(रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खण्ड))
Shiv puran rudra samhita sati khand chapter 13 (शिव पुराण रुद्रसंहिता सती सृष्टि खंड अध्याय:13 ब्रह्माजीकी आज्ञासे दक्षद्वारा मैथुनी सृष्टिका आरम्भ, अपने पुत्र हर्यश्वों और शबलाश्वोंको निवृत्तिमार्गमें भेजनेके कारण दक्षका नारदको शाप देना)
(अध्याय:13)
ब्रह्माजी कहते हैं- नारद ! प्रजापति दक्ष अपने आश्रमपर जाकर मेरी आज्ञा पा हर्षभरे मनसे नाना प्रकारकी मानसिक सृष्टि करने लगे। उस प्रजासृष्टिको बढ़ती हुई न देख प्रजापति दक्षने अपने पिता मुझ ब्रह्मासे कहा।
दक्ष बोले- ब्रह्मन् ! तात ! प्रजानाथ ! प्रजा बढ़ नहीं रही है। प्रभो! मैंने जितने जीवोंकी सृष्टि की थी, वे सब उतने ही रह गये हैं। प्रजानाथ! मैं क्या करूँ ? जिस उपायसे ये जीव अपने-आप बढ़ने लगें, वह मुझे बताइये। तदनुसार मैं प्रजाकी सृष्टि करूँगा, इसमें संशय नहीं है।
ब्रह्माजीने (मैंने) कहा- तात ! प्रजापते दक्ष ! मेरी उत्तम बात सुनो और उसके अनुसार कार्य करो। सुरश्रेष्ठ भगवान् शिव तुम्हारा कल्याण करेंगे। प्रजेश ! प्रजापति पंचजन (वीरण) की जो परम सुन्दरी पुत्री असिक्नी है, उसे तुम पत्नीरूपसे ग्रहण करो। स्त्रीके साथ मैथुन-धर्मका आश्रय ले तुम पुंनः इस प्रजासर्गको बढ़ाओ। असिक्नी-जैसी कामिनीके गर्भसे तुम बहुत- सी संतानें उत्पन्न कर सकोगे।
तदनन्तर मैथुन-धर्मसे प्रजाकी उत्पत्ति
करनेके उद्देश्यसे प्रजापति दक्षने मेरी आज्ञाके
अनुसार वीरण प्रजापतिकी पुत्रीके साथ
विवाह किया। अपनी पत्नी वीरिणीके गर्भसे प्रजापति दक्षने दस हजार पुत्र उत्पन्न किये, जो हर्यश्व कहलाये। मुने ! वे सब-के-सब पुत्र समान धर्मका आचरण करनेवाले हुए। पिताकी भक्तिमें तत्पर रहकर वे सदा वैदिक मार्गपर ही चलते थे। एक समय पिताने उन्हें प्रजाकी सृष्टि करनेका आदेश दिया। तात ! तब वे सभी दाक्षायण नामधारी पुत्र सृष्टिके उद्देश्यसे तपस्या करनेके लिये पश्चिम दिशाकी ओर गये। वहाँ नारायण-सर नामक परम पावन तीर्थ है, जहाँ दिव्य सिन्धु नद और समुद्रका संगम हुआ है। उस तीर्थजलका ही निकटसे स्पर्श करते उनका अन्तःकरण शुद्ध एवं ज्ञानसे सम्पन्न हो गया। उनकी आन्तरिक मलराशि धुल गयी और वे परमहंस-धर्ममें स्थित हो गये। दक्षके वे सभी पुत्र पिताके आदेशमें बँधे हुए थे। अतः मनको सुस्थिर करके प्रजाकी वृद्धिके लिये वहाँ तप करने लगे। वे सभी सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ थे।
नारद ! जब तुम्हें पता लगा कि हर्यश्वगण सृष्टिके लिये तपस्या कर रहे हैं, तब भगवान् लक्ष्मीपतिके हार्दिक अभिप्रायको जानकर तुम स्वयं उनके पास गये और आदरपूर्वक यों बोले- ‘दक्षपुत्र हर्यश्वगण ! तुमलोग पृथ्वीका अन्त देखे
बिना सृष्टि-रचना करनेके लिये कैसे उद्यत हो गये ?’
ब्रह्माजी कहते हैं- नारद ! हर्यश्व आलस्यसे दूर रहनेवाले थे और जन्मकालसे ही बड़े बुद्धिमान् थे। वे सब-के-सब तुम्हारा उपर्युक्त कथन सुनकर स्वयं उसपर विचार करने लगे। उन्होंने यह विचार किया कि ‘जो उत्तम शास्त्ररूपी पिताके निवृत्तिपरक आदेशको नहीं समझता, वह केवल रज आदि गुणोंपर विश्वास करनेवाला पुरुष सृष्टिनिर्माणका कार्य कैसे आरम्भ कर सकता है।’ ऐसा निश्चय करके वे उत्तम बुद्धि और एकचित्तवाले दक्षकुमार नारदको प्रणाम और उनकी परिक्रमा करके ऐसे पथपर चले गये, जहाँ जाकर कोई वापस नहीं लौटता है। नारद ! तुम भगवान् शंकरके मन हो और मुने ! तुम समस्त लोकोंमें अकेले विचरा करते हो। तुम्हारे मनमें कोई विकार नहीं है; क्योंकि तुम सदा महेश्वरकी मनोवृत्तिके अनुसार ही कार्य करते हो। जब बहुत समय बीत गया, तब मेरे पुत्र प्रजापति दक्षको यह पता लगा कि मेरे सभी पुत्र नारदसे शिक्षा पाकर नष्ट हो गये (मेरे हाथसे निकल गये)। इससे उन्हें बड़ा दुःख हुआ। वे बार-बार कहने लगे – उत्तम संतानोंका पिता होना शोकका ही स्थान है (क्योंकि श्रेष्ठ पुत्रोंके बिछुड़ जानेसे पिताको बड़ा कष्ट होता है)। शिवकी मायासे मोहित होनेसे दक्षको पुत्रवियोगके कारण बहुत शोक होने लगा। तब मैंने आकर अपने बेटे दक्षको बड़े प्रेमसे समझाया और सान्त्वना दी। दैवका विधान प्रबल होता है- इत्यादि बातें बताकर उनके मनको
शान्त किया। मेरे सान्त्वना देनेपर दक्ष पुनः
पंचजनकन्या असिक्नीके गर्भसे शबलाश्व
नामके एक सहस्त्र पुत्र उत्पन्न किये। पिताका आदेश पाकर वे पुत्र भी प्रजासृष्टिके लिये दृढ़तापूर्वक प्रतिज्ञापालनका नियम ले उसी स्थानपर गये, जहाँ उनके सिद्धिको प्राप्त हुए बड़े भाई गये थे। नारायणसरोवरके जलका स्पर्श होनेमात्रसे उनके सारे पाप नष्ट हो गये, अन्तःकरणमें शुद्धता आ गयी और वे उत्तम व्रतके पालक शबलाश्व ब्रह्म (प्रणव) का जप करते हुए वहाँ बड़ी भारी तपस्या करने लगे। उन्हें प्रजासृष्टिके लिये उद्यत जान तुम पुनः पहलेकी ही भाँति ईश्वरीय गतिका स्मरण करते हुए उनके पास गये और वही बात कहने लगे, जो उनके भाइयोंसे पहले कह चुके थे। मुने ! तुम्हारा दर्शन अमोघ है, इसलिये तुमने उनको भी भाइयोंका ही मार्ग दिखाया। अतएव वे भाइयोंके ही पथपर ऊर्ध्वगतिको प्राप्त हुए। उसी समय प्रजापति दक्षको बहुत-से उत्पात दिखायी दिये। इससे मेरे पुत्र दक्षको बड़ा विस्मय हुआ और वे मन- ही-मन दुःखी हुए। फिर उन्होंने पूर्ववत् तुम्हारी ही करतूतसे अपने पुत्रोंका नाश हुआ सुना, इससे उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। वे पुत्रशोकसे मूच्छित हो अत्यन्त कष्टका अनुभव करने लगे। फिर दक्षने तुमपर बड़ा क्रोध किया और कहा- ‘यह नारद बड़ा दुष्ट है।’ दैववश उसी समय तुम दक्षपर अनुग्रह करनेके लिये वहाँ आ पहुँचे। तुम्हें देखते ही शोकावेशसे युक्त हुए दक्षके ओठ रोषसे फड़कने लगे। तुम्हें सामने पाकर वे धिक्कारने और निन्दा करने लगे। दक्षने कहा-ओ नीच ! तुमने यह
क्या किया ? तुमने झूठ-मूठ साधुओंका
बाना पहन रखा है। इसीके द्वारा ठगकर हमारे भोले-भाले बालकोंको जो तुमने भिक्षुओंका मार्ग दिखाया है, यह अच्छा नहीं किया। तुम निर्दय और शठ हो। इसीलिये तुमने हमारे इन बालकोंके, जो अभी ऋषि-ऋण, देव-ऋण और पितृ ऋणसे मुक्त नहीं हो पाये थे, लोक और परलोक दोनोंके श्रेयका नाश कर डाला। जो पुरुष इन तीनों ऋणोंको
उतारे बिना ही मोक्षकी इच्छा मनमें लिये माता-पिताको त्यागकर घरसे निकल जाता है-संन्यासी हो जाता है, वह अधोगतिको प्राप्त होता है। तुम निर्दय और बड़े निर्लज्ज हो। बच्चोंकी बुद्धिमें भेद पैदा करनेवाले हो और अपने सुयशको स्वयं ही नष्ट कर रहे हो। मूढ़मते ! तुम भगवान् विष्णुके पार्षदोंमें व्यर्थ ही घूमते-फिरते हो। अधमाधम ! तुमने बारंबार मेरा अमंगल किया है। अतः आजसे तीनों लोकोंमें विचरते हुए तुम्हारा पैर कहीं स्थिर नहीं रहेगा अथवा कहीं भी तुम्हें ठहरनेके लिये सुस्थिर ठौर-ठिकाना नहीं मिलेगा।’
नारद ! यद्यपि तुम साधु पुरुषोंद्वारा सम्मानित हो, तथापि उस समय दक्षने शोकवश तुम्हें वैसा शाप दे दिया। वे ईश्वरकी इच्छाको नहीं समझ सके। शिवकी मायाने उन्हें अत्यन्त मोहित कर दिया था। मुने ! तुमने उस शापको चुपचाप ग्रहण कर लिया और अपने चित्तमें विकार नहीं आने दिया। यही ब्रह्मभाव है। ईश्वरकोटिके महात्मा पुरुष स्वयं शापको मिटा देनेमें समर्थ होनेपर भी उसे सह लेते हैं।
(अध्याय १३)