(रुद्रसंहिता, तृतीय (पार्वती) खण्ड)
Shiv puran rudra samhita Parwati khand chapter 9 or 10 (शिव पुराण रुद्रसंहिता पार्वती खंड अध्याय 9 और 10 मेना और हिमालयकी बातचीत, पार्वती तथा हिमवान्के स्वप्न तथा भगवान् शिवसे ‘मंगल’ ग्रहकी उत्पत्तिका प्रसंग)
(अध्याय 9 और 10)
:-ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! जब तुम स्वर्गलोकको चले गये, तबसे कुछ काल और व्यतीत हो जानेपर एक दिन मेनाने हिमवान्के निकट जाकर उन्हें प्रणाम किया। फिर खड़ी हो वे गिरिकामिनी मेना अपने पतिसे विनयपूर्वक बोलीं।
मेनाने कहा-प्राणनाथ ! उस दिन नारद मुनिने जो बात कही थी, उसको स्त्री-स्वभावके कारण मैंने अच्छी तरह नहीं समझा; मेरी तो यह प्रार्थना है कि आप कन्याका विवाह किसी सुन्दर वरके साथ कर दीजिये। वह विवाह सर्वथा अपूर्व सुख देनेवाला होगा। गिरिजाका वर शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न और कुलीन होना चाहिये। मेरी बेटी मुझे प्राणोंसे भी अधिक प्रिय है। वह उत्तम वर पाकर जिस प्रकार भी प्रसन्न और सुखी हो सके, वैसा कीजिये। आपको मेरा नमस्कार है।
ऐसा कहकर मेना अपने पतिके चरणोंपर गिर पड़ीं। उस समय उनके मुखपर आँसुओंकी धारा बह रही थी। प्राज्ञशिरोमणि हिमवान्ने उन्हें उठाया और यथावत् समझाना आरम्भ किया।
हिमालय बोले- देवि मेनके ! मैं यथार्थ और तत्त्वकी बात बताता हूँ सुनो ! भ्रम छोड़ो। मुनिकी बात कभी झूठी नहीं हो सकती। यदि बेटीपर तुम्हें स्नेह है तो उसे सादर शिक्षा दो कि वह भक्तिपूर्वक सुस्थिर चित्तसे भगवान् शंकरके लिये तप करे।
मेनके ! यदि भगवान् शिव प्रसन्न होकर कालीका पाणिग्रहण कर लेते हैं तो सब शुभ ही होगा। नारदजीका बताया हुआ अमंगल या अशुभ नष्ट हो जायगा। शिवके समीप सारे अमंगल सदा मंगलरूप हो जाते हैं। इसलिये तुम पुत्रीको शिवकी प्राप्तिके लिये तपस्या करनेकी शीघ्र शिक्षा दो।
ब्रह्माजी कहते हैं- नारद ! हिमवान्की यह बात सुनकर मेनाको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे तपस्यामें रुचि उत्पन्न करनेके लिये पुत्रीको उपदेश देनेके निमित्त उसके पास गयीं। परंतु बेटीके सुकुमार अंगपर दृष्टिपात करके मेनाके मनमें बड़ी व्यथा हुई। उनके दोनों नेत्रोंमें तुरंत आँसू भर आये।
फिर तो गिरिप्रिया मेनामें अपनी पुत्रीको उपदेश देनेकी शक्ति नहीं रह गयी। अपनी माताकी उस चेष्टाको पार्वतीजी शीघ्र ही ताड़ गयीं। तब वे सर्वज्ञ परमेश्वरी कालिका देवी माताको बारंबार आश्वासन दे तुरंत बोलीं।
पार्वतीने कहा- माँ ! तुम बड़ी समझदार हो। मेरी यह बात सुनो। आज पिछली रात्रिके समय ब्राह्ममुहूर्तमें मैंने एक स्वप्न देखा है, उसे बताती हूँ। माताजी ! स्वप्नमें एक दयालु एवं तपस्वी ब्राह्मणने मुझे शिवकी प्रसन्नताके लिये उत्तम तपस्या करनेका प्रसन्नतापूर्वक उपदेश दिया है।
नारद ! यह सुनकर मेनकाने शीघ्र अपने पतिको बुलाया और पुत्रीके देखे हुए स्वप्नको पूर्णतः कह सुनाया। मेनकाके मुखसे पुत्रीके स्वप्नको सुनकर गिरिराज हिमालय बड़े प्रसन्न हुए और अपनी प्रिय पत्नीको समझाते हुए बोले।
गिरिराजने कहा-प्रिये ! पिछली रातमें मैंने भी एक स्वप्न देखा है। मैं आदरपूर्वक उसे बताता हूँ। तुम प्रेमपूर्वक उसे सुनो। एक बड़े उत्तम तपस्वी थे। नारदजीने वरके जैसे लक्षण बताये थे, उन्हीं लक्षणोंसे युक्त शरीरको उन्होंने धारण कर रखा था। वे बड़ी प्रसन्नताके साथ मेरे नगरके निकट तपस्या करनेके लिये आये।
उन्हें देखकर मुझे बड़ा हर्ष हुआ और मैं अपनी पुत्रीको साथ लेकर उनके पास गया। उस समय मुझे ज्ञात हुआ कि नारदजीके बताये हुए वर भगवान् शम्भु ये ही हैं। तब मैंने उन तपस्वीकी सेवाके लिये अपनी पुत्रीको उपदेश देकर उनसे भी प्रार्थना की कि वे इसकी सेवा स्वीकार करें।
परंतु उस समय उन्होंने मेरी बात नहीं मानी, इतनेमें ही वहाँ सांख्य और वेदान्तके अनुसार बहुत बड़ा विवाद छिड़ गया। तदनन्तर उनकी आज्ञासे मेरी बेटी वहीं रह गयी और अपने हृदयमें उन्हींकी कामना रखकर भक्तिपूर्वक उनकी सेवा करने लगी। सुमुखि ! यही मेरा देखा हुआ स्वप्न है, जिसे मैंने तुम्हें बता दिया।
अतः प्रिये मेने ! कुछ कालतक इस स्वप्नके फलकी परीक्षा या प्रतीक्षा करनी चाहिये, इस समय यही उचित जान पड़ता है। तुम निश्चित समझो, यही मेरा विचार है।ब्रह्माजी कहते हैं-मुनीश्वर नारद ! ऐसा कहकर गिरिराज हिमवान् और मेनका शुद्ध हृदयसे उस स्वप्नके फलकी परीक्षा एवं प्रतीक्षा करने लगे।
देवर्षे ! शिवभक्तशिरोमणे ! भगव भगवान् शंकरका यश परम पावन, मंगलकारी, भक्तिवर्धक और उत्तम है। तुम इसे आदरपूर्वक सुनो। दक्ष-यज्ञसे अपने निवासस्थान कैलास पर्वतपर आकर भगवान् शम्भु प्रियाविरहसे कातर हो गये और प्राणोंसे भी अधिक प्यारी सतीदेवीका हृदयसे चिन्तन करने लगे।
अपने पार्षदोंको बुलाकर सतीके लिये शोक करते हुए उनके प्रेमवर्द्धक गुणोंका अत्यन्त प्रीतिपूर्वक वर्णन करने लगे। यह सब उन्होंने सांसारिक गतिको दिखानेके लिये किया। फिर, गृहस्थ- आश्रमकी सुन्दर स्थिति तथा नीति-रीतिका परित्याग करके वे दिगम्बर हो गये और सब लोकोंमें उन्मत्तकी भाँति भ्रमण करने लगे।
लीलाकुशल होनेके कारण विरहीकी अवस्थाका प्रदर्शन करने लगे। सतीके विरहसे दुःखित हो कहीं भी उनका दर्शन न पाकर भक्तकल्याणकारी भगवान् शंकर पुनः कैलासगिरिपर लौट आये और मनको यत्नपूर्वक एकाग्र करके उन्होंने समाधि लगा ली, जो समस्त दुःखोंका नाश करनेवाली है। समाधिमें वे अविनाशी स्वरूपका दर्शन करने लगे।
इस तरह तीनों गुणोंसे रहित हो वे भगवान् शिव चिरकालतक सुस्थिरभावसे समाधि लगाये बैठे रहे। वे प्रभु स्वयं ही मायाके अधिपति निर्विकार परब्रह्म हैं। तदनन्तर जब असंख्य वर्ष व्यतीत हो गये, तब उन्होंने समाधि छोड़ी। उसके बाद तुरंत ही जो चरित्र हुआ, उसे मैं तुम्हें बताता हूँ।
भगवान् शिवके ललाटसे उस समय श्रमजनित पसीनेकी एक बूँद पृथ्वीपर गिरी और तत्काल एक शिशुके रूपमें परिणत हो गयी। मुने ! उस बालकके चार भुजाएँ थीं, शरीरकी कान्ति लाल थी और आकार मनोहर था। दिव्य द्युतिसे दीप्तिमान् वह शोभाशाली बालक अत्यन्त दुस्सह तेजसे सम्पन्न था, तथापि उस समय लोकाचार- परायण परमेश्वर शिवके आगे वह साधारण शिशुकी भाँति रोने लगा।
यह देख पृथ्वी भगवान् शंकरसे भय मान उत्तम बुद्धिसे विचार करनेके पश्चात् सुन्दरी स्त्रीका रूप धारण करके वहीं प्रकट हो गयीं। उन्होंने उस सुन्दर बालकको तुरंत उठाकर अपनी गोदमें रख लिया और अपने ऊपर प्रकट होनेवाले दूधको ही स्तन्यके रूपमें उसे पिलाने लगीं। उन्होंने स्नेहसे उसका मुँह चूमा और अपना ही बालक मान हँस- हँसकर उसे खेलाने लगीं।
परमेश्वर शिवका हितसाधन करनेवाली पृथ्वीदेवी सच्चे भावसे स्वयं उसकी माता बन गयीं। संसारकी सृष्टि करनेवाले, परम कौतुकी एवं विद्वान् अन्तर्यामी शम्भु वह चरित्र देखकर हँस पड़े और पृथ्वीको पहचानकर उनसे बोले – ‘धरणि! तुम धन्य हो ! मेरे इस पुत्रका प्रेमपूर्वक पालन करो। यह श्रेष्ठ शिशु मुझ महातेजस्वी शम्भुके श्रमजल (पसीने) से तुम्हारे ही ऊपर उत्पन्न हुआ है।
वसुधे ! यह प्रियकारी बालक यद्यपि मेरे श्रमजलसे प्रकट हुआ है, तथापि तुम्हारे नामसे तुम्हारे ही पुत्रके रूपमें इसकी ख्याति होगी। यह सदा त्रिविध तापोंसे रहित होगा। अत्यन्त गुणवान् और भूमि देनेवाला होगा। यह मुझे भी सुख प्रदान करेगा। तुम इसे अपनी रुचिके अनुसार ग्रहण करो।’
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! ऐसा कहकर भगवान् शिव चुप हो गये। उनके हृदयसे विरहका प्रभाव कुछ कम हो गया। उनमें विरह क्या था, वे लोकाचारका पालन कर रहे थे। वास्तवमें सत्पुरुषोंके प्रिय श्रीरुद्रदेव निर्विकार परमात्मा ही हैं। शिवकी उपर्युक्त आज्ञाको शिरोधार्य करके पुत्रसहित पृथ्वीदेवी शीघ्र ही अपने स्थानको चली गयीं।
उन्हें आत्यन्तिक सुख मिला। वह बालक ‘भौम’ नामसे प्रसिद्ध हो युवा होनेपर तुरंत काशी चला गया और वहाँ उसने दीर्घकालतक भगवान् शंकरकी सेवा की। विश्वनाथजीकी कृपासे ग्रहकी पदवी पाकर वे भूमिकुमार शीघ्र ही श्रेष्ठ एवं दिव्यलोकमें चले गये, जो शुक्रलोकसे परे है।
(अध्याय ९-१०)