(रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खण्ड))
Shiv puran rudra samhita sati khand chapter 24 (शिव पुराण रुद्रसंहिता सती खंड अध्याय 24 दण्डकारण्यमें शिवको श्रीरामके प्रति मस्तक झुकाते देख सतीका मोह तथा शिवकी आज्ञासे उनके द्वारा श्रीरामकी परीक्षा)
(अध्याय 24)
:-नारदजी बोले- ब्रह्मन् ! विधे ! प्रजानाथ ! महाप्राज्ञ ! दयानिधे ! आपने भगवान् शंकर तथा देवी सतीके मंगलकारी सुयशका श्रवण कराया है। अब इस समय पुनः प्रेमपूर्वक उनके उत्तम यशका वर्णन कीजिये। उन शिव-दम्पतिने वहाँ रहकर कौन-सा चरित्र किया था ?
ब्रह्माजीने कहा-मुने ! तुम मुझसे सती और शिवके चरित्रका प्रेमसे श्रवण करो। वे दोनों दम्पति वहाँ लौकिकी गतिका आश्रय ले नित्य-निरन्तर क्रीडा किया करते थे। तदनन्तर महादेवी सतीको अपने पति शंकरका वियोग प्राप्त हुआ, ऐसा कुछ श्रेष्ठ बुद्धिवाले विद्वानोंका कथन है।
परंतु मुने ! वास्तवमें उन दोनोंका परस्पर वियोग कैसे हो सकता है? क्योंकि वे दोनों वाणी और अर्थके समान एक-दूसरेसे सदा मिले-जुले हैं, शक्ति और शक्तिमान् हैं तथा चित्स्वरूप हैं। फिर भी उनमें लीला-विषयक रुचि होनेके कारण वह सब कुछ संघटित हो सकता है।
सती और शिव यद्यपि ईश्वर हैं तो भी लौकिक रीतिका अनुसरण करके वे जो-जो लीलाएँ करते हैं, वे सब सम्भव हैं। दक्षकन्या सतीने जब देखा कि मेरे पतिने मुझे त्याग दिया है, तब वे अपने पिता दक्षके यज्ञमें गयीं और वहाँ भगवान् शंकरका अनादर देख उन्होंने अपने शरीरको त्याग दिया।
वे ही सती पुनः हिमालयके घर पार्वतीके नामसे प्रकट हुईं और बड़ी भारी तपस्या करके उन्होंने विवाहके द्वारा पुनः भगवान् शिवको प्राप्त कर लिया। सूतजी कहते हैं-महर्षियो ! ब्रह्माजीकी यह बात सुनकर नारदजीने विधातासे शिवा और शिवके महान् यशके विषयमें इस प्रकार पूछा।
नारदजी बोले-महाभाग विष्णुशिष्य ! विधातः ! आप मुझे शिवा और शिवके भाव तथा आचारसे सम्बन्ध रखनेवाले उनके चरित्रको विस्तारपूर्वक सुनाइये। तात ! भगवान् शंकरने अपने प्राणोंसे भी प्यारी धर्मपत्नी सतीका किसलिये त्याग किया ? यह घटना तो मुझे बड़ी विचित्र जान पड़ती है। अतः इसे आप अवश्य कहें।
अज ! आपके पुत्र दक्षके यज्ञमें भगवान् शिवका अनादर कैसे हुआ ? और वहाँ पिताके यज्ञमें जाकर सतीने अपने शरीरका त्याग किस प्रकार किया ? उसके बाद वहाँ क्या हुआ ? भगवान् महेश्वरने क्या किया ? ये सब बातें मुझसे कहिये। इन्हें सुननेके लिये मेरे मनमें बड़ी श्रद्धा है।
ब्रह्माजीने कहा-मेरे पुत्रोंमें श्रेष्ठ ! महाप्राज्ञ ! तात नारद ! तुम महर्षियोंके साथ बड़े प्रेमसे भगवान् चन्द्रमौलिका यह चरित्र सुनो। श्रीविष्णु आदि देवताओंसे सेवित परब्रह्म महेश्वरको नमस्कार करके मैं उनके महान् अद्भुत चरित्रका वर्णन आरम्भ करता हूँ। मुने ! यह सब भगवान् शिवकी लीला ही है।
वे प्रभु अनेक प्रकारकी लीला करनेवाले, स्वतन्त्र और निर्विकार हैं। देवी सती भी वैसी ही हैं। अन्यथा वैसा कर्म करनेमें कौन समर्थ हो सकता है। परमेश्वर शिव ही परब्रह्म परमात्मा हैं।
एक समयकी बात है, तीनों लोकोंमें विचरनेवाले लीलाविशारद भगवान् रुद्र सतीके साथ बैलपर आरूढ़ हो इस भूतलपर भ्रमण कर रहे थे। घूमते-घूमते वे दण्डकारण्यमें आये। वहाँ उन्होंने लक्ष्मणसहित भगवान् श्रीरामको देखा, जो रावणद्वारा छलपूर्वक हरी गयी अपनी प्यारी पत्नी सीताकी खोज कर रहे थे।
वे ‘हा सीते!’ ऐसा उच्चस्वरसे पुकारते, जहाँ-तहाँ देखते और बारंबार रोते थे। उनके मनमें विरहका आवेश छा गया था। सूर्यवंशमें उत्पन्न, वीर भूपाल, दशरथनन्दन, भरताग्रज श्रीराम आनन्दरहित हो लक्ष्मणके साथ वनमें भ्रमण कर रहे थे और उनकी कान्ति फीकी पड़ गयी थी।
उस समय उदारचेता पूर्णकाम भगवान् शंकरने बड़ी प्रसन्नताके साथ उन्हें प्रणाम किया और जय-जयकार करके वे दूसरी ओर चल दिये। भक्तवत्सल शंकरने उस वनमें श्रीरामके सामने अपनेको प्रकट नहीं किया। भगवान् शिवकी मोहमें डालनेवाली ऐसी लीला देख सतीको बड़ा विस्मय हुआ। वे उनकी मायासे मोहित हो उनसे इस प्रकार बोलीं।
सतीने कहा-देवदेव सर्वेश ! परब्रह्म परमेश्वर ! ब्रह्मा, विष्णु आदि सब देवता आपकी ही सदा सेवा करते हैं। आप ही सबके द्वारा प्रणाम करनेयोग्य हैं। सबको आपका ही सर्वदा सेवन और ध्यान करना चाहिये। वेदान्त-शास्त्रके द्वारा यत्नपूर्वक जाननेयोग्य निर्विकार परमप्रभु आप ही हैं।
नाथ ! ये दोनों पुरुष कौन हैं; इनकी आकृति विरहव्यथासे व्याकुल दिखायी देती है। ये दोनों धनुर्धर वीर वनमें विचरते हुए क्लेशके भागी और दीन हो रहे हैं। इनमें जो ज्येष्ठ है, उसकी अंगकान्ति नीलकमलके समान श्याम है। उसे देखकर किस कारणसे आप आनन्दविभोर हो उठे थे ? आपका चित्त क्यों अत्यन्त प्रसन्न हो गया था ?
आप इस समय भक्तके समान विनम्र क्यों हो गये थे ? स्वामिन् ! कल्याणकारी शिव ! आप मेरे संशयको सुनें। प्रभो ! सेव्य स्वामी अपने सेवकको प्रणाम करे, यह उचित नहीं जान पड़ता।
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! कल्याणमयी परमेश्वरी आदिशक्ति सती देवीने शिवकी मायाके वशीभूत होकर जब भगवान् शिवसे इस प्रकार प्रश्न किया, तब सतीकी वह बात सुनकर लीलाविशारद परमेश्वर शंकर हँसकर उनसे इस प्रकार बोले।
परमेश्वरने कहा- देवि ! सुनो, मैं प्रसन्नतापूर्वक यथार्थ बात कहता हूँ। इसमें छल नहीं है। वरदानके प्रभावसे ही मैंने इन्हें आदरपूर्वक प्रणाम किया है। प्रिये ! ये दोनों भाई वीरोंद्वारा सम्मानित हैं। इनके नाम हैं- श्रीराम और लक्ष्मण। इनका प्राकट्य सूर्यवंशमें हुआ है। ये दोनों राजा दशरथके विद्वान् पुत्र हैं।
इनमें जो गोरे रंगके छोटे बन्धु हैं, वे साक्षात् शेषके अंश हैं। उनका नाम लक्ष्मण है। इनके बड़े भैयाका नाम श्रीराम है। इनके रूपमें भगवान् विष्णु ही अपने सम्पूर्ण अंशसे प्रकट हुए हैं। उपद्रव इनसे दूर ही रहते हैं। ये साधुपुरुषोंकी रक्षा और हमलोगोंके कल्याणके लिये इस पृथ्वीपर अवतीर्ण हुए हैं!
ऐसा कहकर सृष्टिकर्ता भगवान् शम्भु चुप हो गये। भगवान् शिवकी ऐसी बात सुनकर भी सतीके मनको इसपर विश्वास नहीं हुआ। क्यों न हो, भगवान् शिवकी माया बड़ी प्रबल है, वह सम्पूर्ण त्रिलोकीको मोहमें डाल देनेवाली है। सतीके मनमें मेरी बातपर विश्वास नहीं है, यह जानकर लीलाविशारद प्रभु सनातन शम्भु यों बोले।
शिवने कहा-देवि ! मेरी बात सुनो। यदि तुम्हारे मनमें मेरे कथनपर विश्वास नहीं है तो तुम वहाँ जाकर अपनी ही बुद्धिसे श्रीरामकी परीक्षा कर लो। प्यारी सती ! जिस प्रकार तुम्हारा मोह या भ्रम नष्ट हो जाय, वह करो। तुम वहाँ जाकर परीक्षा करो। तबतक मैं इस बरगदके नीचे खड़ा हूँ।
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! भगवान् शिवकी आज्ञासे ईश्वरी सती वहाँ गयीं और मन-ही-मन यह सोचने लगीं कि ‘मैं वनचारी रामकी कैसे परीक्षा करूँ, अच्छा, मैं सीताका रूप धारण करके रामके पास चलूँ। यदि राम साक्षात् विष्णु हैं, तब तो सब कुछ जान लेंगे; अन्यथा वे मुझे नहीं पहचानेंगे।’ ऐसा विचार सती सीता बनकर श्रीरामके समीप उनकी परीक्षा लेनेके लिये गयीं।
वास्तवमें वे मोहमें पड़ गयी थीं। सतीको सीताके रूपमें सामने आयी देख शिव- शिवका जप करते हुए रघुकुलनन्दन श्रीराम सब कुछ जान गये और हँसते हुए उन्हें नमस्कार करके बोले।
श्रीरामने पूछा- सतीजी ! आपको नमस्कार है। आप प्रेमपूर्वक बतायें, भगवान् शम्भु कहाँ गये हैं? आप पतिके बिना अकेली ही इस वनमें क्योंकर आयीं ? देवि ! आपने अपना रूप त्यागकर किसलिये यह नूतन रूप धारण किया है? मुझपर कृपा करके इसका कारण बताइये।
श्रीरामचन्द्रजीकी यह बात सुनकर सती उस समय आश्चर्यचकित हो गयीं। वे शिवजीकी कही हुई बातका स्मरण करके और उसे यथार्थ समझकर बहुत लज्जित हुईं। श्रीरामको साक्षात् विष्णु जान अपने रूपको प्रकट करके मन-ही-मन भगवान् शिवके चरणारविन्दोंका चिन्तन कर प्रसन्नचित्त हुई सती उनसे इस तरह बोलीं- ‘रघुनन्दन ! स्वतन्त्र परमेश्वर भगवान् शिव
मेरे तथा अपने पार्षदोंके साथ पृथ्वीपर भ्रमण करते हुए इस वनमें आ गये थे। यहाँ उन्होंने सीताकी खोजमें लगे हुए लक्ष्मणसहित तुमको देखा। उस समय सीताके लिये तुम्हारे मनमें बड़ा क्लेश था और तुम विरहशोकसे पीड़ित दिखायी देते थे। उस अवस्थामें तुम्हें प्रणाम करके वे चले गये और उस वटवृक्षके नीचे अभी खड़े ही हैं।
भगवान् शिव बड़े आनन्दके साथ तुम्हारे वैष्णवरूपकी उत्कृष्ट महिमाका गान कर रहे थे। यद्यपि उन्होंने तुम्हें चतुर्भुज विष्णुके रूपमें नहीं देखा तो भी तुम्हारा दर्शन करते ही वे आनन्दविभोर हो गये। इस निर्मल रूपकी ओर देखते हुए उन्हें बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ। इस विषयमें मेरे पूछनेपर भगवान् शम्भुने जो बात कही, उसे सुनकर मेरे मनमें भ्रम उत्पन्न हो गया। अतः राघवेन्द्र ! मैंने उनकी आज्ञा लेकर तुम्हारी परीक्षा की है। श्रीराम !
अब मुझे ज्ञात हो गया कि तुम साक्षात् विष्णु हो। तुम्हारी सारी प्रभुता मैंने अपनी आँखों देख ली। अब मेरा संशय दूर हो गया तो भी महामते ! तुम मेरी बात सुनो। मेरे सामने यह सच-सच बताओ कि तुम भगवान् शिवके भी वन्दनीय कैसे हो गये ? मेरे मनमें यही एक संदेह है।
इसे निकाल दो और शीघ्र ही मुझे पूर्ण शान्ति प्रदान करो।’ सतीका यह वचन सुनकर श्रीरामके नेत्र प्रफुल्ल कमलके समान खिल उठे। उन्होंने मन-ही-मन अपने प्रभु भगवान् शिवका स्मरण किया। इससे उनके हृदयमें प्रेमकी बाढ़ आ गयी। मुने ! आज्ञा न होनेके कारण वे सतीके साथ भगवान् शिवके निकट नहीं गये तथा मन-ही-मन उनकी महिमाका वर्णन करके श्रीरघुनाथजीने सतीसे कहना प्रारम्भ किया।
(अध्याय २४)