Shiv puran rudra samhita sati khand chapter 21 to 23 (शिव पुराण रुद्रसंहिता सती सृष्टि खंड अध्याय:21 से 23 सतीका प्रश्न तथा उसके उत्तरमें भगवान् शिवद्वारा ज्ञान एवं नवधा भक्तिके स्वरूपका विवेचन)

(रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खण्ड))

Shiv puran rudra samhita sati khand chapter 21 to 23 (शिव पुराण रुद्रसंहिता सती सृष्टि खंड अध्याय:21 से 23 सतीका प्रश्न तथा उसके उत्तरमें भगवान् शिवद्वारा ज्ञान एवं नवधा भक्तिके स्वरूपका विवेचन)

(अध्याय:21 से और 23 )

:-कैलास तथा हिमालय पर्वतपर श्रीशिव और सतीके विविध विहारोंका विस्तारपूर्वक वर्णन करनेके पश्चात् ब्रह्माजीने कहा-मुने ! एक दिनकी बात है, देवी सती एकान्तमें भगवान् शंकरसे मिलीं और उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़ खड़ी हो गयीं। प्रभु शंकरको पूर्ण प्रसन्न जान नमस्कार करके विनीतभावसे खड़ी हुई दक्षकुमारी सती भक्तिभावसे अंजलि बाँधे बोलीं।

सतीने कहा- देवदेव महादेव ! करुणासागर ! प्रभो ! दीनोद्धारपरायण ! महायोगिन् ! मुझपर कृपा कीजिये। आप परम पुरुष हैं। सबके स्वामी हैं। रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुणसे परे हैं। निर्गुण भी हैं, सगुण भी हैं। सबके साक्षी, निर्विकार और महाप्रभु हैं। हर ! मैं धन्य हूँ, जो आपकी कामिनी और आपके साथ सुन्दर विहार करनेवाली आपकी प्रिया हुई। स्वामिन् ! आप अपनी भक्तवत्सलतासे ही प्रेरित होकर मेरे पति हुए हैं। नाथ ! मैंने बहुत वर्षोंतक आपके साथ विहार किया है।

 

महेशान ! इससे मैं बहुत संतुष्ट हुई हूँ और अब मेरा मन उधरसे हट गया है। देवेश्वर हर ! अब तो मैं उस परम तत्त्वका ज्ञान प्राप्त करना चाहती हूँ, जो निरतिशय सुख प्रदान करनेवाला है तथा जिसके द्वारा जीव संसार-दुःखसे अनायास ही उद्धार पा सकता है। नाथ ! जिस कर्मका अनुष्ठान करके विषयी जीव भी परम पदको प्राप्त कर ले और संसारबन्धनमें न बँधे, उसे आप बताइये, मुझपर कृपा कीजिये।

ब्रह्माजी कहते हैं-मुने ! इस प्रकार आदिशक्ति महेश्वरी सतीने केवल जीवोंके उद्धारके लिये जब उत्तम भक्तिभावके साथ भगवान् शंकरसे प्रश्न किया, तब उनके उस प्रश्नको सुनकर स्वेच्छासे शरीर धारण करनेवाले तथा योगके द्वारा भोगसे विरक्त चित्तवाले स्वामी शिवने अत्यन्त प्रसन्न होकर सतीसे इस प्रकार कहा।

शिव बोले- देवि ! दक्षनन्दिनि ! महेश्वरि ! सुनो; मैं उसी परमतत्त्वका वर्णन करता हूँ, जिससे वासनाबद्ध जीव तत्काल मुक्त हो सकता है। परमेश्वरि ! तुम विज्ञानको परमतत्त्व जानो। विज्ञान वह है, जिसके उदय होनेपर ‘मैं ब्रह्म हूँ’ ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाता है, ब्रह्मके सिवा दूसरी किसी वस्तुका स्मरण नहीं रहता तथा उस विज्ञानी पुरुषकी बुद्धि सर्वथा शुद्ध हो जाती है।

 

प्रिये ! वह विज्ञान दुर्लभ है। इस त्रिलोकीमें उसका ज्ञाता कोई विरला ही होता है। वह जो और जैसा भी है, सदा मेरा स्वरूप ही है, साक्षात्परात्पर ब्रह्म है। उस विज्ञानकी माता है मेरी भक्ति, जो भोग और मोक्षरूप फल प्रदान करनेवाली है। वह मेरी कृपासे सुलभ होती है। भक्ति नौ प्रकारकी बतायी गयी है। सती ! भक्ति और ज्ञानमें कोई भेद नहीं है।

 

भक्त और ज्ञानी दोनोंको ही सदा सुख प्राप्त होता है। जो भक्तिका विरोधी है, उसे ज्ञानकी प्राप्ति नहीं ही होती। देवि ! मैं सदा भक्तके अधीन रहता हूँ और भक्तिके प्रभावसे जातिहीन नीच मनुष्योंके घरोंमें भी चला जाता हूँ, इसमें संशय नहीं  है।

 

* सती ! वह भक्ति दो प्रकारकी है- सगुणा और निर्गुणा। जो वैधी (शास्त्रविधिसे प्रेरित) और स्वाभाविकी (हृदयके सहज अनुरागसे प्रेरित) भक्ति होती है, वह श्रेष्ठ है तथा इससे भिन्न जो कामनामूलक भक्ति होती है, वह निम्नकोटिकी मानी गयी है। पूर्वोक्त सगुणा और निर्गुणा- ये दोनों प्रकारकी भक्तियाँ नैष्ठिकी और अनैष्ठिकीके भेदसे दो भेदवाली हो जाती हैं।

नैष्ठिकी भक्ति छः प्रकारकी जाननी चाहिये और अनैष्ठिकी एक ही प्रकारकी कही गयी है। विद्वान् पुरुष विहिता और अविहिता आदि भेदसे उसे अनेक प्रकारकी मानते हैं। इन द्विविध भक्तियोंके बहुत-से भेद-प्रभेद होनेके कारण इनके तत्त्वका अन्यत्र वर्णन किया गया है। प्रिये ! मुनियोंने सगुणा और निर्गुणा दोनों भक्तियोंके नौ अंग बताये हैं।

 

दक्षनन्दिनि ! मैं उन नवों अंगोंका वर्णन करता हूँ, तुम प्रेमसे सुनो। देवि ! श्रवण, कीर्तन, स्मरण, सेवन, दास्य, अर्चन, सदा मेरा वन्दन, सख्य और आत्मसमर्पण – ये विद्वानोंने भक्तिके नौ अंग माने हैं। शिवे ! भक्तिके उपांग भी बहुत-से बताये गये हैं।

देवि ! अब तुम मन लगाकर मेरी भक्तिके पूर्वोक्त नवों अंगोंके पृथक् पृथक् लक्षण सुनो; वे लक्षण भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं। जो स्थिर आसनसे बैठकर तन-मन आदिसे मेरी कथा-कीर्तन आदिका नित्य सम्मान करता हुआ प्रसन्नता- पूर्वक अपने श्रवणपुटोंसे उसके अमृतोपम रसका पान करता है, उसके इस साधनको ‘श्रवण’ कहते हैं। जो हृदयाकाशके द्वारा मेरे दिव्य जन्म-कर्मोंका चिन्तन करता हुआ प्रेमसे वाणीद्वारा उनका उच्चस्वरसे उच्चारण करता है, उसके इस भजन- साधनको ‘कीर्तन’ कहते हैं।

 

देवि ! मुझ नित्य महेश्वरको सदा और सर्वत्र व्यापक जानकर जो संसारमें निरन्तर निर्भय रहता है, उसीको स्मरण कहा गया है। अरुणोदयसे लेकर हर समय सेव्यकी अनुकूलताका ध्यान रखते हुए हृदय और इन्द्रियोंसे जो निरन्तर सेवा की जाती है, वही ‘सेवन’ नामक भक्ति है। अपनेको प्रभुका किंकर समझकर हृदयामृतके भोगसे स्वामीका सदा प्रिय सम्पादन करना ‘दास्य’ कहा गया है।

 

अपने धन-वैभवके अनुसार शास्त्रीय विधिसे मुझ परमात्माको सदा पाद्य आदि सोलह उपचारोंका जो समर्पण करना है, उसे ‘अर्चन’ कहते हैं। मनसे ध्यान और वाणीसे वन्दनात्मक मन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक आठों अंगोंसे भूतलका स्पर्श करते हुए जो इष्टदेवको नमस्कार किया जाता है, उसे ‘वन्दन’ कहते हैं।

 

ईश्वर मंगल या अमंगल जो कुछ भी करता है, वह सब मेरे मंगलके लिये ही है। ऐसा दृढ़ विश्वास रखना ‘सख्य’ भक्तिका लक्षण है। देह आदि जो कुछ भी अपनी कही जानेवाली वस्तु है, वह सब भगवान्‌की प्रसन्नताके लिये उन्हींको समर्पित करके अपने निर्वाहके लिये भी कुछ बचाकर न रखना अथवा निर्वाहकी चिन्तासे भी रहित हो जाना ‘आत्मसमर्पण’ कहलाता है।

 

ये मेरी भक्तिके नौ अंग हैं, जो भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं। इनसे ज्ञानका प्राकट्य होता है तथा ये सब साधन मुझे अत्यन्त प्रिय हैं। मेरी भक्तिके बहुत-से उपांग भी कहे गये हैं, जैसे बिल्व आदिका सेवन आदि। इनको विचारसे समझ लेना चाहिये।

प्रिये ! इस प्रकार मेरी सांगोपांग भक्ति सबसे उत्तम है। यह ज्ञान-वैराग्यकी जननी है और मुक्ति इसकी दासी है। यह सदा सब साधनोंसे ऊपर विराजमान है। इसके द्वारा सम्पूर्ण कर्मोंके फलकी प्राप्ति होती है। यह भक्ति मुझे सदा तुम्हारे समान ही प्रिय है। जिसके चित्तमें नित्य-निरन्तर यह भक्ति निवास करती है, वह साधक मुझे अत्यन्त प्यारा है।

 

देवेश्वरि ! तीनों लोकों और चारों युगोंमें भक्तिके समान दूसरा कोई सुखदायक मार्ग नहीं है। कलियुगमें तो यह विशेष सुखद एवं सुविधाजनक है। देवि ! कलियुगमें प्रायः ज्ञान और वैराग्यके कोई ग्राहक नहीं हैं। इसलिये वे दोनों वृद्ध, उत्साहशून्य और जर्जर हो गये हैं, परंतु भक्ति कलियुगमें तथा अन्य सब युगोंमें भी प्रत्यक्ष फल देनेवाली है।

 

भक्तिके प्रभावसे मैं सदा उसके वशमें रहता हूँ, इसमें संशय नहीं है। संसारमें जो भक्तिमान् पुरुष है, उसकी मैं सदा सहायता करता हूँ, उसके सारे विघ्नोंको दूर हटाता हूँ। उस भक्तका जो शत्रु होता है, वह मेरे लिये दण्डनीय है-इसमें संशय नहीं है। देवि ! मैं अपने भक्तोंका रक्षक हूँ।

 

भक्तकी रक्षाके लिये ही मैंने कुपित हो अपने नेत्रजनित अग्निसे कालको भी दग्ध कर डाला था। प्रिये ! भक्तके लिये मैं पूर्वकालमें सूर्यपर भी अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा था और शूल लेकर मैंने उन्हें मार भगाया था। देवि ! भक्तके लिये मैंने सैन्यसहित रावणको भी क्रोधपूर्वक त्याग दिया और उसके प्रति कोई पक्षपात नहीं किया। सती ! देवेश्वरि ! बहुत कहनेसे क्या लाभ, मैं सदा ही भक्तके अधीन रहता हूँ और भक्ति करनेवाले पुरुषके अत्यन्त वशमें हो जाता हूँ।

ब्रह्माजी कहते हैं- नारद ! इस प्रकार भक्तका महत्त्व सुनकर दक्षकन्या सतीको बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने अत्यन्त प्रसन्नता- पूर्वक भगवान् शिवको मन-ही-मन प्रणाम किया। मुने ! सती देवीने पुनः भक्ति- काण्डविषयक शास्त्रके विषयमें भक्ति- पूर्वक पूछा। उन्होंने जिज्ञासा की कि जो लोकमें सुखदायक तथा जीवोंके उद्धारके साधनोंका प्रतिपादक है, वह शास्त्र कौन- सा है।

 

उन्होंने यन्त्र-मन्त्र, शास्त्र, उसके माहात्म्य तथा अन्य जीवोद्धारक धर्ममय साधनोंके विषयमें विशेषरूपसे जाननेकी इच्छा प्रकट की। सतीके इस प्रश्नको सुनकर शंकरजीके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने जीवोंके उद्धारके लिये सब शास्त्रोंका प्रेमपूर्वक वर्णन किया। महेश्वरने पाँचों अंगोंसहित तन्त्रशास्त्र, यन्त्रशास्त्र तथा भिन्न-भिन्न देवेश्वरोंकी महिमाका वर्णन किया।

 

मुनीश्वर ! इतिहास-कथासहित उन देवताओंके भक्तोंकी महिमाका, वर्णाश्रमधर्मोंका तथा राजधर्मोका भी निरूपण किया। पुत्र और स्त्रीके धर्मकी महिमाका, कभी नष्ट न होनेवाले वर्णाश्रमधर्मका और जीवोंको सुख देनेवाले वैद्यकशास्त्र तथा ज्योतिषशास्त्रका भी वर्णन किया।

महेश्वरने कृपा करके उत्तम सामुद्रिक शास्त्रका तथा और भी बहुत-से शास्त्रोंका तत्त्वतः वर्णन किया। इस प्रकार लोकोपकार करनेके लिये सद्गुणसम्पन्न शरीर धारण करनेवाले, त्रिलोक-सुखदायक और सर्वज्ञ सती-शिव हिमालयके कैलासशिखरपर तथा अन्यान्य स्थानोंमें नाना प्रकारकी लीलाएँ करते थे। वे दोनों दम्पति साक्षात् परब्रह्मस्वरूप हैं।

(अध्याय २१-२३)

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