(रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खण्ड))
Shiv puran rudra samhita sati khand chapter 32(शिव पुराण रुद्रसंहिता सती खंड अध्याय 32 गणोंके मुखसे और नारदसे भी सतीके दग्ध होनेकी बात सुनकर दक्षपर कुपित हुए शिवका अपनी जटासे वीरभद्र और महाकालीको प्रकट करके उन्हें यज्ञविध्वंस करने और विरोधियोंको जला डालनेकी आज्ञा देना)
(अध्याय 32)
:-ब्रह्माजी कहते हैं- नारद ! वह आकाशवाणी सुनकर सब देवता आदि भयभीत तथा विस्मित हो गये। उनके मुखसे कोई बात नहीं निकली। वे इस तरह खड़े या बैठे रह गये, मानो उनपर विशेष मोह छा गया हो। भृगुके मन्त्रबलसे भाग जानेके कारण जो वीर शिवगण नष्ट होनेसे बच गये थे, वे भगवान् शिवकी शरणमें गये। उन सबने अमित तेजस्वी भगवान् रुद्रको भलीभाँति सादर प्रणाम करके वहाँ यज्ञमें जो कुछ हुआ था, वह सारी घटना उनसे कह सुनायी।
गण बोले- महेश्वर ! दक्ष बड़ा दुरात्मा और घमंडी है। उसने वहाँ जानेपर सतीदेवीका अपमान किया और देवताओंने भी उनका आदर नहीं किया। अत्यन्त गर्वसे भरे हुए उस दुष्ट दक्षने आपके लिये यज्ञमें भाग नहीं दिया।
दूसरे देवताओंके लिये दिया और आपके विषयमें उच्चस्वरसे दुर्वचन कहे। प्रभो ! यज्ञमें आपका भाग न देखकर सतीदेवी कुपित हो उठीं और पिताकी बारंबार निन्दा करके उन्होंने तत्काल अपने शरीरको योगाग्निद्वारा जलाकर भस्म कर दिया। यह देख दस हजारसे अधिक पार्षद लज्जावश शस्त्रोंद्वारा अपने ही अंगोंको काट-काटकर वहाँ मर गये।
शेष हमलोग दक्षपर कुपित हो उठे और सबको भय पहुँचाते हुए वेगपूर्वक उस यज्ञका विध्वंस करनेको उद्यत हो गये; परंतु विरोधी भृगुने अपने प्रभावसे हमें तिरस्कृत कर दिया। हम उनके मन्त्रबलका सामना न कर सके। प्रभो ! विश्वम्भर ! वे ही हमलोग आज आपकी शरणमें आये हैं। दयालो ! वहाँ प्राप्त हुए भयसे आप हमें बचाइये,
निर्भय कीजिये। महाप्रभो ! उस यज्ञमें दक्ष आदि सभी दुष्टोंने घमंडमें आकर आपका विशेषरूपसे अपमान किया है। कल्याणकारी शिव! इस प्रकार हमने अपना, सतीदेवीका और मूढ़ बुद्धिवाले दक्ष आदिका भी सारा वृत्तान्त कह सुनाया। अब आपकी जैसी इच्छा हो, वैसा करें।
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! अपने पार्षदोंकी यह बात सुनकर भगवान् शिवने वहाँकी सारी घटना जाननेके लिये शीघ्र ही तुम्हारा स्मरण किया। देवर्षे ! तुम दिव्य दृष्टिसे सम्पन्न हो। अतः भगवान्के स्मरण करनेपर तुम तुरंत वहाँ आ पहुँचे और शंकरजीको भक्तिपूर्वक प्रणाम करके खड़े हो गये। स्वामी शिवने तुम्हारी प्रशंसा करके तुमसे दक्षयज्ञमें गयी हुई सतीका समाचार तथा दूसरी घटनाओंको पूछा। तात ! शम्भुके पूछनेपर शिवमें मन लगाये
रखनेवाले तुमने शीघ्र ही वह सारा वृत्तान्त कह सुनाया, जो दक्षयज्ञमें घटित हुआ था। मुने ! तुम्हारे मुखसे निकली हुई बात सुनकर उस समय महान् रौद्र पराक्रमसे सम्पन्न सर्वेश्वर रुद्रने तुरंत ही बड़ा भारी क्रोध प्रकट किया। लोकसंहारकारी रुद्रने अपने सिरसे एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक उस पर्वतके ऊपर दे मारा।
मुने ! भगवान् शंकरके पटकनेसे उस जटाके दो टुकड़े हो गये और महाप्रलयके समान भयंकर शब्द प्रकट हुआ। देवर्षे ! उस जटाके पूर्वभागसे महाभयंकर महाबली वीरभद्र प्रकट हुए, जो समस्त शिवगणोंके अगुआ हैं। वे भूमण्डलको सब ओरसे व्याप्त करके उससे भी दस अंगुल अधिक होकर खड़े हुए। वे देखनेमें प्रलयाग्निके समान जान पड़ते थे। उनका शरीर बहुत ऊँचा था।
वे एक हजार भुजाओंसे युक्त थे। उन सर्वसमर्थ महारुद्रके क्रोधपूर्वक प्रकट हुए निःश्वाससे सौ प्रकारके ज्वर और तेरह प्रकारके संनिपात रोग पैदा हो गये। तात ! उस जटाके दूसरे भागसे महाकाली उत्पन्न हुईं, जो बड़ी भयंकर दिखायी देती थीं।
वे करोड़ों भूतोंसे घिरी हुई थीं। जो ज्वर पैदा हुए, वे सब-के-सब शरीरधारी, क्रूर और समस्त लोकोंके लिये भयंकर थे। वे अपने तेजसे प्रज्वलित हो सब ओर दाह उत्पन्न करते हुए-से प्रतीत होते थे। वीरभद्र बातचीत करनेमें बड़े कुशल थे। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर परमेश्वर शिवको प्रणाम करके कहा।
वीरभद्र बोले-महारुद्र ! सोम, सूर्य और अग्निको तीन नेत्रोंके रूपमें धारण करनेवाले प्रभो ! शीघ्र आज्ञा दीजिये। मुझे इस समय कौन-सा कार्य करना होगा ? ईशान ! क्या मुझे आधे ही क्षणमें सारे समुद्रोंको सुखा देना है? या इतने ही समयमें सम्पूर्ण पर्वतोंको पीस डालना है? हर ! मैं एक ही क्षणमें ब्रह्माण्डको भस्म कर डालूँ या समस्त देवताओं और मुनीश्वरोंको जलाकर राख कर दूँ ?
शंकर ! ईशान ! क्या मैं समस्त लोकोंको उलट-पलट दूँ या सम्पूर्ण प्राणियोंका विनाश कर डालूँ ? महेश्वर ! आपकी कृपासे कहीं कोई भी ऐसा कार्य नहीं है, जिसे मैं न कर सकूँ। पराक्रमके द्वारा मेरी समानता करनेवाला वीर न पहले कभी हुआ है और न आगे होगा। शंकर ! आप किसी तिनकेको भेज दें तो वह भी बिना किसी यत्नके क्षणभरमें बड़े-से-बड़ा कार्य सिद्ध कर सकता है, इसमें संशय नहीं है। शम्भो !
यद्यपि आपकी लीलामात्रसे सारा कार्य सिद्ध हो जाता है, तथापि जो मुझे भेजा जा रहा है, यह मुझपर आपका अनुग्रह ही है। शम्भो ! मुझमें भी जो ऐसी शक्ति है, वह आपकी कृपासे ही प्राप्त हुई है। शंकर ! आपकी कृपाके बिना किसीमें भी कोई शक्ति नहीं हो सकती। वास्तवमें आपकी आज्ञाके बिना कोई तिनके आदिको भी हिलानेमें समर्थ नहीं है, यह निस्संदेह कहा जा सकता है।
महादेव ! मैं आपके चरणोंमें बारंबार प्रणाम करता हूँ। हर ! आप अपने अभीष्ट कार्यकी सिद्धिके लिये आज मुझे शीघ्र भेजिये। शम्भो ! मेरे दाहिने अंग बारंबार फड़क रहे हैं। इससे सूचित होता है कि मेरी विजय अवश्य होगी। अतः प्रभो ! मुझे भेजिये।
शंकर ! आज मुझे कोई अभूतपूर्व एवं विशेष हर्ष तथा उत्साहका अनुभव हो रहा है और मेरा चित्त आपके चरणकमलमें लगा हुआ है। अतः पग-पगपर मेरे लिये शुभ परिणामका विस्तार होगा। शम्भो ! आप शुभके आधार हैं। जिसकी आपमें सुदृढ़ भक्ति है, उसीको सदा विजय प्राप्त होती है और उसीका दिनोंदिन शुभ होता है।
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! उसकी यह बात सुनकर सर्वमंगलाके पति भगवान् शिव बहुत संतुष्ट हुए और ‘वीरभद्र ! तुम्हारी जय हो’ ऐसा आशीर्वाद देकर वे फिर बोले।
महेश्वरने कहा-मेरे पार्षदोंमें श्रेष्ठ वीरभद्र ! ब्रह्माजीका पुत्र दक्ष बड़ा दुष्ट है। उस मूर्खको बड़ा घमंड हो गया है। अतः इन दिनों वह विशेषरूपसे मेरा विरोध करने लगा है। दक्ष इस समय एक यज्ञ करनेके लिये उद्यत है।
तुम याग-परिवारसहित उस यज्ञको भस्म करके फिर शीघ्र मेरे स्थानपर लौट आओ। यदि देवता, गन्धर्व, यक्ष अथवा अन्य कोई तुम्हारा सामना करनेके लिये उद्यत हों तो उन्हें भी आज ही शीघ्र और सहसा भस्म कर डालना।
दधीचिकी दिलायी हुई मेरी शपथका उल्लंघन करके जो देवता आदि वहाँ ठहरे हुए हैं, उन्हें तुम निश्चय ही प्रयत्नपूर्वक जलाकर भस्म कर देना। जो मेरी शपथका उल्लंघन करके गर्वयुक्त हो वहाँ ठहरे हुए हैं, वे सब-के-सब मेरे द्रोही हैं। अतः उन्हें अग्निमयी मायासे जला डालो।
दक्षकी यज्ञशालामें जो अपनी पत्नियों और सारभूत उपकरणोंके साथ बैठे हों, उन सबको जलाकर भस्म कर देनेके पश्चात् फिर शीघ्र लौट आना। तुम्हारे वहाँ जानेपर विश्वदेव आदि देवगण भी यदि सामने आ तुम्हारी सादर स्तुति करें तो भी तुम उन्हें शीघ्र आगकी ज्वालासे जलाकर ही छोड़ना।
वीर! वहाँ दक्ष आदि सब लोगोंको पत्नी और बन्धु-बान्धवोंसहित जलाकर (कलशोंमें रखे हुए) जलको लीलापूर्वक पी जाना। ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! जो वैदिक मर्यादाके पालक, कालके भी शत्रु तथा सबके ईश्वर हैं, वे भगवान् रुद्र रोषसे लाल आँखें किये महावीर वीरभद्रसे ऐसा कहकर चुप हो गये।
(अध्याय ३२)