्य होकर मुझमें ब्रह्मा एवं रुद्रका भी दर्शन कीजिये। मैं आपको दिव्य दृष्टि देता हूँ।

ऐसा कहकर भगवान् शिवके तेजसे पूर्ण शरीरवाले च्यवनकुमार दधीचि मुनिने अपनी देहमें समस्त ब्रह्माण्डका दर्शन कराया। तब भगवान् विष्णुने उनपर पुनः कोप करना चाहा। इतनेमें ही मेरे साथ राजा क्षुव वहाँ आ पहुँचे। मैंने निश्चेष्ट खड़े हुए भगवान् पद्मनाभको तथा देवताओंको क्रोध करनेसे रोका।

 

मेरी बात सुनकर इन लोगोंने ब्राह्मण दधीचिको परास्त नहीं किया। श्रीहरि उनके पास गये और उन्होंने मुनिको प्रणाम किया। तदनन्तर ध्रुव अत्यन्त दीन हो उन मुनीश्वर दधीचिके निकट गये और उन्हें प्रणाम करके प्रार्थना करने लगे।

क्षुव बोले-मुनिश्रेष्ठ ! शिवभक्त- शिरोमणे ! मुझपर प्रसन्न होइये। परमेश्वर ! आप दुर्जनोंकी दृष्टिसे दूर रहनेवाले हैं। मुझपर कृपा कीजिये।

ब्रह्माजी कहते हैं- नारद ! राजा क्षुवकी यह बात सुनकर तपस्याकी निधि ब्राह्मण दधीचिने उनपर अनुग्रह किया। तत्पश्चात् श्रीविष्णु आदिको देखकर वे मुनि क्रोधसे व्याकुल हो गये और मन-ही-मन शिवका स्मरण करके विष्णु तथा देवताओंको शाप देने लगे।

दधीचिने कहा- देवराज इन्द्रसहित देवताओ और मुनीश्वरो ! तुमलोग रुद्रकी क्रोधाग्निसे श्रीविष्णु तथा अपने गणोंसहित पराजित और ध्वस्त हो जाओ।देवताओंको इस तरह शाप दे क्षुवकी ओर देखकर देवताओं और राजाओंके पूजनीय द्विजश्रेष्ठ दधीचिने कहा- ‘राजेन्द्र ! ब्राह्मण ही बली और प्रभावशाली होते हैं।’ ऐसा स्पष्टरूपसे कहकर ब्राह्मण दधीचि अपने आश्रममें प्रविष्ट हो गये।

 

फिर दधीचिको नमस्कारमात्र करके ध्रुव अपने घर चले गये। तत्पश्चात् भगवान् विष्णु देवताओंके साथ जैसे आये थे, उसी तरह अपने वैकुण्ठलोकको लौट गये। इस प्रकार वह स्थान स्थानेश्वर नामक तीर्थके रूपमें प्रसिद्ध हो गया। स्थानेश्वरकी यात्रा करके मनुष्य शिवका सायुज्य प्राप्त कर लेता है।

 

तात ! मैंने तुम्हें संक्षेपसे क्षुव और दधीचिके विवादकी कथा सुनायी और भगवान् शंकरको छोड़कर केवल ब्रह्मा और विष्णुको ही जो शाप प्राप्त हुआ, उसका भी वर्णन किया। जो ध्रुव और दधीचिके विवादसम्बन्धी इस प्रसंगका नित्य पाठ करता है, वह अपमृत्युको जीतकर देहत्यागके पश्चात् ब्रह्मलोकमें जाता है। जो इसका पाठ करके रणभूमिमें प्रवेश करता है, उसे कभी मृत्युका भय नहीं होता तथा वह निश्चय ही विजयी होता है।

(अध्याय ३९)

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