(रुद्रसंहिता, तृतीय (पार्वती) खण्ड)
Shiv puran rudra samhita Parwati khand chapter 41 to 43(शिव पुराण रुद्रसंहिता पार्वती खंड अध्याय 41 से 43 हिमवान्द्वारा शिवकी बारातकी अगवानी तथा सबका अभिनन्दन एवं वन्दन, मेनाका नारदजीको बुलाकर उनसे बारातियोंका परिचय पाना तथा शिव और उनके गणोंको देखकर भयसे मूच्छित होना)
(अध्याय 41 से 43)
:-ब्रह्माजी कहते हैं-तदनन्तर भगवान् शिव ने नारदजीको हिमाचलके घर भेजा। वे वहाँकी विलक्षण सजावट देखकर दंग रह गये। विश्वकर्माने जो विष्णु, ब्रह्मा आदि समस्त देवताओं तथा नारद आदि ऋषियोंकी चेतन-सी प्रतीत होनेवाली मूर्तियाँ बनायी थीं, उन्हें देखकर देवर्षि नारद चकित हो उठे। तत्पश्चात् हिमाचलने देवर्षिको बारात बुला लानेके लिये भेजा। साथ ही उस बारातकी अगवानीके लिये मैनाक आदि पर्वत भी गये।
तदनन्तर विष्णु आदि देवताओं तथा आनन्दित हुए अपने गणोंके साथ भगवान् शिव हिमालयनगरके समीप सानन्द आ पहुँचे।गिरिराज हिमवान्ने जब यह सुना कि सर्वव्यापी शंकर मेरे नगरके निकट आ पहुँचे हैं, तब उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई।
तदनन्तर उन्होंने बहुत-सा सामान एकत्र करके पर्वतों और ब्राह्मणोंको महादेवजीके साथ वार्तालाप करनेके लिये भेजा। स्वयं भी बड़ी भक्तिके साथ वे प्राणप्यारे महेश्वरका दर्शन करनेके लिये गये। उस समय उनका हृदय अधिक प्रेमके कारण द्रवित हो रहा था और वे प्रसन्नतापूर्वक अपने सौभाग्यकी सराहना करते थे।
उस समय समस्त देवताओंकी सेनाको उपस्थित देख हिमवान्को बड़ा विस्मय हुआ और वे अपनेको धन्य मानते हुए उनके सामने गये। देवता और पर्वत एक-दूसरेसे मिलकर बहुत प्रसन्न हुए और अपने- आपको कृतकृत्य मानने लगे। महादेवजीको सामने देखकर हिमालयने उन्हें प्रणाम किया। साथ ही समस्त पर्वतों और ब्राह्मणोंने भी सदाशिवकी वन्दना की।
वे वृषभपर आरूढ़ थे। उनके मुखपर प्रसन्नता छा रही थी। वे नाना प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित थे और अपने दिव्य अंगोंके लावण्यसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित कर रहे थे। उनका श्रीअंग अत्यन्त महीन, नूतन और सुन्दर रेशमी वस्त्रसे सुशोभित था। उनके मस्तकका मुकुट उत्तम रत्नोंसे जटित होनेके कारण बड़ी शोभा पा रहा था। वे अपनी पावन प्रभाका प्रसार करते हुए हँस रहे थे।
उनका प्रत्येक अंग भूषण बने हुए सर्पोंसे युक्त था तथा उनकी अंगकान्ति बड़ी अद्भुत दिखायी देती थी। दिव्य कान्तिसे सम्पन्न उन महेश्वरकी सुरेश्वरगण हाथमें चंवर लिये सेवा कर रहे थे। उनके बायें भागमें भगवान् विष्णु थे और दाहिने भागमें मैं था। पीछे देवराज इन्द्र थे और अन्य देवता आदि भी पीछे तथा अगल-बगलमें विद्यमान थे। नाना प्रकारके देवता आदि उन लोककल्याणकारी भगवान् शंकरकी स्तुति करते जाते थे।
उन्होंने स्वेच्छासे ही दिव्य शरीर धारण कर रखा था। वास्तवमें वे साक्षात् परब्रह्म परमात्मा, सबके ईश्वर, उपासकोंको मनोवांछित वर देनेवाले, कल्याणमय गुणोंसे युक्त, प्राकृत गुणोंसे रहित, भक्तोंके अधीन रहनेवाले, सबपर कृपा करनेवाले, प्रकृति और पुरुषसे भी विलक्षण तथा सच्चिदानन्द- स्वरूप हैं।
उनके दर्शनके पश्चात् हिमवान्ने भगवान् शिवके वामभागमें अच्युत श्रीहरिका दर्शन किया, जो नाना प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित हो विनतानन्दन गरुड़की पीठपर विराजमान थे। मुने ! भगवान्के दाहिने भागमें उन्होंने चार मुखोंसे युक्त, महाशोभाशाली तथा अपने परिवारसे संयुक्त मुझ ब्रह्माको देखा।
भगवान् शिवके सदा ही अत्यन्त प्रिय इन दोनों देवेश्वरोंका दर्शन करके परिवारसहित गिरिराजने आदरपूर्वक प्रणाम किया।इसी प्रकार भगवान् शिवके पीछे तथा अगल-बगलमें खड़े हुए दीप्तिमान् देवता आदिको भी देखकर गिरिराजने उन सबके सामने मस्तक झुकाया। तत्पश्चात् शिवकी आज्ञासे आगे होकर हिमवान् अपने नगरको गये।
उनके साथ महादेवजी, भगवान् विष्णु तथा स्वयम्भू ब्रह्मा भी मुनियों और देवताओंसहित शीघ्रतापूर्वक चलने लगे। मुने ! उस अवसरपर मेनाके मनमें भगवान् शिवके दर्शनकी इच्छा हुई। इसलिये उन्होंने तुमको बुलवाया। उस समय भगवान् शिवसे प्रेरित होकर उनका हार्दिक अभिप्राय पूर्ण करनेकी इच्छासे तुम वहाँ गये।
मेना तुम्हें प्रणाम करके बोलीं- मुने ! गिरिजाके होनेवाले पतिको पहले मैं देखूँगी। शिवका कैसा रूप है, जिनके लिये मेरी बेटीने ऐसी उत्कृष्ट तपस्या की है।
तात ! उस समय भगवान् शिव भी मेनाके भीतरके अहंकारको जानकर श्रीविष्णु और मुझसे अद्भुत लीला करते हुए बोले। शिवने कहा-तात ! आप दोनों मेरी
आज्ञासे देवताओंसहित अलग-अलग होकर गिरिराजके द्वारपर चलिये। हम पीछेसे आयेंगे। यह सुनकर भगवान् श्रीहरिने सब देवताओंको बुलाकर वैसा करनेके लिये कहा। शिवके चिन्तनमें तत्पर रहनेवाले समस्त देवताओंने शीघ्र वैसी ही व्यवस्था करके उत्सुकतापूर्वक वहाँसे पृथक्- पृथक् यात्रा की। मुने ! मेना अपने मकानके सबसे ऊपरी भवनमें तुम्हारे साथ खड़ी थीं।
उस समय भगवान् विश्वेश्वरने अपनेको ऐसी वेष-भूषामें दिखाया, जिससे मेनाके हृदयको ठेस पहुँचे। सबसे पहले बारातके जुलूसमें विविध वाहनोंपर विराजित खूब सजे-धजे बाजे-गाजेके साथ पताकाएँ फहराते हुए वसु आदि गन्धर्व आये; फिर मणिग्रीवादि यक्ष, तदनन्तर क्रमसे यमराज, निर्ऋति, वरुण, वायु, कुबेर, ईशान, देवराज इन्द्र, चन्द्रमा, सूर्य, भृगु आदि मुनीश्वर तथा ब्रह्मा आये।
ये सब उत्तरोत्तर एक- से-एक विशेष सुन्दर शोभामय रूप-गुणसे सम्पन्न थे। इनमेंसे प्रत्येक दलके स्वामीको देखकर मेना पूछती थी कि ‘क्या ये ही शिव हैं?’ नारदजी कहते- ‘यह तो शिवके सेवक हैं।’ मेना यह सुनकर बड़ी प्रसन्न होतीं और हर्षमें भरकर मन-ही-मन कहतीं- ये उनके सेवक ही जब इतने सुन्दर हैं, तब वे सबके स्वामी शिव तो पता नहीं कितने सुन्दर होंगे।
इसी बीचमें वहाँ भगवान् विष्णु पधारे। वे सम्पूर्ण शोभासे सम्पन्न श्रीमान्, नूतन जलधरके समान श्याम तथा चार भुजाओंसे संयुक्त थे। उनका लावण्य करोड़ों कंदर्पोको लज्जित कर रहा था। वे पीताम्बर धारण करके अपनी सहज प्रभासे प्रकाशित हो रहे थे। उनके सुन्दर नेत्र प्रफुल्ल कमलकी शोभाको छीने लेते थे। उनकी आकृतिसे शान्ति बरस रही थी।
पक्षिराज गरुड़ उनके वाहन थे। शंख, चक्र आदि लक्षणोंसे युक्त मुकुट आदिसे विभूषित, वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न धारण किये वे लक्ष्मीपति विष्णु अपने अप्रमेय प्रभापुंजसे प्रकाशमान थे। उन्हें देखते ही मेनाके नेत्र चकित हो गये। वे बड़े हर्षसे बोलीं- ‘ अवश्य ये ही मेरी शिवाके पति साक्षात् भगवान् शिव हैं इसमें संशय नहीं है।’
मुने ! तुम भी लीला करनेवाले ही ठहरे। अतः मेनाकी यह बात सुनकर उनसे बोले- ‘देवि ! ये शिवाके पति नहीं हैं, अपितु भगवान् केशव हरि हैं। भगवान् शंकरके सम्पूर्ण कार्योंके अधिकारी तथा उनके प्रिय हैं। पार्वतीके पति जो दूलह शिव हैं, उन्हें इनसे भी बढ़कर समझना चाहिये। उनकी शोभाका वर्णन मुझसे नहीं हो सकता। वे ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके अधिपति, सर्वेश्वर तथा स्वयम्प्रकाश परमात्मा हैं।’
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! तुम्हारी इस बातको सुनकर मेनाने उन शुभलक्षणा उमाको महान् धन-वैभवसे सम्पन्न, सौभाग्यवती तथा तीनों कुलोंके लिये सुखदायिनी माना। वे मुखपर प्रसन्नता लाकर प्रीतियुक्त हृदयसे अपने सर्वाधिक सौभाग्यका बारंबार वर्णन करती हुई बोलीं।
मेनाने कहा-इस समय मैं पार्वतीको जन्म देनेके कारण सर्वथा धन्य हो गयी। ये गिरीश्वर भी धन्य हैं तथा मेरा सब कुछ परम धन्य हो गया। जिन-जिन अत्यन्त तेजस्वी देवताओं और देवेश्वरोंका मैंने दर्शन किया है, इन सबके जो पति हैं, वे मेरी पुत्रीके पति होंगे। उसके सौभाग्यका क्या वर्णन किया जाय ? भगवान् शिवको पतिरूपमें पानेके कारण पार्वतीके सौभाग्यका सौ वर्षोंमें भी वर्णन नहीं किया जा सकता।
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! मेनाने प्रेमपूर्ण हृदयसे ज्यों ही उपर्युक्त बात कही,त्यों ही अद्भुत लीला करनेवाले भगवान् रुद्र सामने आ गये। तात ! उनके सभी गण अद्भुत तथा मेनाके अहंकारको चूर्ण करनेवाले थे। भगवान् शिव अपने- आपको मायासे निर्लिप्त एवं निर्विकार दिखाते हुए वहाँ आये।
मुने ! उन्हें आया जान तुमने मेनाको शिवाके पतिका दर्शन कराते हुए उनसे इस प्रकार कहा- ‘सुन्दरि ! देखो, ये साक्षात् भगवान् शंकर हैं, जिनकी प्राप्तिके लिये शिवाने वनमें बड़ी भारी तपस्या की थी।’
तुम्हारे ऐसा कहनेपर मेनाने बड़ी प्रसन्नताके साथ अद्भुत आकारवाले भगवान् महेश्वरकी ओर देखा। वे स्वयं तो अद्भुत थे ही, उनके अनुचर भी बड़े अद्भुत थे। इतनेमें ही रुद्रदेवकी परम अद्भुत सेना भी आ पहुँची, जो भूत-प्रेत आदिसे संयुक्त तथा नाना गणोंसे सम्पन्न थी। उनमेंसे कितने ही बवंडरका रूप धारण करके आये थे। कितने ही पताकाकी मर्मरध्वनिके समान शब्द करते थे।
किन्हींके मुँह टेढ़े थे तो कोई अत्यन्त कुरूप दिखायी देते थे। कुछ बड़े विकराल थे। किन्हींका मुँह दाढ़ी-मूँछसे भरा हुआ था। कोई लँगड़े थे तो कोई अंधे। कोई दण्ड और पाश धारण किये हुए थे तो किन्हींके हाथों में मुद्गर थे। कितने ही अपने वाहनोंको उलटे चला रहे थे। कोई सींग, कोई डमरू और कोई गोमुख बजाते थे, गणोंमेंसे कितनेके तो मुँह ही नहीं थे।
कितनोंके मुख पीठकी ओर लगे थे और बहुतोंके बहुतेरे मुख थे। इसी तरह कोई बिना हाथके थे। किन्हींके हाथ उलटे लग रहे थे और कितनोंके बहुत-से हाथ थे। कितने ही नेत्रहीन थे, किन्हींके बहुत-से नेत्र थे। किन्हींके सिर ही नहीं थे और किन्हींके बहुत खराब सिर थे, किन्हींके कान ही नहीं थे और किन्हींके बहुत-से कान थे। इस तरह सभी गण नाना प्रकारकी वेश-भूषा धारण किये हुए थे।
तात! वे विकृत आकारवाले अनेक – प्रबल गण बड़े वीर और भयंकर थे। उनकी कोई संख्या नहीं थी। मुने ! तुमने अँगुलीद्वारा रुद्रगणोंको दिखाते हुए मेनासे कहा- ‘वरानने ! तुम पहले भगवान् हरके सेवकोंको देखो, फिर उनका भी दर्शन करना।’ उन असंख्य भूत-प्रेत आदि गणोंको देखकर मेना तत्काल भयसे व्याकुल हो गयीं। उन्हींके बीचमें भगवान् शंकर भी थे, जो निर्गुण होते हुए भी परम गुणवान् थे। वे वृषभपर सवार थे।
उनके पाँच मुख थे और प्रत्येक मुखमें तीन-तीन नेत्र। उनके सारे अंगोंमें विभूति लगी हुई थी, जो उनके लिये भूषणका काम देती थी। मस्तकपर जटाजूट और चन्द्रमाका मुकुट, – दस हाथ और उनमेंसे एकमें कपाल लिये, शरीरपर बाघंबरका दुपट्टा और हाथमें पिनाक एवं त्रिशूल, आँखें भयानक, आकृति विकराल और हाथीकी खालका वस्त्र ! यह सब देखकर शिवाकी माता बहुत डर गयीं, चकित हो गयीं, व्याकुल होकर काँपने लगीं और उनकी बुद्धि चकरा गयी। उस अवस्थामें तुमने अँगुलीसे दिखाते हुए उनसे कहा- ‘ये ही हैं भगवान् शिव।’
तुम्हारी यह बात सुनकर सती मेना दुःखसे भर गयीं और हवाके झोंके खाकर गिरी हुई लताके समान तुरंत भूमिपर गिर पड़ीं। ‘यह कैसा विकृत दृश्य है? मैं दुराग्रहमें पड़कर ठगी गयी।’ यों कहकर मेना उसी क्षण
मूच्छित हो गयीं। तदनन्तर सखियोंने जब नाना प्रकारके उपाय करके उनकी समुचित सेवा की, तब गिरिराजप्रिया मेना धीरे- धीरे होशमें आयीं।
(अध्याय ४१-४३)