(रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खण्ड))
Shiv puran rudra samhita sati khand chapter 38(शिव पुराण रुद्रसंहिता सती खंड अध्याय 38 श्रीविष्णुकी पराजयमें दधीचि मुनिके शापको कारण बताते हुए दधीचि और क्षुवके विवादका इतिहास, मृत्युंजय-मन्त्रके अनुष्ठानसे दधीचिकी अवध्यता तथा श्रीहरिका क्षुवको दधीचिकी पराजयके लिये यत्न करनेका आश्वासन)
(अध्याय 38)
:-सूतजी कहते हैं-महर्षियो ! अमित बुद्धिमान् ब्रह्माजीकी कही हुई यह कथा सुनकर द्विजश्रेष्ठ नारद विस्मयमें पड़ गये। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक प्रश्न किया।
नारदजीने पूछा-पिताजी ! भगवान् विष्णु शिवजीको छोड़कर अन्य देवताओंके साथ दक्षके यज्ञमें क्यों चले गये, जिसके कारण वहाँ उनका तिरस्कार हुआ ? क्या वे प्रलयकारी पराक्रमवाले भगवान् शंकरको नहीं जानते थे ? फिर उन्होंने अज्ञानी पुरुषकी भाँति रुद्रगणोंके साथ युद्ध क्यों किया ?
करुणानिधे! मेरे मनमें यह बहुत बड़ा संदेह है। आप कृपा करके मेरे इस संशयको नष्ट कर दीजिये और प्रभो ! मनमें उत्साह पैदा करनेवाले शिवचरितको कहिये।
ब्रह्माजीने कहा-नारद ! पूर्वकालमें राजा क्षुवकी सहायता करनेवाले श्रीहरिको दधीचि मुनिने शाप दे दिया था, जिससे उस समय वे इस बातको भूल गये और वे दूसरे देवताओंको साथ ले दक्षके यज्ञमें चले गये। दधीचिने क्यों शाप दिया, यह सुनो। प्राचीनकालमें ध्रुव नामसे प्रसिद्ध एक महातेजस्वी राजा हो गये हैं।
वे महाप्रभावशाली मुनीश्वर दधीचिके मित्र थे। दीर्घकालकी तपस्याके प्रसंगसे क्षुव और दधीचिमें विवाद आरम्भ हो गया, जो तीनों लोकोंमें महान् अनर्थकारीके रूपमें विख्यात हुआ। उस विवादमें वेदके विद्वान् शिवभक्त दधीचि कहते थे कि शूद्र, वैश्य और क्षत्रिय – इन तीनों वर्णोंसे ब्राह्मण ही श्रेष्ठ है, इसमें संशय नहीं है।
महामुनि दधीचिकी वह बात सुनकर धन-वैभवके मदसे मोहित हुए राजा क्षुवने उसका इस प्रकार प्रतिवाद किया।क्षुव बोले-राजा इन्द्र आदि आठ लोकपालोंके स्वरूपको धारण करता है। वह समस्त वर्णों और आश्रमोंका पालक एवं प्रभु है।
इसलिये राजा ही सबसे श्रेष्ठ है। राजाकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन करनेवाली श्रुति भी कहती है कि राजा सर्वदेवमय है। मुने ! इस श्रुतिके कथनानुसार जो सबसे बड़ा देवता है, वह मैं ही हूँ। इस विवेचनसे ब्राह्मणकी अपेक्षा राजा ही श्रेष्ठ सिद्ध होता है। च्यवननन्दन ! आप इस विषयमें विचार करें और मेरा अनादर न करें; क्योंकि मैं सर्वथा आपके लिये पूजनीय हूँ।
राजा क्षुवका यह मत श्रुतियों और स्मृतियोंके विरुद्ध था। इसे सुनकर भृगुकुलभूषण मुनिश्रेष्ठ दधीचिको बड़ा क्रोध हुआ। मुने ! अपने गौरवका विचार करके कुपित हुए महातेजस्वी दधीचिने ध्रुवके मस्तकपर बायें मुक्केसे प्रहार किया। उनके मुक्केकी मार खाकर ब्रह्माण्डके अधिपति कुत्सित बुद्धिवाले क्षुव अत्यन्त कुपित हो गरज उठे और उन्होंने वज्रसे दधीचिको काट डाला।
उस वज्रसे आहत हो भृगुवंशी दधीचि पृथ्वीपर गिर पड़े। भार्गववंशधर दधीचिने गिरते समय शुक्राचार्यका स्मरण किया। योगी शुक्राचार्यने आकर दधीचिके शरीरको, जिसे क्षुवने काट डाला था, तुरंत जोड़ दिया। दधीचिके अंगोंको पूर्ववत् जोड़कर शिवभक्तशिरोमणि तथा मृत्युंजय- विद्याके प्रवर्तक शुक्राचार्यने उनसे कहा।
शुक्र बोले-तात दधीचि ! मैं सर्वेश्वर भगवान् शिवका पूजन करके तुम्हें श्रुतिप्रतिपादित महामृत्युंजय नामक श्रेष्ठ मन्त्रका उपदेश देता हूँ।
‘त्र्यम्बकं यजामहे’- हम भगवान् त्र्यम्बकका यजन (आराधन) करते हैं। त्र्यम्बकका अर्थ है-तीनों लोकोंके पिता प्रभावशाली शिव। वे भगवान् सूर्य, सोम और अग्नि – तीनों मण्डलोंके पिता हैं। सत्त्व, रज और तम – तीनों गुणोंके महेश्वर हैं।
आत्मतत्त्व, विद्यातत्त्व और शिवतत्त्व – इन तीन तत्त्वोंके; आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि – इन तीनों अग्नियोंके; सर्वत्र उपलब्ध होनेवाले पृथ्वी, जल एवं तेज – इन तीन मूर्त भूतोंके (अथवा सात्त्विक आदि भेदसे त्रिविध भूतोंके), त्रिदिव (स्वर्ग)-के, त्रिभुजके, त्रिधाभूत सबके ब्रह्मा, विष्णु और शिव – तीनों देवताओंके महान् ईश्वर महादेवजी ही हैं। (यहाँतक मन्त्रके प्रथम चरणकी व्याख्या हुई।)
मन्त्रका द्वितीय चरण है- ‘सुगन्धि पुष्टिवर्धनम्’ – जैसे फूलोंमें उत्तम गन्ध होती है, उसी प्रकार वे भगवान् शिव सम्पूर्ण भूतोंमें, तीनों गुणोंमें, समस्त कृत्योंमें, इन्द्रियोंमें, अन्यान्य देवोंमें और गणोंमें उनके प्रकाशक सारभूत आत्माके रूपमें व्याप्त हैं, अतएव सुगन्धयुक्त एवं सम्पूर्ण देवताओंके ईश्वर हैं। (यहाँतक ‘सुगन्धिम्’ पदकी व्याख्या हुई।
अब ‘पुष्टिवर्धनम्’ की व्याख्या करते हैं-) उत्तम व्रतका पालन करनेवाले द्विजश्रेष्ठ ! महामुने नारद ! उन अन्तर्यामी पुरुष शिवसे प्रकृतिका पोषण होता है- महत्तत्त्वसे लेकर विशेष- पर्यन्त सम्पूर्ण विकल्पोंकी पुष्टि होती है तथा मुझ ब्रह्माका, विष्णुका, मुनियोंका और इन्द्रियोंसहित देवताओंका भी पोषण होता है, इसलिये वे ही ‘पुष्टिवर्धन’ हैं। (अब मन्त्रके तीसरे और चौथे चरणकी व्याख्या करते हैं।)
उन दोनों चरणोंका स्वरूप यों है-उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्यो- र्मुक्षीयमामृतात् – अर्थात् ‘प्रभो ! जैसे खरबूजा पक जानेपर लताबन्धनसे छूट जाता है, उसी तरह मैं मृत्युरूप बन्धनसे मुक्त हो जाऊँ, अमृतपद (मोक्ष) से पृथक् न होऊँ।’ वे रुद्रदेव अमृतस्वरूप हैं; जो पुण्यकर्मसे, तपस्यासे, स्वाध्यायसे, योगसे अथवा ध्यानसे उनकी आराधना करता है, उसे नूतन जीवन प्राप्त होता है।
इस सत्यके प्रभावसे भगवान् शिव स्वयं ही अपने भक्तको मृत्युके सूक्ष्म बन्धनसे मुक्त कर देते हैं; क्योंकि वे भगवान् ही बन्धन और मोक्ष देनेवाले हैं-ठीक उसी तरह, जैसे ‘उर्वारुक अर्थात् ककड़ीका पौधा अपने फलको स्वयं ही लताके बन्धनमें बाँधे रखता है और पक जानेपर स्वयं ही उसे बन्धनसे मुक्त कर देता है।’
यह मृतसंजीवनी मन्त्र है, जो मेरे मतसे सर्वोत्तम है। तुम प्रेमपूर्वक नियमसे भगवान् शिवका स्मरण करते हुए इस मन्त्रका जप करो। जप और हवनके पश्चात् इसीसे अभिमन्त्रित किये हुए जलको दिन और रातमें पीओ तथा शिव-विग्रहके समीप बैठकर उन्हींका ध्यान करते रहो। इससे कहीं भी मृत्युका भय नहीं रहता।
न्यास आदि सब कार्य करके विधिवत् भगवान् शिवकी पूजा करो। यह सब करके शान्तभावसे बैठकर भक्तवत्सल शंकरका ध्यान करना चाहिये। मैं भगवान् शिवका ध्यान बता रहा हूँ, जिसके अनुसार उनका चिन्तन करके मन्त्र- जप करना चाहिये। इस तरह निरन्तर जप करनेसे बुद्धिमान् पुरुष भगवान् शिवके प्रभावसे उस मन्त्रको सिद्ध कर लेता है।
मृत्युंजयका ध्यान हस्ताम्भोजयुगस्थकुम्भयुगलादुद्धृत्य तोयं शिरः सिञ्चन्तं करयोर्युगेन दधतं स्वाङ्के सकुम्भौ करौ। अक्षस्त्रङ्ङ्ग्गहस्तमम्बुजगतं मूर्धस्थचन्द्रस्त्रवत् पीयूषार्द्रतनुं भजे सगिरिजं त्र्यक्षं च मृत्युञ्जयम् ॥
जो अपने दो करकमलोंमें रखे हुए दो कलशोंसे जल निकालकर उनसे ऊपरवाले दो हाथोंद्वारा अपने मस्तकको सींचते हैं। अन्य दो हाथोंमें दो घड़े लिये उन्हें अपनी गोदमें रखे हुए हैं तथा शेष दो हाथोंमें रुद्राक्ष एवं मृगमुद्रा धारण करते हैं, कमलके आसनपर बैठे हैं, – सिरपर स्थित चन्द्रमासे निरन्तर झरते हुए अमृतसे जिनका सारा शरीर भींगा हुआ है तथा जो तीन नेत्र धारण करनेवाले हैं, उन भगवान् मृत्युंजयका, जिनके साथ गिरिराजनन्दिनी उमा भी विराजमान हैं, मैं भजन (चिन्तन) करता हूँ।
ब्रह्माजी कहते हैं-तात ! मुनिश्रेष्ठ – दधीचिको इस प्रकार उपदेश देकर शुक्राचार्य भगवान् शंकरका स्मरण करते हुए अपने स्थानको लौट गये। उनकी वह – बात सुनकर महामुनि दधीचि बड़े प्रेमसे – शिवजीका स्मरण करते हुए तपस्याके – लिये वनमें गये।
वहाँ जाकर उन्होंने विधि- पूर्वक महामृत्युंजय-मन्त्रका जप और प्रेम- पूर्वक भगवान् शिवका चिन्तन करते हुए – तपस्या प्रारम्भ की। दीर्घकालतक उस मन्त्रका जप और तपस्याद्वारा भगवान् शंकरकी आराधना करके दधीचिने महामृत्युंजय शिवको संतुष्ट किया।
महामुने ! उस जपसे प्रसन्नचित्त – हुए भक्तवत्सल भगवान् शिव दधीचिके प्रेमवश उनके सामने प्रकट हो गये। अपने प्रभु शम्भुका साक्षात् दर्शन करके मुनीश्वर दधीचिको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने विधिपूर्वक प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़ भक्तिभावसे शंकरका स्तवन किया। तात ! मुने ! तदनन्तर मुनिके प्रेमसे प्रसन्न हुए शिवने च्यवनकुमार दधीचिसे कहा- “तुम
वर माँगो।’ भगवान् शिवका यह वचन सुनकर भक्तशिरोमणि दधीचि दोनों हाथ जोड़ नतमस्तक हो भक्तवत्सल शंकरसे बोले।
दधीचिने कहा-देवदेव महादेव ! मुझे तीन वर दीजिये। मेरी हड्डी वज्र हो जाय। कोई भी मेरा वध न कर सके और मैं सर्वत्र अदीन रहूँ-कभी मुझमें दीनता न आये। दधीचिका यह वचन सुनकर प्रसन्न हुए
परमेश्वर शिवने ‘तथास्तु’ कहकर उन्हें वे तीनों वर दे दिये। शिवजीसे तीन वर पाकर वेदमार्गमें प्रतिष्ठित महामुनि दधीचि आनन्दमग्न हो गये और शीघ्र ही राजा क्षुवके स्थानमें गये। महादेवजीसे अवध्यता, वज्रमय अस्थि और अदीनता पाकर दधीचिने राजेन्द्र क्षुवके मस्तकपर लात मारी। फिर तो राजा क्षुवने भी क्रोध करके दधीचिपर वज्रसे प्रहार किया। वे भगवान् विष्णुके गौरवसे अधिक गर्वमें भरे हुए थे।
परंतु क्षुवका चलाया हुआ वह वज्र परमेश्वर शिवके प्रभावसे महात्मा दधीचिका नाश न कर सका। इससे ब्रह्मकुमार क्षुवको बड़ा विस्मय हुआ। मुनीश्वर दधीचिकी अवध्यता, अदीनता तथा वज्रसे भी बढ़-चढ़कर प्रभाव देखकर ब्रह्मकुमार क्षुवके मनमें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने शीघ्र ही वनमें जाकर इन्द्रके छोटे भाई मुकुन्द- की आराधना आरम्भ की।
वे शरणागतपालक नरेश मृत्युंजयसेवक दधीचिसे पराजित हो गये थे। क्षुवकी पूजासे गरुडध्वज भगवान् मधुसूदन बहुत संतुष्ट हुए। उन्होंने राजाको दिव्य दृष्टि प्रदान की। उस दिव्य दृष्टिसे ही जनार्दनदेवका दर्शन करके उन गरुडध्वजको क्षुवने प्रणाम किया और प्रिय वचनोंद्वारा उनकी स्तुति की। इस प्रकार देवेश्वर आदिसे प्रशंसित उन अजेय ईश्वर श्रीनारायणदेवका पूजन और स्तवन करके राजाने भक्तिभावसे उनकी ओर देखा तथा उन जनार्दनके चरणोंमें मस्तक रखकर प्रणाम करनेके पश्चात् उन्हें अपना अभिप्राय सूचित किया।
राजा बोले- भगवन् ! दधीचि नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण हैं, जो धर्मके ज्ञाता हैं। उनके हृदयमें विनयका भाव है। वे पहले मेरे मित्र थे। इन दिनों रोग-शोकसे रहित मृत्युंजय महादेवजीकी आराधना करके वे उन्हीं कल्याणकारी शिवके प्रभावसे समस्त अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा सदाके लिये अवध्य हो गये हैं।
एक दिन उन महातपस्वी दधीचिने भरी सभामें आकर अपने बायें पैरसे मेरे मस्तकपर बड़े वेगसे अवहेलनापूर्वक प्रहार किया और बड़े गर्वसे कहा- ‘मैं किसीसे नहीं डरता।’ हरे ! वे मृत्युंजयसे उत्तम वर पाकर अनुपम गर्वसे भर गये हैं।
ब्रह्माजी कहते हैं- नारद ! महात्मा दधीचिकी अवध्यताका समाचार जानकर श्रीहरिने महादेवजीके अतुलित प्रभावका स्मरण किया। फिर वे ब्रह्मपुत्र राजा क्षुवसे बोले- ‘राजेन्द्र ! ब्राह्मणोंको कहीं थोड़ा- सा भी भय नहीं है। भूपते ! विशेषतः रुद्रभक्तोंके लिये तो भय नामकी कोई वस्तु है ही नहीं। यदि मैं तुम्हारी ओरसे कुछ करूँ तो ब्राह्मण दधीचिको दुःख होगा और वह मुझ जैसे देवताके लिये भी शापका कारण बन जायगा। राजेन्द्र !
दधीचिके शापसे दक्षके यज्ञमें सुरेश्वर शिवसे मेरी पराजय होगी और फिर मेरा उत्थान भी होगा। महाराज ! इसलिये मैं तुम्हारे साथ रहकर कुछ करना नहीं चाहता, मैं अकेला ही तुम्हारे लिये दधीचिको जीतनेका प्रयत्न करूँगा।’
भगवान् विष्णुका यह वचन सुनकर ध्रुव बोले- ‘बहुत अच्छा, ऐसा ही हो।’ ऐसा कहकर वे उस कार्यके लिये मन-ही-मन उत्सुक हो प्रसन्नतापूर्वक वहीं ठहर गये।
(अध्याय ३८)