(रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खण्ड)
Shiv puran rudra samhita sati khand chapter 3 to 5(शिव पुराण रुद्रसंहिता सती सृष्टि खंड अध्याय:3 से 5 कामदेवके नामोंका निर्देश, उसका रतिके साथ विवाह तथा कुमारी संध्याका चरित्र – वसिष्ठ मुनिका चन्द्रभाग पर्वतपर उसको तपस्याकी विधि बताना)
(अध्याय:3 से 5)
:-ब्रह्माजी कहते हैं-मुने ! तदनन्तर मेरे अभिप्रायको जाननेवाले मरीचि आदि मेरे पुत्र सभी मुनियोंने उस पुरुषका उचित नाम रखा। दक्ष आदि प्रजापतियोंने उसका मुँह देखते ही परोक्षके भी सारे वृत्तान्त जानकर उसे रहनेके लिये स्थान और पत्नी प्रदान की। मेरे पुत्र मरीचि आदि द्विजोंने उस पुरुषके नाम निश्चित करके उससे यह युक्तियुक्त बात कही।
ऋषि बोले- तुम जन्म लेते ही हमारे मनको भी मथने लगे हो। इसलिये लोकमें-‘मन्मथ’ नामसे विख्यात होओगे। मनोभव ! – तीनों लोकोंमें तुम इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले हो, तुम्हारे समान सुन्दर दूसरा कोई नहीं है; अतः कामरूप होनेके कारण तुम ‘काम’ नामसे भी विख्यात होओ। – लोगोंको मदमत्त बना देनेके कारण तुम्हारा – एक नाम ‘मदन’ होगा। तुम बड़े दर्पसे – उत्पन्न हुए हो, इसलिये ‘दर्पक’ कहलाओगे और सदर्प होनेके कारण ही जगत्में ‘कंदर्प’ – नामसे भी तुम्हारी ख्याति होगी।
समस्त – देवताओंका सम्मिलित बल-पराक्रम भी तुम्हारे समान नहीं होगा। अतः सभी स्थानोंपर तुम्हारा अधिकार होगा और तुम सर्वव्यापी होओगे। जो आदिप्रजापति हैं, वे ही ये पुरुषोंमें श्रेष्ठ दक्ष तुम्हारी इच्छाके अनुरूप पत्नी स्वयं देंगे। वह तुम्हारी कामिनी (तुमसे अनुराग रखनेवाली) होगी।
ब्रह्माजीने कहा-मुने ! तदनन्तर मैं वहाँसे अदृश्य हो गया। इसके बाद दक्ष मेरी बातका स्मरण करके कंदर्पसे बोले – ‘कामदेव ! मेरे शरीरसे उत्पन्न हुई मेरी यह कन्या सुन्दर रूप और उत्तम गुणोंसे सुशोभित है। इसे तुम अपनी पत्नी बनानेके लिये ग्रहण करो। यह गुणोंकी दृष्टिसे सर्वथा तुम्हारे योग्य है। महातेजस्वी मनोभव ! यह सदा तुम्हारे साथ रहनेवाली और तुम्हारी रुचिके अनुसार चलनेवाली होगी धर्मतः यह सदा तुम्हारे अधीन रहेगी।
ऐसा कहकर दक्षने अपने शरीरके पसीनेसे प्रकट हुई उस कन्याका नाम ‘रति’ रखकर उसे अपने आगे बैठाया और कंदर्पको संकल्पपूर्वक सौंप दिया। नारद ! दक्षकी वह पुत्री रति बड़ी रमणीय और मुनियोंके मनको भी मोह लेनेवाली थी। उसके साथ विवाह करके कामदेवको भी बड़ी प्रसन्नता हुई। अपनी रति नामक सुन्दरी स्त्रीको देखकर उसके हाव-भाव आदिसे अनुरंजित हो कामदेव मोहित हो गया। तात ! उस समय बड़ा भारी उत्सव होने लगा, जो सबके सुखको बढ़ानेवाला था। प्रजापति दक्ष इस बातको सोचकर बड़े प्रसन्न थे कि मेरी पुत्री इस विवाहसे सुखी है। कामदेवको भी बड़ा सुख मिला।
उसके सारे दुःख दूर हो गये। दक्षकन्या रति भी कामदेवको पाकर बहुत प्रसन्न हुई। जैसे संध्याकालमें मनोहारिणी विद्युन्मालाके साथ मेघ शोभा पाता है, उसी प्रकार रतिके साथ प्रिय वचन बोलनेवाला कामदेव बड़ी शोभा पा रहा था। इस प्रकार रतिके प्रति भारी मोहसे युक्त रतिपति कामदेवने उसे उसी तरह अपने हृदयके सिंहासनपर बिठाया, जैसे योगी पुरुष योगविद्याको हृदयमें धारण करता है।
इसी प्रकार पूर्ण चन्द्रमुखी रति भी उस श्रेष्ठ पतिको पाकर उसी तरह सुशोभित हुई, जैसे श्रीहरिको पाकर पूर्णचन्द्रानना लक्ष्मी शोभा पाती हैं।
सूतजी कहते हैं-ब्रह्माजीका यह कथन – सुनकर मुनिश्रेष्ठ नारद मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए और भगवान् शंकरका स्मरण करके हर्षपूर्वक बोले- ‘महाभाग ! विष्णुशिष्य ! महामते ! विधातः ! आपने चन्द्रमौलि शिवकी यह अद्भुत लीला कही है।
अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि विवाहके पश्चात् जब कामदेव प्रसन्नतापूर्वक अपने स्थानको चला गया, दक्ष भी अपने घरको पधारे तथा आप और आपके मानसपुत्र भी अपने-अपने धामको चले गये, तब पितरोंको उत्पन्न करनेवाली ब्रह्मकुमारी संध्या कहाँ गयी ? उसने क्या किया और किस पुरुषके साथ उसका विवाह हुआ ? संध्याका यह सब चरित्र विशेषरूपसे बताइये।
ब्रह्माजीने कहा-मुने ! संध्याका वह सारा शुभ चरित्र सुनो, जिसे सुनकर समस्त कामिनियाँ सदाके लिये सती-साध्वी हो सकती हैं। वह संध्या, जो पहले मेरी मानस- पुत्री थी, तपस्या करके शरीरको त्यागकर मुनिश्रेष्ठ मेधातिथिकी बुद्धिमती पुत्री होकर अरुन्धतीके नामसे विख्यात हुई।
उत्तम व्रतका पालन करके उस देवीने ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वरके कहनेसे श्रेष्ठ व्रतधारी महात्मा वसिष्ठको अपना पति चुना। वह सौम्य स्वरूपवाली देवी सबकी वन्दनीया और पूजनीया श्रेष्ठ पतिव्रताके रूपमें विख्यात हुई।
नारदजीने पूछा- भगवन् ! संध्याने कैसे, किसलिये और कहाँ तप किया ? किस प्रकार शरीर त्यागकर वह मेधातिथिकी पुत्री हुई ? ब्रह्मा, विष्णु और शिव-इन तीनों देवताओंके बताये हुए श्रेष्ठ व्रतधारी महात्मा वसिष्ठको उसने किस तरह अपना पति बनाया ? पितामह ! यह सब मैं विस्तारके साथ सुनना चाहता हूँ। अरुन्धतीके इस कौतूहलपूर्ण चरित्रका आप यथार्थ- रूपसे वर्णन कीजिये ।
ब्रह्माजीने कहा-मुने ! संध्याके मनमें एक बार सकामभाव आ गया था, इसलिये उस साध्वीने यह निश्चय किया कि ‘वैदिकमार्गके अनुसार मैं अग्निमें अपने इस शरीरकी आहुति दे दूँगी।
आजसे इस भूतलपर कोई भी देहधारी उत्पन्न होते ही कामभावसे युक्त न हों, इसके लिये मैं कठोर तपस्या करके मर्यादा स्थापित करूँगी (तरुणा- वस्थासे पूर्व किसीपर भी कामका प्रभाव नहीं पड़ेगा, ऐसी सीमा निर्धारित करूँगी)। इसके बाद इस जीवनको त्याग दूँगी।’
मन-ही-मन ऐसा विचार करके संध्या चन्द्रभाग नामक उस श्रेष्ठ पर्वतपर चली गयी, जहाँसे चन्द्रभागा नदीका प्रादुर्भाव हुआ है। मनमें तपस्याका दृढ़ निश्चय ले संध्याको श्रेष्ठ पर्वतपर गयी हुई जान मैंने अपने समीप बैठे हुए वेद- वेदांगोंके पारंगत विद्वान्, सर्वज्ञ, जितात्मा एवं ज्ञानयोगी पुत्र वसिष्ठसे कहा- ‘बेटा वसिष्ठ !
मनस्विनी संध्या तपस्याकी अभिलाषासे चन्द्रभाग नामक पर्वतपर गयी है। तुम जाओ और उसे विधिपूर्वक दीक्षा दो। तात ! वह तपस्याके भावको नहीं जानती है। इसलिये जिस तरह तुम्हारे यथोचित उपदेशसे उसे अभीष्ट लक्ष्यकी प्राप्ति हो सके, वैसा प्रयत्न करो।’
नारद ! मैंने दयापूर्वक जब वसिष्ठको इस प्रकार आज्ञा दी, तब वे ‘जो आज्ञा’ कहकर एक तेजस्वी ब्रह्मचारीके रूपमें संध्याके पास गये। चन्द्रभाग पर्वतपर एक देवसरोवर है, जो जलाशयोचित गुणोंसे परिपूर्ण हो मानसरोवरके समान शोभा पाता है। वसिष्ठने उस सरोवरको देखा और उसके तटपर बैठी हुई संध्यापर भी दृष्टिपात किया।
कमलोंसे प्रकाशित होनेवाला वह सरोवर तटपर बैठी हुई संध्यासे उपलक्षित हो उसी तरह सुशोभित हो रहा था, जैसे प्रदोषकालमें उदित हुए चन्द्रमा और नक्षत्रोंसे युक्त आकाश शोभा पाता है। सुन्दर भाववाली संध्याको वहाँ बैठी देख मुनिने कौतूहलपूर्वक उस बृहल्लोहित नामवाले सरोवरको अच्छी तरह देखा।
उसी प्राकारभूत पर्वतके शिखरसे दक्षिण समुद्रकी ओर जाती हुई चन्द्रभागा नदीका भी उन्होंने दर्शन किया। जैसे गंगा हिमालयसे निकलकर समुद्रकी ओर जाती है, उसी प्रकार चन्द्रभागके पश्चिम शिखरका भेदन करके वह नदी समुद्रकी ओर जा रही थी। उस चन्द्रभाग पर्वतपर बृहल्लोहित सरोवरके किनारे बैठी हुई संध्याको देखकर वसिष्ठजीने आदरपूर्वक पूछा।
वसिष्ठजी बोले- भद्रे ! तुम इस निर्जन पर्वतपर किसलिये आयी हो ? किसकी पुत्री हो और तुमने यहाँ क्या करनेका विचार किया है? मैं यह सब सुनना चाहता हूँ। यदि छिपानेयोग्य बात न हो तो बताओ।
महात्मा वसिष्ठकी यह बात सुनकर संध्याने उन महात्माकी ओर देखा। वे अपने तेजसे प्रज्वलित अग्निके संमान प्रकाशित हो रहे थे। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो ब्रह्मचर्य देह धारण करके आ गया हो। वे मस्तकपर जटा धारण किये बड़ी शोभा पा रहे थे। संध्याने उन तपोधनको आदरपूर्वक प्रणाम करके कहा।
संध्या बोली-ब्रह्मन् ! मैं ब्रह्माजीकी पुत्री हूँ। मेरा नाम संध्या है और मैं तपस्या करनेके लिये इस निर्जन पर्वतपर आयी हूँ। यदि मुझे उपदेश देना आपको उचित जान पड़े तो आप मुझे तपस्याकी विधि बताइये
मैं यही करना चाहती हूँ। दूसरी कोई भी गोपनीय बात नहीं है। मैं तपस्याके भावको – उसके करनेके नियमको बिना जाने ही तपोवनमें आ गयी हूँ। इसलिये चिन्तासे सूखी जा रही हूँ और मेरा हृदय काँपता है।
संध्याकी बात सुनकर ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ वसिष्ठजीने, जो स्वयं सारे कार्योंके ज्ञाता थे, उससे दूसरी कोई बात नहीं पूछी। वह मन-ही-मन तपस्याका निश्चय कर चुकी थी और उसके लिये अत्यन्त उद्यमशील थी। उस समय वसिष्ठने मनसे भक्तवत्सल भगवान् शंकरका स्मरण करके इस प्रकार कहा।
वसिष्ठजी बोले-शुभानने ! जो सबसे महान् और उत्कृष्ट तेज हैं, जो उत्तम और महान् तप हैं तथा जो सबके परमाराध्य परमात्मा हैं, उन भगवान् शम्भुको तुम हृदयमें धारण करो। जो अकेले ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्षके आदिकारण हैं, उन त्रिलोकीके आदिस्रष्टा, अद्वितीय पुरुषोत्तम शिवका भजन करो।
आगे बताये जानेवाले मन्त्रसे देवेश्वर शम्भुकी आराधना करो। उससे तुम्हें सब कुछ मिल जायगा, इसमें संशय नहीं है। ‘ॐ नमः शंकराय ॐ’ इस मन्त्रका निरन्तर जप करते हुए मौन तपस्या आरम्भ करो और जो मैं नियम बताता हूँ, उन्हें सुनो।
तुम्हें मौन रहकर ही स्नान करना होगा, मौनालम्बनपूर्वक ही महादेवजीकी पूजा करनी होगी। प्रथम दो बार छठे समयमें तुम केवल जलका पूर्ण आहार कर सकती हो। जब तीसरी बार छठा समय आये, तब केवल उपवास किया करो। इस तरह तपस्याकी समाप्तितक छठे कालमें जलाहार एवं उपवासकी क्रिया होती रहेगी।
देवि ! इस प्रकार की जानेवाली मौन तपस्या ब्रह्मचर्यका फल देनेवाली तथा सम्पूर्ण अभीष्ट मनोरथोंको पूर्ण करनेवाली होती है। यह सत्य है, सत्य है, इसमें संशय नहीं है। अपने चित्तमें ऐसा शुभ उद्देश्य लेकर इच्छानुसार शंकरजीका चिन्तन करो, वे प्रसन्न होनेपर तुम्हें अवश्य ही अभीष्ट फल प्रदान करेंगे।
इस तरह संध्याकी तपस्या करनेकी विधिका उपदेश दे मुनिवर वसिष्ठ यथोचितरूपसे उससे विदा ले वहीं अन्तर्धान हो गये।
(अध्याय ३-५)