Shiv puran rudra samhita Parwati khand chapter 5 (शिव पुराण रुद्रसंहिता पार्वती खंड अध्याय 5 मेनाको प्रत्यक्ष दर्शन देकर शिवादेवीका उन्हें अभीष्ट वरदानसे संतुष्ट करना तथा मेनासे मैनाकका जन्म)

(रुद्रसंहिता, तृतीय (पार्वती) खण्ड)

Shiv puran rudra samhita Parwati khand chapter 5 (शिव पुराण रुद्रसंहिता पार्वती खंड अध्याय 5 मेनाको प्रत्यक्ष दर्शन देकर शिवादेवीका उन्हें अभीष्ट वरदानसे संतुष्ट करना तथा मेनासे मैनाकका जन्म)

(अध्याय 5)

:-नारदजीने पूछा-पिताजी ! जब देवी दुर्गा अन्तर्धान हो गयीं और देवगण अपने-अपने धामको चले गये, उसके बाद क्या हुआ ?

ब्रह्माजीने कहा- मेरे पुत्रोंमें श्रेष्ठ विप्रवर नारद ! जब विष्णु आदि देवसमुदाय हिमालय और मेनाको देवीकी आराधनाका उपदेश दे चले गये, तब गिरिराज हिमाचल और मेना दोनों दम्पतिने बड़ी भारी तपस्या आरम्भ की। वे दिन-रात शम्भु और शिवाका चिन्तन करते हुए भक्तियुक्त चित्तसे नित्य उनकी सम्यक् रीतिसे आराधना करने लगे।

 

हिमवान्‌की पत्नी मेना बड़ी प्रसन्नतासे शिवसहित शिवादेवीकी पूजा करने लगीं। वे उन्हींके संतोषके लिये सदा ब्राह्मणोंको दान देती रहती थीं। मनमें संतानकी कामना ले मेना चैत्रमासके आरम्भसे लेकर सत्ताईस वर्षोंतक प्रतिदिन तत्परतापूर्वक शिवा- देवीकी पूजा और आराधनामें लगी रहीं। वे अष्टमीको उपवास करके नवमीको लड्डू, बलि-सामग्री, पीठी, खीर और गन्ध-पुष्प आदि देवीको भेंट करती थीं।

 

गंगाके किनारे ओषधिप्रस्थमें उमाकी मिट्टीकी मूर्ति बनाकर नाना प्रकारकी वस्तुएँ समर्पित करके उसकी पूजा करती थीं। मेनादेवी कभी निराहार रहतीं, कभी व्रतके नियमोंका पालन करतीं, कभी जल पीकर रहतीं और कभी हवा पीकर ही रह जाती थीं।

 

विशुद्ध तेजसे दमकती हुई दीप्तिमती मेनाने प्रेमपूर्वक शिवामें चित्त लगाये सत्ताईस वर्ष व्यतीत कर दिये। सत्ताईस वर्ष पूरे होनेपर जगन्मयी शंकरकामिनी जगदम्बा उमा अत्यन्त प्रसन्न हुईं।

 

मेनाकी उत्तम भक्तिसे संतुष्ट हो वे परमेश्वरी देवी उनपर अनुग्रह करनेके लिये उनके सामने प्रकट हुईं। तेजोमण्डलके बीचमें विराजमान तथा दिव्य अवयवोंसे संयुक्त उमादेवी प्रत्यक्ष दर्शन दे मेनासे हँसती हुई बोलीं।

देवीने कहा- गिरिराज हिमालयकी रानी महासाध्वी मेना ! मैं तुम्हारी तपस्यासे बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हारे मनमें जो अभिलाषा हो, उसे कहो। मेना ! तुमने तपस्या, व्रत और समाधिके द्वारा जिस-जिस वस्तुके लिये प्रार्थना की है, वह सब मैं तुम्हें दूँगी।

 

तब मेनाने प्रत्यक्ष प्रकट हुई कालिकादेवीको देखकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा।मेना बोलीं- देवि ! इस समय मुझे आपके रूपका प्रत्यक्ष दर्शन हुआ है। अतः मैं आपकी स्तुति करना चाहती हूँ। कालिके ! इसके लिये आप प्रसन्न हों।

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! मेनाके ऐसा कहनेपर सर्वमोहिनी कालिकादेवीने मनमें अत्यन्त प्रसन्न हो अपनी दोनों बाहोंसे खींचकर मेनाको हृदयसे लगा लिया। इससे उन्हें तत्काल महाज्ञानकी प्राप्ति हो गयी। फिर तो मेनादेवी प्रिय वचनोंद्वारा भक्ति- भावसे अपने सामने खड़ी हुई कालिकाकी स्तुति करने लगीं।

मेना बोलीं- जो महामाया जगत्‌को धारण करनेवाली चण्डिका, लोकधारिणी तथा सम्पूर्ण मनोवांछित पदार्थोंको देनेवाली हैं,उन महादेवीको मैं प्रणाम करती हूँ। जो नित्य आनन्द प्रदान करनेवाली माया, योगनिद्रा, जगज्जननी तथा सुन्दर कमलोंकी मालासे अलंकृत हैं, उन नित्य-सिद्धा उमादेवीको मैं नमस्कार करती हूँ।

 

जो सबकी मातामही, नित्य आनन्दमयी, भक्तोंके शोकका नाश करनेवाली तथा कल्पपर्यन्त नारियों एवं प्राणियोंकी बुद्धिरूपिणी हैं, उन देवीको मैं प्रणाम करती हूँ। आप यतियोंके अज्ञानमय बन्धनके नाशकी हेतुभूता ब्रह्मविद्या हैं। फिर मुझ जैसी नारियाँ आपके प्रभावका क्या वर्णन कर सकती हैं। अथर्ववेदकी जो हिंसा (मारण आदिका प्रयोग) है, वह आप ही हैं।

 

देवि ! आप मेरे अभीष्ट फलको सदा प्रदान कीजिये। भावहीन (आकाररहित) तथा अदृश्य नित्यानित्य तन्मात्राओंसे आप ही पंचभूतोंके समुदायको संयुक्त करती हैं। आप ही उनकी शाश्वत शक्ति हैं। आपका स्वरूप नित्य है। आप समय-समयपर योगयुक्त एवं समर्थ नारीके रूपमें प्रकट होती हैं। आप ही जगत्‌की योनि और आधार-शक्ति हैं। आप ही प्राकृत तत्त्वोंसे परे नित्या प्रकृति कही गयी हैं। जिसके द्वारा ब्रह्मके स्वरूपको वशमें किया जाता (जाना जाता) है, वह नित्या विद्या आप ही हैं।

 

मातः ! आज मुझपर प्रसन्न होइये। आप ही अग्निके भीतर व्याप्त उग्र दाहिका शक्ति हैं। आप ही सूर्य-किरणोंमें स्थित प्रकाशिका शक्ति हैं। चन्द्रमामें जो आह्लादिका शक्ति है, वह भी आप ही हैं। ऐसी आप चण्डी- देवीका मैं स्तवन और वन्दन करती हूँ। आप स्त्रियोंको बहुत प्रिय हैं। ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारियोंकी ध्येयभूता नित्या ब्रह्मशक्ति भी आप ही हैं।

 

सम्पूर्ण जगत्‌की वांछा तथा श्रीहरिकी माया भी आप ही हैं। जो देवी इच्छानुसार रूप धारण करके सृष्टि, पालन और संहारमयी हो उन कार्योंका सम्पादन करती हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं रुद्रके शरीरकी भी हेतुभूता हैं, वे आप ही हैं। देवि ! आज आप मुझपर प्रसन्न हों। आपको पुनः मेरा नमस्कार है।

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! मेनाके इस प्रकार स्तुति करनेपर दुर्गा कालिकाने पुनः उन मेनादेवीसे कहा- ‘तुम अपना मनोवांछित वर माँग लो। हिमाचलप्रिये ! तुम मुझे प्राणोंके समान प्यारी हो। तुम्हारी जो इच्छा हो, वह माँगो। उसे मैं निश्चय ही दे दूँगी। तुम्हारे लिये मुझे कुछ भी अदेय नहीं है।’

महेश्वरी उमाका यह अमृतके समान मधुर वचन सुनकर हिमगिरिकामिनी मेना बहुत संतुष्ट हुईं और इस प्रकार बोलीं- ‘शिवे! आपकी जय हो, जय हो। उत्कृष्ट ज्ञानवाली महेश्वरि ! जगदम्बिके ! यदि मैं वर पानेके योग्य हूँ तो फिर आपसे श्रेष्ठ वर माँगती हूँ। जगदम्बे ! पहले तो मुझे सौ पुत्र हों। उन सबकी बड़ी आयु हो। वे बल- पराक्रमसे युक्त तथा ऋद्धि-सिद्धिसे सम्पन्न हों।

 

उन पुत्रोंके पश्चात् मेरे एक पुत्री हो, जो स्वरूप और गुणोंसे सुशोभित होनेवाली हो; वह दोनों कुलोंको आनन्द देनेवाली तथा तीनों लोकोंमें पूजित हो। जगदम्बिके ! शिवे ! आप ही देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये मेरी पुत्री तथा रुद्रदेवकी पत्नी होइये और तदनुसार लीला कीजिये।’

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! मेनकाकी बात सुनकर प्रसन्नहृदया देवी उमाने उनके मनोरथको पूर्ण करनेके लिये मुसकराकर कहा।देवी बोलीं- पहले तुम्हें सौ बलवान् पुत्र प्राप्त होंगे। उनमें भी एक सबसे अधिक बलवान् और प्रधान होगा, जो सबसे पहले उत्पन्न होगा। तुम्हारी भक्तिसे संतुष्ट हो मैं स्वयं तुम्हारे यहाँ पुत्रीके रूपमें अवतीर्ण होऊँगी और समस्त देवताओंसे सेवित हो उनका कार्य सिद्ध करूँगी।

ऐसा कहकर जगद्धात्री परमेश्वरी कालिका शिवा मेनकाके देखते-देखते वहीं अदृश्य हो गयीं। तात ! महेश्वरीसे अभीष्ट वर पाकर मेनकाको भी अपार हर्ष हुआ। उनका तपस्याजनित सारा क्लेश नष्ट हो गया। मुने ! फिर कालक्रमसे मेनाके गर्भ रहा और वह प्रतिदिन बढ़ने लगा। समयानुसार उसने एक उत्तम पुत्रको उत्पन्न किया, जिसका नाम मैनाक था।

 

उसने समुद्रके साथ उत्तम मैत्री बाँधी। वह अद्भुत पर्वत नागवधुओंके उपभोगका स्थल बना हुआ है। उसके समस्त अंग श्रेष्ठ हैं। हिमालयके सौ पुत्रोंमें वह सबसे श्रेष्ठ और महान् बल-पराक्रमसे सम्पन्न है। अपनेसे या अपने बाद प्रकट हुए समस्त पर्वतोंमें एकमात्र मैनाक ही पर्वतराजके पदपर प्रतिष्ठित है।

(अध्याय ५)

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