Shiv puran rudra samhita Parwati khand chapter 37 or 38 (शिव पुराण रुद्रसंहिता पार्वती खंड अध्याय 37 और 38 हिमवान्‌का भगवान् शिवके पास लग्नपत्रिका भेजना, विवाहके लिये आवश्यक सामान जुटाना, मंगलाचारका आरम्भ करना, उनका निमन्त्रण पाकर पर्वतों और नदियोंका दिव्यरूपमें आना, पुरीकी सजावट तथा विश्वकर्माद्वारा दिव्यमण्डप एवं देवताओंके निवासके लिये दिव्यलोकोंका निर्माण करवाना)

(रुद्रसंहिता, तृतीय (पार्वती) खण्ड)

Shiv puran rudra samhita Parwati khand chapter 37 or 38 (शिव पुराण रुद्रसंहिता पार्वती खंड अध्याय 37 और 38 हिमवान्‌का भगवान् शिवके पास लग्नपत्रिका भेजना, विवाहके लिये आवश्यक सामान जुटाना, मंगलाचारका आरम्भ करना, उनका निमन्त्रण पाकर पर्वतों और नदियोंका दिव्यरूपमें आना, पुरीकी सजावट तथा विश्वकर्माद्वारा दिव्यमण्डप एवं देवताओंके निवासके लिये दिव्यलोकोंका निर्माण करवाना)

(अध्याय 37 और 38 )

:-नारदजीने पूछा-तात ! महाप्राज्ञ ! प्रभो ! आप कृपापूर्वक यह बताइये कि सप्तर्षियोंके चले जानेपर हिमाचलने क्या किया। ब्रह्माजीने कहा-मुनीश्वर ! अरुन्धती- सहित उन सप्तर्षियोंके चले जानेपर हिमवान्ने जो कार्य किया, वह तुम्हें बता रहा हूँ। सप्तर्षियोंके जानेके बाद अपने मेरु आदि भाई-बन्धुओंको आमन्त्रित करके पुत्र और पत्नीसहित महामनस्वी गिरिराज हिमवान् बड़े हर्षका अनुभव करने लगे।

 

तदनन्तर ऋषियोंकी आज्ञाके अनुसार हिमवान्ने अपने पुरोहित गर्गजीसे बड़ी प्रसन्नताके साथ लग्न-पत्रिका लिखवायी। उस पत्रिकाको उन्होंने भगवान् शिवके पास भेजा। पर्वतराजके बहुत-से आत्मीयजन प्रसन्नमनसे नाना प्रकारकी सामग्रियाँ लेकर वहाँ गये। कैलासपर भगवान् शिवके समीप पहुँचकर उन लोगोंने शिवको तिलक लगाया और वह लग्नपत्र उनके हाथमें दिया। वहाँ भगवान् शिवने उन सबका यथायोग्य विशेष सत्कार किया।

 

फिर वे सब लोग प्रसन्नचित्त हो शैलराजके पास लौट आये। महेश्वरके द्वारा विशेष सम्मानित होकर बड़े हर्षके साथ लौटे हुए उन लोगोंको देखकर हिमवान्‌के हृदयमें अत्यन्त हर्ष हुआ। तत्पश्चात् आनन्दित हो शैलराजने नाना देशोंमें रहनेवाले अपने बन्धुओंको लिखित निमन्त्रण भेजा, जो उन सबको सुख देनेवाला था। इसके बाद वे बड़े आदर और उत्साहके साथ उत्तम अन्न एवं नाना प्रकारकी विवाहोचित सामग्रियोंका संग्रह करने लगे।

 

उन्होंने चावल, गुड़, शक्कर, आटा, दूध, दही, घी, मिठाई, नमकीन पदार्थ, मक्खन, पकवान, महान् स्वादिष्ट रस और नाना प्रकारके व्यंजन इतने अधिक एकत्र किये कि सूखे पदार्थोंके पहाड़ खड़े हो गये और द्रव पदार्थोंकी बावड़ियाँ बन गयीं। शिवके पार्षदों और देवताओंके लिये हितकर नाना प्रकारकी वस्तुएँ, भाँति-भाँतिके बहुमूल्य वस्त्र, आगमें तपाकर शुद्ध किये हुए सुवर्ण, रजत और विभिन्न प्रकारके मणिरत्न – इनका तथा अन्य उपयोगी द्रव्योंका विधिपूर्वक संग्रह करके गिरिराजने मंगलकारी दिनमें मांगलिक कृत्य करना आरम्भ किया।

 

पर्वतराजके घरकी स्त्रियोंने पार्वतीका संस्कार करवाया। भाँति-भाँतिके आभूषणोंसे विभूषित हुई राजभवनकी उन सुन्दरी स्त्रियोंने सानन्द मंगलकार्यका सम्पादन किया। नगरके ब्राह्मणोंकी स्त्रियोंने स्वयं बड़े हर्षके साथ लोकाचारका अनुष्ठान किया। उसमें मंगलपूर्वक भाँति-भाँतिके उत्सव मनाये गये।

 

हर्षभरे हृदयसे उत्तम मंगलाचारका सम्पादन करके हिमालय भी सर्वतोभावेन बड़े प्रसन्न हुए और अपने निमन्त्रित बन्धु- जनोंके आगमनकी उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा करने लगे।

इसी बीचमें उनके निमन्त्रित बन्धु- बान्धव आने लगे। देवताओंके निवासभूत गिरिराज सुमेरु दिव्य रूप धारण करके नाना प्रकारके मणियों तथा महारत्नोंको यत्नपूर्वक साथ ले अपने स्त्री-पुत्रोंके साथ हिमालयके घर आये। मन्दराचल, अस्ताचल, उदयाचल, मलय, दर्दुर, निषद, गन्धमादन, करवीर, महेन्द्र, पारियात्र, क्रौंच, पुरुषोत्तमशैल, नील, त्रिकूट, चित्रकूट, वेंकट, श्रीशैल, गोकामुख, नारद, विन्ध्य, कालंजर, कैलास तथा अन्य पर्वत दिव्य रूप धारणकर अपने स्त्री-पुत्रोंके साथ बहुत-सी भेंट-सामग्री ले वहाँ उपस्थित हुए।

 

दूसरे द्वीपोंमें तथा यहाँ भी जो-जो पर्वत हैं, वे सब हिमालयके घर पधारे। शिवा और शिवका विवाह है, यह जानकर सबने बड़ी प्रसन्नताके साथ वहाँ पदार्पण किया। शोणभद्र आदि नद और सम्पूर्ण नदियाँ दिव्य नर-नारियोंके रूप धारणकर नाना प्रकारके अलंकारोंसे अलंकृत हो शिव-पार्वतीका विवाह देखनेके लिये आये। गोदावरी, यमुना, सरस्वती, वेणी, गंगा, नर्मदा तथा अन्य श्रेष्ठ सरिताएँ भी बड़ी प्रसन्नताके साथ हिमवान्‌के यहाँ आयीं। उन सबके आनेसे हिमालयकी दिव्य पुरी सब ओरसे भर गयी।

 

वह सब प्रकारकी शोभाओंसे सम्पन्न थी। वहाँ बड़े-बड़े उत्सव हो रहे थे। ध्वजा-पताकाएँ फहरा रही थीं। बंदनवारोंसे उसकी अधिक शोभा होतीथी। चारों ओर चंदोवे तने होनेसे वहाँ सूर्यका दर्शन नहीं होता था। भाँति-भाँतिकी नीली, पीली आदि प्रभा उस पुरीकी शोभा बढ़ाती थी। हिमालयने भी बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने यहाँ पधारे हुए सभी स्त्री- पुरुषोंका यथायोग्य आदर-सत्कार किया और सबको अलग-अलग सुन्दर स्थानोंमें ठहराया। अनेकानेक उपयुक्त सामग्री देकर सबको पूर्ण संतुष्ट किया।

मुनिश्रेष्ठ ! तदनन्तर शैलराज हिमवान्ने प्रसन्न हो महान् उत्सवसे परिपूर्ण अपने नगरको विचित्र रीतिसे सजाना आरम्भ किया। सड़कोंको झाड़-बुहारकर उनपर छिड़काव कराया। उन्हें बहुमूल्य साधनोंसे सुसज्जित एवं शोभित किया। प्रत्येक घरके दरवाजेपर केले आदि मांगलिक वृक्ष लगवाये और उन्हें मांगलिक द्रव्योंसे संयुक्त किया। आँगनको केलेके खंभोंसे सजाया। रेशमकी डोरोंमें आमके पल्लव बाँधकर बंदनवारें बनवायीं और उन्हें उन खंभोंके चारों ओर लगवा दिया। मालतीके फूलोंकी मालाएँ उस (आँगन) के सब ओर लटका दी गयीं।

 

सुन्दर तोरणोंसे वह आँगनका भाग अत्यन्त प्रकाशमान जान पड़ता था। चारों दिशाओंमें मंगलसूचक शुभ द्रव्य रखे गये थे, जो उस प्रांगणकी शोभा बढ़ा रहे थे। इसी प्रकार अत्यन्त प्रसन्नतासे भरे हुए गिरिराज हिमवान्ने महान् प्रभावशाली गर्गमुनिको आगे करके अपनी पुत्रीके लिये प्रस्तुत करनेयोग्य सारा उत्तम मंगलकार्य सम्पन्न किया। उन्होंने विश्वकर्माको बुलाकर आदरपूर्वक एक मण्डप बनवाया, जिसका विस्तार बहुत अधिक था। वेदी आदिके कारण वह मण्डप बहुत मनोहर जान पड़ता था।

 

देवर्षे ! वह मण्डप कई योजन विस्तृत था। अनेक शुभ लक्षणोंसे युक्त तथा नाना प्रकारके आश्चर्योंसे परिपूर्ण था। वहाँ स्थावर और जंगम सभी वस्तुएँ कृत्रिम बनी थीं; परंतु असली वस्तुओंके समान प्रतीत होती थीं। उनसे उस मण्डपकी मनोहरता बढ़ गयी थी। वहाँ सब ओर ऐसी अद्भुत वस्तुएँ थीं जो उस मण्डपका सर्वस्व जान पड़ती थीं। नाना प्रकारकी निराली वस्तुओंका चमत्कार वहाँ छा रहा था। वहाँकी स्थावर वस्तुओंसे जंगम और जंगम वस्तुओंसे स्थावर पराजित हो रहे थे अर्थात् वे एक- दूसरेसे बढ़कर शोभाशाली और चमत्कारपूर्ण दिखायी देते थे। उस मण्डपकी स्थलभूमि जलसे पराजित हो रही थी।

 

अर्थात् चतुर- से-चतुर मनुष्य भी यह नहीं जान पाते थे कि इसमें कहाँ जल है और कहाँ स्थल। कहीं कृत्रिम सिंह बने थे और कहीं सारसोंकी पंक्तियाँ। कहीं बनावटी मोर थे, जो अपनी सुन्दरतासे मनको मोहे लेते थे। कहीं कृत्रिम स्त्रियाँ थीं, जो पुरुषोंके साथ नृत्य करती हुई देखी जाती थीं। वे कृत्रिम होनेपर भी सब लोगोंकी ओर देखतीं और उनके मनको मोहमें डाल देती थीं। उसी विधिसे मनोहर द्वारपाल बने थे, जो स्थावर होनेपर भी जंगमोंके समान जान पड़ते थे। वे अपने हाथोंसे धनुष उठाकर उन्हें खींचते देखे जाते थे।

द्वारपर कृत्रिम महालक्ष्मी खड़ी थीं, जिनकी रचना अद्भुत थी। वह समस्त शुभ लक्षणोंसे संयुक्त दिखायी देती थीं। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो क्षीरसागरसे साक्षात् लक्ष्मी ही आ गयी हों। उस मण्डपमें स्थान-स्थानपर सजे-सजाये कृत्रिम हाथी खड़े किये गये थे, जो असली हाथियोंके समान ही प्रतीत होते थे।

घुड़सवारोंसहित घोड़े और हाथीसवारों- सहित हाथी बनाये गये थे। जहाँ-तहाँ रथियोंसहित रथ बने थे, जो कृत्रिम अश्वोंसे ही खींचे जाते थे। उन्हें देखकर लोगोंको बड़ा आश्चर्य होता था। इनके सिवा दूसरे- दूसरे कृत्रिम वाहन भी वहाँ खड़े थे। पैदल सिपाहियोंकी कृत्रिम सेना भी वहाँ मौजूद थी। मुने ! प्रसन्नचित्तवाले विश्वकर्माने देवताओं और मुनियोंको भी मोह (आश्चर्य)- में डालनेके लिये वहाँ ऐसी अद्भुत रचनाएँ की थीं।

 

मण्डपके सबसे बड़े फाटकपर कृत्रिम नन्दी खड़ा था, जो शुद्ध स्फटिकमणिके समान उज्ज्वल कान्तिसे सुशोभित होता था। भगवान् शिवके वाहन नन्दीकी जैसी आकृति है, ठीक वैसा ही वह भी था। उस कृत्रिम नन्दीके ऊपर रत्न- विभूषित महादिव्य पुष्पक शोभा पाता था, जो पल्लवों तथा श्वेत चामरोंसे सजाया गया था। उसके वामपार्श्वमें दो कृत्रिम हाथी खड़े थे, जिनका रंग विशुद्ध केसरके समान था। वे चार दाँतवाले बनाये गये थे और साठ वर्षके पाठोंके समान दीखते थे। वे परस्पर स्नेह करते-से प्रतीत होते थे। उनमें बड़ी चमक थी।

 

इसी प्रकार सूर्यके समान अत्यन्त प्रकाशमान दो दिव्य अश्व भी विश्वकर्माने बनाये थे, जो चॅवरसे अलंकृत और दिव्य आभूषणोंसे विभूषित थे। श्रेष्ठ रत्नमय आभूषणोंसे सम्पन्न, कवचधारी लोकपाल तथा सम्पूर्ण देवता भी वहाँ विश्वकर्माद्वारा रचे गये थे, जो ठीक उन्हीं लोकपालों और देवताओंसे मिलते-जुलते थे।

 

इसी तरह भृगु आदि समस्त तपोधन ऋषि, अन्यान्य उपदेवता और सिद्ध भी उनके द्वारा वहाँ निर्मित हुए थे।गरुड़ आदि समस्त पार्षदोंसे युक्त भगवान् विष्णुका कृत्रिम विग्रह भी विश्वकर्माने बनाया था, जिसका स्वरूप साक्षात् श्रीहरिके समान ही आश्चर्यजनक था। नारद ! उसी प्रकार पुत्रों, वेदों और सिद्धोंसे घिरे हुए मुझ ब्रह्माकी भी प्रतिमा वहाँ बनायी गयी थी, जो मेरे समान ही वैदिक सूक्तोंका पाठ कर रही थी। ऐरावत हाथीपर चढ़े हुए देवराज इन्द्र भी वहाँ दल-बलके साथ खड़े थे।

 

वे भी कृत्रिम ही बनाये गये थे और परिपूर्ण चन्द्रमाके समान प्रकाशित होते थे। देवर्षे ! बहुत कहनेसे क्या लाभ ? हिमाचलसे प्रेरित हुए विश्वकर्माने वहाँ शीघ्र ही सम्पूर्ण देवसमाजके कृत्रिम विग्रहोंका निर्माण कर लिया था। इस प्रकार उन्होंने दिव्य मण्डपकी रचना की थी। वह मण्डप अनेक आश्चर्योसे युक्त, महान् तथा देवताओंको भी मोह लेनेवाला था।

तदनन्तर गिरिराज हिमवान्‌की आज्ञासे परम बुद्धिमान् विश्वकर्माने देवता आदिके निवासके लिये उन-उनके कृत्रिम लोकोंका भी यत्नपूर्वक निर्माण किया। उन्हीं लोकोंमें उन्होंने उन देवताओंके लिये अत्यन्त तेजस्वी, परम अद्भुत और सुखदायक बड़े-बड़े दिव्य मंचों (सिंहासनों) की रचना की। इसी तरह उन्होंने मुझ स्वयम्भू ब्रह्माके निवासके लिये क्षणभरमें अद्भुत सत्यलोककी रचना कर डाली, जो उत्तम दीप्तिसे उद्दीप्त हो रहा था।

 

साथ ही भगवान् विष्णुके लिये भी क्षणभरमें दूसरे दिव्य वैकुण्ठधामका निर्माण कर दिया, जो परम उज्ज्वल तथा नाना प्रकारके आश्चर्योंसे परिपूर्ण था। इसी तरह विश्वकर्माने देवराज इन्द्रके लिये भी दिव्य, अद्भुत, उत्तम एवं समस्त ऐश्वर्योंसे सम्पन्न गृहकी रचना की। अन्य लोकपालोंके लिये भी उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक बड़े सुन्दर, दिव्य, अद्भुत एवं बड़े-बड़े भवन बनाये।

 

फिर क्रमशः समस्त देवताओंके लिये भी उन्होंने क्रमशः विचित्र गृहोंका निर्माण किया। परम बुद्धिमान् विश्वकर्माको भगवान् शंकरका महान् वर प्राप्त था, इसीलिये उन्होंने शिवके संतोषके लिये क्षणभरमें इन सब वस्तुओंकी रचना कर डाली। तदनन्तर उसी प्रकार भगवान् शंकरके लिये भी उन्होंने एक शोभाशाली गृहका निर्माण किया, जो शिवके चिह्नसे युक्त तथा शिवलोकवर्ती दिव्य भवनके समान ही अनुपम था। श्रेष्ठ देवताओंने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। वह परम उज्ज्वल, महान् प्रभापुंजसे उद्भासित, उत्तम और अद्भुत था।

 

विश्वकर्माने भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये वहाँ ऐसी अद्भुत रचना की थी, जो परम उज्ज्वल होनेके साथ ही साक्षात् महादेवजीको भी आश्चर्यमें डालनेवाली थी। इस प्रकार यह सारा लौकिक व्यवहार करके हिमाचल बड़ी प्रसन्नताके साथ भगवान् शम्भुके शुभागमनकी प्रतीक्षा करने लगे। देवर्षे ! हिमालयका यह सारा आनन्ददायक वृत्तान्त मैंने तुमसे कह सुनाया। अब और क्या सुनना चाहते हो ?

(अध्याय ३७-३८)

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