Shiv puran rudra samhita Parwati khand chapter 44(शिव पुराण रुद्रसंहिता पार्वती खंड अध्याय 44 मेनाका विलाप, शिवके साथ कन्याका विवाह न करनेका हठ, देवताओं तथा श्रीविष्णुका उन्हें समझाना तथा उनका सुन्दर रूप धारण करनेपर ही शिवको कन्या देनेका विचार प्रकट करना)

(रुद्रसंहिता, तृतीय (पार्वती) खण्ड)

Shiv puran rudra samhita Parwati khand chapter 44(शिव पुराण रुद्रसंहिता पार्वती खंड अध्याय 44 मेनाका विलाप, शिवके साथ कन्याका विवाह न करनेका हठ, देवताओं तथा श्रीविष्णुका उन्हें समझाना तथा उनका सुन्दर रूप धारण करनेपर ही शिवको कन्या देनेका विचार प्रकट करना)

(अध्याय 44 )

:-ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! जब हिमाचलप्रिया सती मेनाको चेत हुआ, तब वे अत्यन्त क्षुब्ध होकर विलाप एवं तिरस्कार करने लगीं। पहले तो उन्होंने अपने पुत्रोंकी निन्दा की, इसके बाद वे तुम्हें और अपनी पुत्रीको दुर्वचन सुनाने लगीं।

मेना बोलीं-मुने ! पहले तो तुमने यह कहा कि ‘शिवा शिवका वरण करेगी’, पीछे मेरे पति हिमवान्‌का कर्तव्य बताकर उन्हें आराधना-पूजामें लगाया। परंतु इसका यथार्थ फल क्या देखा गया? विपरीत एवं अनर्थकारी ! दुर्बुद्धि देवर्षे ! तुमने मुझ अधम नारीको सब तरहसे ठग लिया। फिर मेरी बेटीने ऐसा तप किया, जो मुनियोंके लिये भी दुष्कर है; उसकी उस तपस्याका यह फल मिला, जो देखनेवालोंको भी दुःखमें डालता है।

 

हाय ! मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, कौन मेरे दुःखको दूर करेगा ? मेरा कुल आदि नष्ट हो गया, मेरे जीवनका भी नाश हो गया। कहाँ गये वे दिव्य ऋषि ? पाऊँ तो मैं उनकी दाढ़ी-मूँछ नोच लूँ। वसिष्ठकी वह तपस्विनी पत्नी भी बड़ी धूर्ता है, वह स्वयं इस विवाहके लिये अगुआ बनकर आयी थी। न जाने किन-किनके अपराधसे इस समय मेरा सब कुछ लुट गया।

 

ऐसा कहकर मेना अपनी पुत्री शिवाकी ओर देखकर उन्हें कटुवचन सुनाने लगीं – ‘अरी दुष्ट लड़की ! तूने यह कौन-सा कर्म किया, जो मेरे लिये दुःखदायक सिद्ध हुआ? तुझ दुष्टाने स्वयं ही सोना देकर काँच खरीदा है, चन्दन छोड़कर अपने अंगोंमें कीचड़का ढेर पोत लिया ! हाय ! हाय ! हंसको उड़ाकर तूने पिंजड़ेमें कौआ पाल लिया।

 

गंगाजलको दूर फेंककर कुएँका जल पीया। प्रकाश पानेकी इच्छासे सूर्यको छोड़कर यत्नपूर्वक जुगनूको पकड़ा। चावल छोड़कर भूसी खा ली। घी फेंककर मोमके तेलका आदरपूर्वक भोग लगाया। सिंहका आश्रय छोड़कर सियारका सेवन किया। ब्रह्मविद्या छोड़कर कुत्सित गाथाका श्रवण किया। बेटी! तूने घरमें रखी हुई यशकी मंगलमयी विभूतिको दूर हटाकर चिताकी अमंगलमयी राख अपने पल्ले बाँध ली; क्योंकि समस्त श्रेष्ठ देवताओं और विष्णु आदि परमेश्वरोंको छोड़कर अपनी कुबुद्धिके कारण शिवको पानेके लिये ऐसा तप किया ?

 

तुझको, तेरी बुद्धिको, तेरे रूपको और तेरे चरित्रको भी बारंबार धिक्कार है। तुझे तपस्याका उपदेश देनेवाले नारदको तथा तेरी सहायता करनेवाली दोनों सखियोंको भी धिक्कार है। बेटी ! हम दोनों माता- पिताको भी धिक्कार है, जिन्होंने तुझे जन्म दिया। नारद ! तुम्हारी बुद्धिको भी धिक्कार है। सुबुद्धि देनेवाले उन सप्तर्षियोंको भी धिक्कार है। तुम्हारे कुलको धिक्कार है।

 

तुम्हारी क्रिया-दक्षताको भी धिक्कार है तथा तुमने जो कुछ किया, उस सबको धिक्कार है। तुमने तो मेरा घर ही जला दिया। यह तो मेरा मरण ही है। ये पर्वतोंके राजा आज मेरे निकट न आयें। सप्तर्षि लोग स्वयं मुझे अपना मुँह न दिखायें। इन सबने मिलकर क्या साधा ? मेरे कुलका नाश करा दिया। हाय! मैं बाँझ क्यों नहीं हो गयी? मेरा गर्भ क्यों नहीं गल गया ?

मैं अथवा मेरी पुत्री ही क्यों नहीं मर गयी ? अथवा राक्षस आदिने भी आकाशमें ले जाकर इसे क्यों नहीं खा डाला ? पार्वती ! आज मैं तेरा सिर काट डालूँगी, परंतु ये शरीरके टुकड़े लेकर क्या करूँगी ? हाय ! हाय ! तुझे छोड़कर कहाँ चली जाऊँ ? मेरा तो जीवन ही नष्ट हो गया !’

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! यह कहकर मेना मूच्छित हो पृथ्वीपर गिर पड़ीं। शोक- रोष आदिसे व्याकुल होनेके कारण वे पतिके समीप नहीं गयीं। देवर्षे ! उस समय सब देवता क्रमशः उनके निकट गये। सबसे पहले मैं पहुँचा। मुनिश्रेष्ठ ! मुझे देखकर तुम स्वयं मेनासे बोले।

नारदने कहा-पतिव्रते ! तुम्हें पता नहीं है, वास्तवमें भगवान् शिवका रूप बड़ा सुन्दर है। उन्होंने लीलासे ऐसा रूप धारण कर लिया है, यह उनका यथार्थ रूप नहीं है। इसलिये तुम क्रोध छोड़कर स्वस्थ हो जाओ। हठ छोड़कर विवाहका कार्य करो और अपनी शिवाका हाथ शिवके हाथों में दे दो। तुम्हारी यह बात सुनकर मेना तुमसे बोलीं- ‘उठो, यहाँसे दूर चले जाओ। तुम दुष्टों और अधमोंके शिरोमणि हो।’

 

मेनाके ऐसा कहनेपर मेरे साथ इन्द्र आदि सब देवता एवं दिक्पाल क्रमशः आकर यों बोले- ‘पितरोंकी कन्या मेने ! तुम हमारे वचनोंको प्रसन्नतापूर्वक सुनो। ये शिव निश्चय ही सबसे उत्कृष्ट देवता हैं और सबको उत्तम सुख देनेवाले हैं। आपकी पुत्रीके अत्यन्त दुस्सह तपको देखकर इन भक्तवत्सल प्रभुने कृपापूर्वक उन्हें दर्शन और श्रेष्ठ वर दिया था।’

यह सुनकर मेनाने देवताओंसे बारंबार अत्यन्त विलाप करके कहा- ‘शिवका रूप बड़ा भयंकर है, मैं उन्हें अपनी पुत्री नहीं दूँगी। आप सब देवता प्रपंच करके क्यों मेरी इस कन्याके उत्कृष्ट रूपको व्यर्थ करनेके लिये उद्यत हैं?’

मुनीश्वर ! उनके ऐसा कहनेपर वसिष्ठ आदि सप्तर्षियोंने वहाँ आकर यह बात कही – ‘पितरोंकी कन्या तथा गिरिराजकी रानी मेने ! हमलोग तुम्हारा कार्य सिद्ध करनेके लिये आये हैं। जो कार्य सर्वथा उचित और उपयोगी है, उसे तुम्हारे हठके कारण हम विपरीत कैसे मान लें ? भगवान् शंकरका दर्शन सबसे बड़ा लाभ है।

 

वे दानपात्र होकर स्वयं तुम्हारे घर पधारे हैं।’उनके ऐसा कहनेपर भी ज्ञानदुर्बला मेनाने उनकी बात मिथ्या कर दी और रुष्ट होकर उनसे कहा- ‘मैं शस्त्र आदिसे अपनी बेटीके टुकड़े-टुकड़े कर डालूँगी, परंतु उसे शंकरके हाथमें नहीं दूँगी, तुम सब लोग दूर हट जाओ, किसीको मेरे पास नहीं आना चाहिये।’

ऐसा कह अत्यन्त विह्वल हो विलाप करके मेना चुप हो गयीं। मुने ! वहाँ उनके इस बर्तावसे हाहाकार मच गया। तब हिमालय अत्यन्त व्याकुल हो वहाँ आये और मेनाको समझानेके लिये प्रेमपूर्वक तत्त्व दर्शाते हुए बोले।

हिमालयने कहा-प्रिये मेने ! मेरी बात सुनो, तुम इतनी व्याकुल क्यों हो गयी ? देखो तो, कौन-कौन-से महात्मा तुम्हारे घर पधारे हैं। तुम इनकी निन्दा क्यों करती हो ? भगवान् शंकरको तुम भी जानती हो, किंतु नाना नामरूपवाले शम्भुके विकट रूपको देखकर घबरा गयी हो। मैं शंकरजीको भलीभाँति जानता हूँ।

 

वे ही सबके प्रतिपालक हैं, पूजनीयोंके भी पूजनीय हैं तथा अनुग्रह एवं निग्रह करनेवाले हैं। निष्पाप प्राणप्रिये ! हठ न करो, मानसिक दुःख छोड़ो। सुव्रते ! शीघ्र उठो और सब कार्य करो। पहली बार विकटरूपधारी शम्भुने मेरे द्वारपर आकर जो नाना प्रकारकी लीलाएँ की थीं, मैं उनका आज तुम्हें स्मरण दिला रहा हूँ। उनके उस परम माहात्म्यको देख और समझकर उस समय मैंने और तुमने उन्हें कन्या देना स्वीकार किया था। प्रिये! अपनी उस बातको प्रमाण मानकर सार्थक करो।

इस बातको सुनकर शिवाकी माता मेना हिमालयसे बोलीं- नाथ! मेरी बात सुनिये और सुनकर आपको वैसा ही करना चाहिये। आप अपनी पुत्री पार्वतीके गलेमें रस्सी बाँधकर इसे बेखटके पर्वतसे नीचे गिरा दीजिये, परंतु मैं इसे हरके हाथमें नहीं दूँगी। अथवा नाथ! अपनी इस बेटीको ले जाकर निर्दयतापूर्वक समुद्रमें डुबा दीजिये। गिरिराज ! ऐसा करके आप पूर्ण सुखी हो जाइये।

 

स्वामिन् ! यदि विकटरूपधारी रुद्रको आप पुत्री दे देंगे तो मैं निश्चय ही अपना शरीर त्याग दूँगी।मेनाने जब हठपूर्वक ऐसी बात कही, तब पार्वती स्वयं आकर यह रमणीय वचन बोलीं- ‘माँ ! तुम्हारी बुद्धि तो बड़ी शुभकारक है। इस समय विपरीत कैसे हो गयी ? धर्मका अवलम्बन करनेवाली होकर भी तुम धर्मको कैसे छोड़ रही हो?

 

ये रुद्रदेव सबकी उत्पत्तिके कारणभूत साक्षात् ईश्वर हैं, इनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। समस्त श्रुतियोंमें यह वर्णन है कि भगवान् शम्भु सुन्दर रूपवाले तथा सुखद हैं। कल्याणकारी महेश्वर समस्त देवताओंके स्वामी तथा स्वयंप्रकाश हैं। इनके नाम और रूप अनेक हैं। माताजी ! श्रीविष्णु और ब्रह्मा आदि भी इनकी सेवा करते हैं। ये सबके अधिष्ठान हैं, कर्ता, हर्ता और स्वामी हैं।

 

विकारोंकी इनतक पहुँच नहीं है। ये तीनों देवताओंके स्वामी, अविनाशी एवं सनातन हैं। इनके लिये ही सब देवता किंकर होकर तुम्हारे द्वारपर पधारे हैं और उत्सव मना रहे हैं। इससे बढ़कर सुखकी बात और क्या हो सकती है। अतः यत्नपूर्वक उठो और जीवन सफल करो। मुझे शिवके हाथमें सौंप दो और अपने गृहस्थाश्रमको सार्थक करो। माँ! मुझे परमेश्वर शंकरकी सेवामें दे दो।

 

मैं स्वयं तुमसे यह बात कहती हूँ। तुम मेरी इतनी-सी ही विनती मान लो। यदि तुम इनके हाथमें मुझे नहीं दोगी तो मैं दूसरे किसी वरका वरण नहीं करूँगी; क्योंकि जो सिंहका भाग है, उसे दूसरोंको ठगनेवाला सियार कैसे पा सकता है? माँ! मैंने मन, वाणी और क्रियाद्वारा स्वयं हरका वरण किया है, हरका ही वरण किया है।

 

अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वह करो।’ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! पार्वतीकी यह बात सुनकर शैलेश्वरप्रिया मेना बहुत ही उत्तेजित हो गयीं और पार्वतीको डाँटती हुई दुर्वचन कहकर रोने तथा विलाप करने लगीं। तदनन्तर स्वयं मैंने तथा सनकादि सिद्धोंने भी मेनाको बहुत समझाया। परंतु वे किसीकी बात न मानकर सबको डाँटती रहीं। इसी बीचमें उनके सुदृढ़ एवं महान् हठकी बात सुनकर शिवप्रिय भगवान् विष्णु भी तुरंत वहाँ आ पहुँचे और इस प्रकार बोले।

श्रीविष्णुने कहा- देवि ! तुम पितरोंकी मानसी पुत्री एवं उन्हें बहुत ही प्यारी हो; साथ ही गिरिराज हिमालयकी गुणवती पत्नी हो। इस प्रकार तुम्हारा सम्बन्ध साक्षात् ब्रह्माजीके उत्तम कुलसे है। संसारमें तुम्हारे सहायक भी ऐसे ही हैं। तुम धन्य हो। मैं तुमसे क्या कहूँ ? तुम तो धर्मकी आधारभूता हो, फिर धर्मका त्याग कैसे करती हो ? तुम्हीं अच्छी तरह सोचो तो सही। सम्पूर्ण देवता, ऋषि, ब्रह्माजी और मैं – सभी लोग विपरीत बात ही क्यों कहेंगे ?

 

तुम शिवको नहीं जानती। वे निर्गुण भी हैं और सगुण भी हैं। कुरूप भी हैं और सुरूप भी। सबके सेव्य तथा सत्पुरुषोंके आश्रय हैं। उन्होंने मूलप्रकृतिरूपा देवी ईश्वरीका निर्माण किया और उसके बगलमें पुरुषोत्तमका निर्माण करके बिठाया। उन्हीं दोनोंसे सगुण-रूपमें मेरी तथा ब्रह्माकी उत्पत्ति हुई। फिर लोकोंका हित करनेके लिये वे स्वयं भी रुद्र-रूपसे प्रकट हुए।

 

तदनन्तर वेद, देवता तथा स्थावर- जंगमरूपसे जो कुछ दिखायी देता है, वह सारा जगत् भी भगवान् शंकरसे ही उत्पन्न हुआ। उनके रूपका ठीक-ठीक वर्णन अबतक कौन कर सका है? अथवा कौन उनके रूपको जानता है? मैंने और ब्रह्माजीने भी जिनका अन्त नहीं पाया, उनका पार दूसरा कौन पा सकता है? ब्रह्मासे लेकर कीटपर्यन्त जो कुछ जगत् दिखायी देता है, वह सब शिवका ही रूप है-ऐसा जानो। इस विषयमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये।

 

वे ही अपनी लीलासे ऐसे रूपमें अवतीर्ण हुए हैं और शिवाके तपके प्रभावसे तुम्हारे द्वारपर आये हैं। अतः हिमाचलकी पत्नी ! तुम दुःख छोड़ो और शिवका भजन करो। इससे तुम्हें महान् आनन्द प्राप्त होगा और तुम्हारा सारा क्लेश मिट जायगा।

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! श्रीविष्णुके द्वारा इस प्रकार समझायी जानेपर मेनाका मन कुछ कोमल हुआ। परंतु शिवको कन्या न देनेका हठ उन्होंने तब भी नहीं छोड़ा। शिवकी मायासे मोहित होनेके कारण ही उन्होंने ऐसा दुराग्रह किया था। उस समय मेनाने शिवके महत्त्वको स्वीकार कर लिया।

 

कुछ ज्ञान हो जानेपर उन्होंने श्रीहरिसे कहा- ‘यदि भगवान् शिव सुन्दर शरीर धारण कर लें, तब मैं उन्हें अपनी पुत्री दे सकती हूँ; अन्यथा कोटि उपाय करनेपर भी नहीं दूँगी। यह बात मैं सचाई और दृढ़ताके साथ कह रही हूँ।’

ऐसा कहकर दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाली मेना शिवकी इच्छासे प्रेरित हो चुप हो गयीं। धन्य है शिवकी माया, जो सबको मोहमें डाल देती है!

(अध्याय ४४)

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