Shiv puran rudra samhita Parwati khand chapter 46(शिव पुराण रुद्रसंहिता पार्वती खंड अध्याय 46 मेनाद्वारा द्वारपर भगवान् शिवका परिछन, उनके रूपको देखकर संतोषका अनुभव, अन्यान्य युवतियोंद्वारा वरकी प्रशंसा, पार्वतीका अम्बिका- पूजनके लिये बाहर निकलना तथा देवताओं और भगवान् शिवका उनके सुन्दर रूपको देखकर प्रसन्न होना)

(रुद्रसंहिता, तृतीय (पार्वती) खण्ड)

Shiv puran rudra samhita Parwati khand chapter 46(शिव पुराण रुद्रसंहिता पार्वती खंड अध्याय 46 मेनाद्वारा द्वारपर भगवान् शिवका परिछन, उनके रूपको देखकर संतोषका अनुभव, अन्यान्य युवतियोंद्वारा वरकी प्रशंसा, पार्वतीका अम्बिका- पूजनके लिये बाहर निकलना तथा देवताओं और भगवान् शिवका उनके सुन्दर रूपको देखकर प्रसन्न होना)

(अध्याय 46 )

:-ब्रह्माजी कहते हैं- नारद ! तदनन्तर भगवान् शिव प्रसन्नचित्त हो अपने गणों, समस्त देवताओं तथा अन्य लोगोंके साथ कौतूहलपूर्वक गिरिराज हिमवान्‌के धाममें गये। हिमाचलकी श्रेष्ठ पत्नी मेना भी उन स्त्रियोंके साथ घरके भीतर गयीं और शम्भुकी आरती उतारनेके लिये हाथमें दीपकोंसे सजी हुई थाली लेकर सभी ऋषिपत्नियों तथा अन्य स्त्रियोंके साथ आदरपूर्वक द्वारपर आयीं।

 

वहाँ आकर मेनाने सम्पूर्ण देवताओंसे सेवित गिरिजापति महेश्वर शंकरको, जो द्वारपर उपस्थित थे, बड़े प्यारसे देखा। उनकी अंगकान्ति मनोहर चम्पाके समान थी। उनके एक मुख और तीन नेत्र थे। प्रसन्न मुखारविन्दपर मन्द मुसकानकी छटा छा रही थी। वे रत्न और सुवर्ण आदिसे विभूषित थे। गलेमें मालतीकी माला पहने हुए थे।

 

सुन्दर रत्नमय मुकुट धारण करनेसे उनका मुखमण्डल उज्ज्वल प्रभासे उद्भासित हो रहा था। कण्ठमें हार आदि सुन्दर आभरण शोभा दे रहे थे। सुन्दर कड़े और बाजूबंद उनकी भुजाओंको विभूषित कर रहे थे। अग्निके समान निर्मल एवं अनुपम अत्यन्त सूक्ष्म, मनोहर, विचित्र एवं बहुमूल्य युगल वस्त्रसे उनकी बड़ी शोभा हो रही थी।

 

चन्दन, अगर, कस्तूरी तथा मनोहर कुंकुमके अंगरागसे उनके अंग विभूषित थे। उन्होंने हाथमें रत्नमय दर्पण ले रखा था और उनके दोनों नेत्र कज्ञ्जलसे सुशोभित थे। उन्होंने अपनी प्रभासे सबको आच्छादित कर लिया था तथा वे अत्यन्त मनोहर जान पड़ते थे। अत्यन्त तरुण, परम सुन्दर और आभरण-भूषित अंगोंसे सुशोभित थे।

 

कामिनियोंको अत्यन्त कमनीय प्रतीत होते थे। उनमें व्यग्रताका अभाव था। उनका मुखारविन्द कोटि चन्द्रमाओंसे भी अधिक आह्लाददायक था। उनके श्रीअंगोंकी छवि कोटि कामदेवोंसे भी अधिक मनोहारिणी थी। वे अपने सभी अंगोंसे परम सुन्दर थे। ऐसे सुन्दर रूपवाले उत्कृष्टदेवता भगवान् शिवको जामाताके रूपमें अपने सामने खड़ा देख मेनाकी सारी शोक-चिन्ता दूर हो गयी।

 

वे परमानन्दसिन्धुमें निमग्न हो गयीं और अपने भाग्यकी, गिरिजाकी, गिरिराज हिमवान्‌की और उनके समस्त कुलकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगीं। उन्होंने अपने-आपको कृतार्थ माना और वे बारंबार हर्षका अनुभव करने लगीं। सती मेनाका मुख प्रसन्नतासे खिल उठा था। वे अपने दामादकी शोभाका सानन्द अवलोकन करती हुई उनकी आरती उतारने लगीं।

 

गिरिजाकी कही हुई बातको बारंबार याद करके मेनाको बड़ा विस्मय हो रहा था। वे हर्षोत्फुल्ल मुखारविन्दसे युक्त हो मन-ही-मन यों कहने लगीं- ‘पार्वतीने मुझसे पहले जैसा बताया था, उससे भी अधिक सौन्दर्य मैं इन परमेश्वर शिवके अंगोंमें देख रही हूँ। महेश्वरका मनोहर लावण्य इस समय अवर्णनीय है।’ ऐसा सोचकर आश्चर्यचकित हुई मेना अपने घरके भीतर आयीं।

वहाँ आयी हुई युवतियोंने भी वरके मनोहर रूपकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। वे बोलीं- ‘गिरिराजनन्दिनी शिवा धन्य हैं, धन्य हैं।’ कुछ कन्याएँ कहने लगीं- ‘दुर्गा तो साक्षात् भगवती हैं।’ कुछ दूसरी कन्याएँ महारानी मेनासे बोलीं- ‘हमने तो कभी ऐसा वर नहीं देखा है और न कभी ध्यानमें ही ऐसे वरका अवलोकन किया है।

इन्हें पाकर गिरिजा धन्य हो गयी।’ भगवान् शंकरका वह रूप देखकर समस्त देवता हर्षसे खिल उठे। श्रेष्ठ गन्धर्व उनका यश गाने लगे और अप्सराएँ नृत्य करने लगीं। बाजा बजानेवाले लोग मधुर ध्वनिमें अनेक प्रकारकी कला दिखाते हुए आदरपूर्वक भाँति-भाँतिके बाजे बजा रहे थे। हिमाचलने भी आनन्दित होकर द्वारोचित मंगलाचार किया।

 

समस्त नारियोंके साथ मेनाने भी महान् उत्सव मनाते हुए वरका परिछन किया। फिर वे प्रसन्नतापूर्वक घरमें चली गयीं। इसके बाद भगवान् शिव अपने गणों और देवताओंके साथ अपनेको दिये गये स्थान (जनवासे) में चले गये। इसी बीचमें गिरिराजके अन्तःपुरकी स्त्रियाँ दुर्गाको साथ ले कुलदेवीकी पूजाके लिये बाहर निकलीं।

 

वहाँ देवताओंने, जिनकी पलकें कभी नहीं गिरती थीं, प्रसन्नतापूर्वक पार्वतीको देखा। उनकी अंगकान्ति नील अंजनके समान थी। वे अपने मनोहर अंगोंसे ही विभूषित थीं। उनका कटाक्ष केवल भगवान् त्रिलोचनपर ही आदरपूर्वक पड़ता था। दूसरे किसी पुरुषकी ओर उनके नेत्र नहीं जाते थे। उनका प्रसन्नमुख मन्द मुसकानसे सुशोभित था। वे कटाक्षपूर्ण दृष्टिसे देखती थीं और बड़ी मनोहारिणी जान पड़ती थीं।

 

उनके केशोंकी चोटी बड़ी ही सुन्दर थी। कपोलोंपर बनी हुई मनोहर पत्रभंगी उनकी शोभा बढ़ाती थी। ललाटमें कस्तूरीकी बेंदीके साथ ही सिन्दूरकी बिंदी शोभा दे रही थी। वक्षःस्थलपर श्रेष्ठ रत्नोंके सारभूत हारसे दिव्य दीप्ति छिटक रही थी। रत्नोंके बने हुए केयूर, वलय और कंकणसे उनकी भुजाएँ अलंकृत थीं। उत्तम रत्नमय कुण्डलोंसे उनके मनोहर कपोल जगमगा रहे थे।

 

उनकी दन्तपंक्ति मणियों तथा रत्नोंकी प्रभाको छीने लेती थी और मुखकी शोभा बढ़ाती थी। मधुसे पूरित अधर और ओष्ठ बिम्बफलके समान लाल थे। दोनों पैरोंमें रत्नोंकी आभासे युक्त महावर शोभा देता था। उन्होंने अपने एक हाथमें रत्नजटित दर्पण ले रखा था और उनका दूसरा हाथ क्रीडाकमलसे सुशोभित था। उनके अंगोंमें चन्दन, अगर, कस्तूरी और कुंकुमका अंगराग लगा हुआ था।

 

पैरोंमें पायजेब बज रहे थे और वे अपने लाल-लाल तलुओंके कारण बड़ी शोभा पा रही थीं। समस्त देवता आदिने जगत्‌की आदिकारणभूता जगज्जननी पार्वतीदेवीको देखकर भक्तिभावसे मस्तक झुका मेनासहित उन्हें प्रणाम किया। त्रिलोचन शिवने भी बड़ी प्रसन्नताके साथ कनखियोंसे उन्हें देखा और उनमें सतीकी आकृति देखकर अपनी विरह-वेदनाको त्याग दिया।

 

शिवापर आँखें गड़ाकर भगवान् शिव उस समय सब कुछ भूल गये। उनके सारे अंगोंमें रोमांच हो आया। वे हर्षका अनुभव करते हुए गौरीकी ओर देखने लगे। गौरी उनकी आँखोंमें समा गयी थीं।

इधर काली पुरीसे बाहर जाकर अम्बिकादेवीकी पूजा करनेके पश्चात् ब्राह्मणपत्नियोंके साथ पुनः अपने पिताके रमणीय भवनमें लौट आयीं। भगवान् शंकर भी मुझ ब्रह्मा, विष्णु तथा देवताओंके साथ हिमाचलके बताये हुए अपने नियत स्थानपर प्रसन्नतापूर्वक गये। वहाँ गिरिराजके द्वारा नाना प्रकारकी सुन्दर समृद्धिसे सम्मानित हुए वे सब लोग सुखपूर्वक ठहर गये और भगवान् शिवकी सेवा करने लगे।

(अध्याय ४६)

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