Shiv puran rudra samhita Parwati khand chapter 7 or 8 (शिव पुराण रुद्रसंहिता पार्वती खंड अध्याय 7 और 8 पार्वतीका नामकरण और विद्याध्ययन, नारदका हिमवान्‌के यहाँ जाना, पार्वतीका हाथ देखकर भावी फल बताना, चिन्तित हुए हिमवान्‌को आश्वासन दे पार्वतीका विवाह शिवजीके साथ करनेको कहना और उनके संदेहका निवारण करना)

(रुद्रसंहिता, तृतीय (पार्वती) खण्ड)

Shiv puran rudra samhita Parwati khand chapter 7 or 8 (शिव पुराण रुद्रसंहिता पार्वती खंड अध्याय 7 और 8 पार्वतीका नामकरण और विद्याध्ययन, नारदका हिमवान्‌के यहाँ जाना, पार्वतीका हाथ देखकर भावी फल बताना, चिन्तित हुए हिमवान्‌को आश्वासन दे पार्वतीका विवाह शिवजीके साथ करनेको कहना और उनके संदेहका निवारण करना)

(अध्याय 7 और 8)

:-ब्रह्माजी कहते हैं- नारद ! मेनाके सामने महातेजस्विनी कन्या होकर लौकिक गतिका आश्रय ले वह रोने लगी। उसका मनोहर रुदन सुनकर घरकी सब स्त्रियाँ हर्षसे खिल उठीं और बड़े वेगसे प्रसन्नतापूर्वक वहाँ आ पहुँचीं। नील कमल-दलके समान श्याम

कान्तिवाली उस परम तेजस्विनी और मनोरम कन्याको देखकर गिरिराज हिमालय अतिशय आनन्दमें निमग्न हो गये। तदनन्तर सुन्दर मुहूर्तमें मुनियोंके साथ हिमवान्ने अपनी पुत्रीके काली आदि सुखदायक नाम रखे। देवी शिवा गिरिराजके भवनमें

दिनोंदिन बढ़ने लगीं – ठीक उसी तरह, जैसे वर्षाके समयमें गंगाजीकी जलराशि और शरद्-ऋतुके शुक्लपक्षमें चाँदनी बढ़ती है। सुशीलता आदि गुणोंसे संयुक्त तथा बन्धुजनोंकी प्यारी उस कन्याको कुटुम्बके लोग अपने कुलके अनुरूप पार्वती नामसे पुकारने लगे। माताने कालिकाको ‘उमा’ (अरी ! तपस्या मत कर) कहकर तप करनेसे रोका था।

 

मुने ! इसलिये वह सुन्दर मुखवाली गिरिराजनन्दिनी आगे चलकर लोकमें उमाके नामसे विख्यात हो गयी। नारद ! तदनन्तर जब विद्याके उपदेशका समय आया, तब शिवादेवी अपने चित्तको एकाग्र करके बड़ी प्रसन्नताके साथ श्रेष्ठ गुरुसे विद्या पढ़ने लगीं। पूर्वजन्मकी सारी विद्याएँ उन्हें उसी तरह प्राप्त हो गयीं, जैसे शरत्कालमें हंसोंकी पाँत अपने-आप स्वर्गंगाके तटपर पहुँच जाती है और रात्रिमें अपना प्रकाश स्वतः महौषधियोंको प्राप्त हो जाता है।

 

मुने ! इस प्रकार मैंने शिवाकी किसी एक लीलाका ही वर्णन किया है। अब अन्य लीलाका वर्णन करूँगा, सुनो। एक समयकी बात है तुम भगवान् शिवकी प्रेरणासे प्रसन्नतापूर्वक हिमाचलके घर गये। मुने ! तुम शिवतत्त्वके ज्ञाता और उनकी लीलाके जानकारोंमें श्रेष्ठ हो। नारद ! गिरिराज हिमालयने तुम्हें घरपर आया देख प्रणाम करके तुम्हारी पूजा की और अपनी पुत्रीको बुलाकर उससे तुम्हारे चरणोंमें प्रणाम करवाया।

 

मुनीश्वर ! फिर स्वयं ही तुम्हें नमस्कार करके हिमाचलने अपने सौभाग्यकी सराहना की और अत्यन्त मस्तक झुका हाथ जोड़कर तुमसे कहा। हिमालय बोले- हे मुने नारद ! हे ब्रह्मपुत्रोंमें श्रेष्ठ ज्ञानवान् प्रभो ! आप सर्वज्ञ हैं और कृपापूर्वक दूसरोंके उपकारमें लगे रहते हैं। मेरी पुत्रीकी जन्मकुण्डलीमें जो गुण-दोष हो, उसे बताइये। मेरी बेटी किसकी सौभाग्यवती प्रिय पत्नी होगी।

ब्रह्माजी कहते हैं-मुनिश्रेष्ठ ! तुम बातचीतमें कुशल और कौतुकी तो हो ही, गिरिराज हिमालयके ऐसा कहनेपर तुमने कालिकाका हाथ देखा और उसके सम्पूर्ण अंगोंपर विशेषरूपसे दृष्टिपात करके हिमालयसे इस प्रकार कहना आरम्भ किया।

नारद बोले-शैलराज और मेना ! आपकी यह पुत्री चन्द्रमाकी आदिकलाके समान बढ़ी है। समस्त शुभ लक्षण इसके अंगोंकी शोभा बढ़ाते हैं। यह अपने पतिके लिये अत्यन्त सुखदायिनी होगी और माता- पिताकी भी कीर्ति बढ़ायेगी। संसारकी समस्त नारियोंमें यह परम साध्वी और स्वजनोंको सदा महान् आनन्द देनेवाली होगी।

 

गिरिराज ! तुम्हारी पुत्रीके हाथमें सब उत्तम लक्षण ही विद्यमान हैं। केवल एक रेखा विलक्षण है, उसका यथार्थ फल सुनो। इसे ऐसा पति प्राप्त होगा, जो योगी, नंग-धड़ंग रहनेवाला, निर्गुण और निष्काम होगा। उसके न माँ होगी न बाप। उसे मान- सम्मानका भी कोई खयाल नहीं रहेगा और वह सदा अमंगल वेष धारण करेगा।

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! तुम्हारी इस बातको सुन और सत्य मानकर मेना तथा हिमाचल दोनों पति-पत्नी बहुत दुःखित हुए, परंतु जगदम्बा शिवा तुम्हारे ऐसे वचनको सुनकर और लक्षणोंद्वारा उस भावी पतिको शिव मानकर मन-ही-मन हर्षसे खिल उठीं। ‘नारदजीकी बात कभी झूठ नहीं हो सकती’ यह सोचकर शिवा भगवान् शिवके युगलचरणोंमें सम्पूर्ण हृदयसे अत्यन्त स्नेह करने लगीं।

 

नारद ! उस समय मन-ही-मन दुःखी हो हिमवान्ने तुमसे कहा- ‘मुने ! उस रेखाका फल सुनकर मुझे बड़ा दुःख हुआ है। मैं अपनी पुत्रीको उससे बचानेके लिये क्या उपाय करूँ ?’ ‘मुने ! तुम महान् कौतुक करनेवाले और वार्तालाप-विशारद हो।’ हिमवान्‌की बात सुनकर अपने मंगलकारी वचनोंद्वारा उनका हर्ष बढ़ाते हुए तुमने इस प्रकार कहा।

नारद बोले- गिरिराज ! तुम स्नेहपूर्वक सुनो, मेरी बात सच्ची है। वह झूठ नहीं होगी। हाथकी रेखा ब्रह्माजीकी लिपि है। निश्चय ही वह मिथ्या नहीं हो सकती। अतः शैलप्रवर ! इस कन्याको वैसा ही पति मिलेगा, इसमें संशय नहीं। परंतु इस रेखाके कुफलसे बचनेके लिये एक उपाय भी है, उसे प्रेमपूर्वक सुनो। उसे करनेसे तुम्हें सुख मिलेगा। मैंने जैसे वरका निरूपण किया है, वैसे ही भगवान् शंकर हैं।

 

वे सर्वसमर्थ हैं और लीलाके लिये अनेक रूप धारण करते रहते हैं। उनमें समस्त कुलक्षण सद्गुणोंके समान हो जायँगे। समर्थ पुरुषमें कोई दोष भी हो तो वह उसे दुःख नहीं देता। असमर्थके लिये ही वह दुःखदायक होता है। इस विषयमें सूर्य, अग्नि और गंगाका दृष्टान्त सामने रखना चाहिये। इसलिये तुम विवेकपूर्वक अपनी कन्या शिवाको भगवान् शिवके हाथमें सौंप दो।

 

भगवान् शिव सबके ईश्वर, सेव्य, निर्विकार, सामर्थ्यशाली और अविनाशी हैं। वे जल्दी ही प्रसन्न हो जाते हैं। अतः शिवाको ग्रहण कर लेंगे, इसमें संशय नहीं है। विशेषतः वे तपस्यासे वशमें हो जाते हैं। यदि शिवा तप करे तो सब काम ठीक हो जायगा। सर्वेश्वर शिव सब प्रकारसे समर्थ हैं। वे इन्द्रके वज्रका भी विनाश कर सकते हैं।

 

ब्रह्माजी उनके अधीन हैं तथा वे सबको सुख देनेवाले हैं। पार्वती भगवान् शंकरकी प्यारी पत्नी होगी। वह सदा रुद्रदेवके अनुकूल रहेगी; क्योंकि यह महासाध्वी और उत्तम व्रतका पालन करनेवाली है तथा माता- पिताके सुखको बढ़ानेवाली है। यह तपस्या करके भगवान् शिवके मनको अपने वशमें कर लेगी और वे भगवान् भी इसके सिवा किसी दूसरी स्त्रीसे विवाह नहीं करेंगे।

 

इन दोनोंका प्रेम एक-दूसरेके अनुरूप है। वैसा उच्चकोटिका प्रेम न तो किसीका हुआ है, न इस समय है और न आगे होगा। गिरिश्रेष्ठ ! इन्हें देवताओंके कार्य करने हैं। उनके जो- जो काम नष्टप्राय हो गये हैं, उन सबका इनके द्वारा पुनः उज्जीवन या उद्धार होगा।

अद्रिराज ! आपकी कन्याको पाकर ही भगवान् हर अर्द्धनारीश्वर होंगे। इन दोनोंका पुनः हर्षपूर्वक मिलन होगा। आपकी यह पुत्री अपनी तपस्याके प्रभावसे सर्वेश्वर महेश्वरको संतुष्ट करके उनके शरीरके आधे भागको अपने अधिकारमें कर लेगी, उनका अर्धांग बन जायगी। गिरिश्रेष्ठ ! तुम्हें अपनी यह कन्या भगवान् शंकरके सिवा दूसरे किसीको नहीं देनी चाहिये। यह देवताओंका गुप्त रहस्य है, इसे कभी प्रकाशित नहीं करना चाहिये।

हिमालयने कहा-ज्ञानी मुने नारद ! मैं आपको एक बात बता रहा हूँ, उसे प्रेमपूर्वक सुनिये और आनन्दका अनुभव कीजिये। सुना जाता है, महादेवजी सब प्रकारकी आसक्तियोंका त्याग करके अपने मनको संयममें रखते हुए नित्य तपस्या करते हैं। देवताओंकी भी दृष्टिमें नहीं आते। देवर्षे ! ध्यानमार्गमें स्थित हुए वे भगवान् शम्भु परब्रह्ममें लगाये हुए अपने मनको कैसे हटायेंगे ?

 

ध्यान छोड़कर विवाह करनेको कैसे उद्यत होंगे? इस विषयमें मुझे महान् संदेह है। दीपककी लौके समान प्रकाशमान, अविनाशी, प्रकृतिसे परे, निर्विकार, निर्गुण, सगुण, निर्विशेष और निरीह जो परब्रह्म है, वही उनका अपना सदाशिव नामक स्वरूप है। अतः वे उसीका सर्वत्र साक्षात्कार करते हैं, किसी बाह्य – अनात्मवस्तुपर दृष्टि नहीं डालते। मुने ! यहाँ आये हुए किंनरोंके मुखसे उनके विषयमें नित्य ऐसी ही बात सुनी जाती है।

 

क्या वह बात मिथ्या ही है। विशेषतः यह बात भी सुननेमें आती है कि भगवान् हरने पूर्वकालमें सतीके समक्ष एक प्रतिज्ञा की थी। उन्होंने कहा था- ‘दक्षकुमारी प्यारी सती ! मैं तुम्हारे सिवा दूसरी किसी स्त्रीका अपनी पत्नी बनानेके लिये न वरण करूँगा न ग्रहण। यह मैं तुमसे सत्य कहता हूँ।’ इस प्रकार सतीके साथ उन्होंने पहले ही प्रतिज्ञा कर ली है। अब सतीके मर जानेपर वे दूसरी किसी स्त्रीको कैसे ग्रहण करेंगे?

यह सुनकर तुम (नारद) ने कहा- महामते ! गिरिराज ! इस विषयमें तुम्हें चिन्ता नहीं करनी चाहिये। तुम्हारी यह पुत्री काली ही पूर्वकालमें दक्षकन्या सती हुई थी। उस समय इसीका सदा सर्वमंगलदायी सती नाम था। वे सती दक्षकन्या होकर रुद्रकी प्यारी पत्नी हुई थीं।

 

उन्होंने पिताके यज्ञमें अनादर पाकर तथा भगवान् शंकरका भी अपमान हुआ देख क्रोधपूर्वक अपने शरीरको त्याग दिया था। वे ही सती फिर तुम्हारे घरमें उत्पन्न हुई हैं। तुम्हारी पुत्री साक्षात् जगदम्बा शिवा है। यह पार्वती भगवान् हरकी पत्नी होगी, इसमें संशय नहीं है।

नारद ! ये सब बातें तुमने हिमवान्‌को विस्तारपूर्वक बतायीं। पार्वतीका वह पूर्वरूप और चरित्र प्रीतिको बढ़ानेवाला है। कालीके उस सम्पूर्ण पूर्ववृत्तान्तको तुम्हारे मुखसे सुनकर हिमवान् अपनी पत्नी और पुत्रके साथ तत्काल संदेहरहित हो गये। इसी तरह तुम्हारे मुखसे अपनी उस पूर्वकथाको सुनकर कालीने लज्जाके मारे मस्तक झुका लिया और उसके मुखपर मन्द मुसकानकी प्रभा फैल गयी।

 

गिरिराज हिमालय पार्वतीके उस चरित्रको सुनकर उसके माथेपर हाथ फेरने लगे और मस्तक सूंघकर उसे अपने आसनके पास ही बिठा लिया।

नारद ! इसके पश्चात् तुम उसी क्षण प्रसन्नतापूर्वक स्वर्गलोकको चले गये और गिरिराज हिमवान् भी मन-ही-मन मनोहर आनन्दसे युक्त हो अपने सर्वसम्पत्तिशाली भवनमें प्रविष्ट हो गये।

(अध्याय ७-८)

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