(रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खण्ड))
Shiv puran rudra samhita sati khand chapter 30(शिव पुराण रुद्रसंहिता सती खंड अध्याय 30 सतीका योगाग्निसे अपने शरीरको भस्म कर देना, दर्शकोंका हाहाकार, शिवपार्षदोंका प्राणत्याग तथा दक्षपर आक्रमण, ऋभुओंद्वारा उनका भगाया जाना तथा देवताओंकी चिन्ता)
(अध्याय 30)
:-ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! मौन हुई सतीदेवी अपने पतिका सादर स्मरण करके शान्तचित्त हो सहसा उत्तरदिशामें भूमिपर बैठ गयीं। उन्होंने विधिपूर्वक जलका आचमन करके वस्त्र ओढ़ लिया और
पवित्रभावसे आँखें मूंदकर पतिका चिन्तन करती हुई वे योगमार्गमें स्थित हो गयीं। उन्होंने आसनको स्थिरकर प्राणायामद्वारा प्राण और अपानको एकरूप करके नाभि- चक्रमें स्थित किया। फिर उदान वायुको
बलपूर्वक नाभिचक्रसे ऊपर उठाकर बुद्धिके साध हृदयमें स्थापित किया। तत्पश्चात् शंकरकी प्राणवल्लभा अनिन्दिता सती उस हृदयस्थित वायुको कण्ठमार्गसे भ्रुकुटियोंके बीचमें ले गयीं। इस प्रकार दक्षपर कुपित हो सहसा अपने शरीरको त्यागनेकी इच्छासे सतीने अपने सम्पूर्ण अंगोंमें योगमार्गके अनुसार वायु और अग्निकी धारणा की।
तदनन्तर अपने पतिके चरणारविन्दोंका चिन्तन करती हुई सतीने अन्य सब वस्तुओंका ध्यान भुला दिया। उनका चित्त योगमार्गमें स्थित हो गया था। इसलिये वहाँ उन्हें पतिके चरणोंके अतिरिक्त और कुछ नहीं दिखायी दिया। मुनिश्रेष्ठ ! सतीका निष्पाप शरीर तत्काल गिरा और उनकी इच्छाके अनुसार योगाग्निसे जलकर उसी क्षण भस्म हो गया। उस समय वहाँ आये हुए देवता आदिने जब यह घटना देखी, तब वे बड़े जोरसे हाहाकार करने लगे।
उनका वह महान्, अद्भुत, विचित्र एवं भयंकर हाहाकार आकाशमें और पृथ्वीतलपर सब ओर फैल गया। लोग कह रहे थे- ‘हाय ! महान् देवता भगवान् शंकरकी परम प्रेयसी सतीदेवीने किस दुष्टके दुर्व्यवहारसे कुपित हो अपने प्राण त्याग दिये। अहो ! ब्रह्माजीके पुत्र इस दक्षकी बड़ी भारी दुष्टता तो देखो।
सारा चराचर जगत् जिसकी संतान है, उसीकी पुत्री मनस्विनी सतीदेवी, जो सदा ही मान पानेके योग्य थीं, उसके द्वारा ऐसी निरादूत हुईं कि प्राणोंसे ही हाथ धो बैठीं। भगवान् वृषभध्वजकी प्रिया सती सदा सभी सत्पुरुषोंके द्वारा निरन्तर सम्मान पानेकी अधिकारिणी थीं। वास्तवमें उसका हृदय बड़ा ही असहिष्णु है।
वह प्रजापति दक्ष ब्राह्मणद्रोही है। इसलिये सारे संसारमें उसे महान् अपयश प्राप्त होगा। उसकी अपनी ही पुत्री उसीके अपराधसे जब प्राणत्याग करनेको उद्यत हो गयी, तब भी उस महानरकभोगी शंकरद्रोहीने उसे रोकातक नहीं !’
जिस समय सब लोग ऐसा कह रहे थे,उसी समय शिवजीके पार्षद सतीका यह अद्भुत प्राणत्याग देख तुरंत ही क्रोधपूर्वक अस्त्र-शस्त्र ले दक्षको मारनेके लिये उठ खड़े हुए। यज्ञमण्डपके द्वारपर खड़े हुए वे भगवान् शंकरके समस्त साठ हजार पार्षद, जो बड़े भारी बलवान् थे, अत्यन्त रोषसे भर गये और ‘हमें धिक्कार है, धिक्कार है’, ऐसा कहते हुए भगवान् शंकरके गणोंके वे सभी वीर यूथपति बारंबार उच्चस्वरसे हाहाकार करने लगे।
देवर्षे ! कितने ही पार्षद तो वहाँ शोकसे ऐसे व्याकुल हो गये कि वे अत्यन्त तीखे प्राणनाशक शस्त्रोंद्वारा अपने ही मस्तक और मुख आदि अंगोंपर आघात करने लगे। इस प्रकार बीस हजार पार्षद उससमय दक्षकन्या सतीके साथ ही नष्ट हो गये। वह एक अद्भुत-सी बात हुई।
नष्ट होनेसे बचे हुए महात्मा शंकरके वे प्रमथ गण क्रोधयुक्त दक्षको मारनेके लिये हथियार लिये उठ खड़े हुए। मुने ! उन आक्रमणकारी पार्षदोंका वेग देखकर भगवान् भृगुने यज्ञमें विघ्न डालनेवालोंका नाश करनेके लिये नियत ‘अपहता असुराः रक्षासि वेदिषदः’ इस यजुर्मन्त्रसे दक्षिणाग्निमें आहुति दी।
भृगुके आहुति देते ही यज्ञकुण्डसे ऋभु नामक सहस्त्रों महान् देवता, जो बड़े प्रबल वीर थे, वहाँ प्रकट हो गये। मुनीश्वर ! उन सबके हाथमें जलती हुई लकड़ियाँ थीं। उनके साथ प्रमथगणोंका अत्यन्त विकट युद्ध हुआ, जो सुननेवालोंके भी रोंगटे खड़े कर देनेवाला था।
उन ब्रह्मतेजसे सम्पन्न महावीर ऋभुओंकी सब ओरसे ऐसी मार पड़ी, जिससे प्रमथगण बिना अधिक प्रयासके ही भाग खड़े हुए। इस प्रकार उन देवताओंने उन शिवगणोंको तुरंत मार भगाया। यह अद्भुत-सी घटना भगवान् शिवकी महाशक्तिमती इच्छासे ही हुई। वह सब देखकर ऋषि, इन्द्रादि देवता, मरुद्गण, विश्वेदेव, अश्विनीकुमार और लोकपाल चुप ही रहे।
कोई सब ओरसे आ-आकर वहाँ भगवान् विष्णुसे प्रार्थना करते थे कि किसी तरह विघ्न टल जाय। वे उद्विग्न हो बारंबार विघ्न-निवारणके लिये आपसमें सलाह करने लगे। प्रमथगणोंके नाश होने और भगाये जानेसे जो भावी परिणाम होनेवाला था, उसका भलीभाँति विचार करके उत्तम बुद्धिवाले श्रीविष्णु आदि देवता अत्यन्त उद्विग्न हो उठे थे। मुने ! इस प्रकार दुरात्मा शंकर-द्रोही ब्रह्मबन्धु दक्षके यज्ञमें उस समय बड़ा भारी विघ्न उपस्थित हो गया।
(अध्याय ३०)