(रुद्रसंहिता, तृतीय (पार्वती) खण्ड)
Shiv puran rudra samhita Parwati khand chapter 32 or 33 (शिव पुराण रुद्रसंहिता पार्वती खंड अध्याय 32 और 33 मेनाका कोपभवनमें प्रवेश, भगवान् शिवका हिमवान्के पास सप्तर्षियोंको भेजना तथा हिमवान्द्वारा उनका सत्त्कार, सप्तर्षियों तथा अरुन्धतीका और महर्षि वसिष्ठका मेना और हिमवान्को समझाकर पार्वतीका विवाह भगवान् शिवके साथ करनेके लिये कहना)
(अध्याय 32 और 33)
:-ब्रह्माजी कहते हैं-ब्राह्मणरूपधारी शिवजीके वचनोंका मेनाके ऊपर बड़ा प्रभाव पड़ा और उन्होंने दुःखी होकर पतिसे कहा – ‘गिरिराज ! इन वैष्णव ब्राह्मणने शिवजीकी जो निन्दा की है, उसे सुनकर मेरा मन उनकी ओरसे बहुत खिन्न एवं विरक्त हो गया है। शैलेश्वर ! रुद्रके रूप, शील और नाम सभी कुत्सित हैं। मैं उन्हें अपनी सुलक्षणा पुत्री कदापि नहीं दूँगी। यदि आप मेरी बात नहीं मानेंगे तो मैं निस्संदेह मर जाऊँगी, अभी इस घरको छोड़ दूंगी अथवा विष खा लूँगी, पार्वतीके गलेमें फाँसी लगाकर गहन वनमें चली जाऊँगी अथवा उसे महासागरमें डुबो दूँगी; परंतु अपनीबेटीको रुद्रके गले नहीं मढ़ेंगी।’
ऐसा कहकर मेना तुरंत कोपभवनमें चली गयीं और अपने हारको फेंककर रोती हुई धरतीपर लोट गयीं।इधर भगवान् शिवको इस बातका पता लगा, तब उन्होंने अरुन्धतीसहित सप्तर्षियोंको बुलाया तथा मेनाके पास जाकर उन्हें समझानेकी आज्ञा दी।
शिवजीका आदेश प्राप्तकर भगवान् शिवको नमस्कार करके वे दिव्य ऋषि आकाशमार्गसे उस स्थानको चल दिये, जहाँ हिमवान्की नगरी थी। उस दिव्य पुरीको देखकर उन सप्तर्षियोंको बड़ा विस्मय हुआ।
वे हिमाचलपुरीकी परस्पर प्रशंसा करते हुए सब ऐश्वर्योसे भरे-पूरे हिमवान्के घर जा पहुँचे। उन सूर्यतुल्य तेजस्वी सातों ऋषियोंको दूरसे आकाशके रास्ते आते देख हिमवान्को बड़ा विस्मय हुआ। वे बोले- ‘ये सात सूर्यतुल्य तेजस्वी मुनि मेरे पास आ रहे हैं। मुझे प्रयत्नपूर्वक इस समय इनकी पूजा करनी चाहिये। सबको सुख देनेवाले हम गृहस्थ लोग धन्य हैं, जिनके घरपर ऐसे महात्मा पदार्पण किया करते हैं।’
ब्रह्माजी कहते हैं-इसी समय वे मुनि आकाशसे उतरकर पृथ्वीपर खड़े हो गये। उन्हें सामने देख हिमवान् बड़े आदरके साथ आगे बढ़े और हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर उन सप्तर्षियोंको प्रणाम करनेके पश्चात् उन्होंने बड़े सम्मानके साथ उन सबकी पूजा की तथा उन्हें आगे करके कहा- ‘मेरा गृहाश्रम आज धन्य हो गया।’
यों कहकर उन्हें बैठनेके लिये भक्तिपूर्वक आसन लाकर दिया। जब वे आसनोंपर बैठ गये, तब उनकी आज्ञा लेकर हिमवान् भी बैठे और वहाँ उन ज्योतिर्मय महर्षियोंसे इस प्रकार बोले।
हिमवान्ने कहा- आज मैं धन्य हूँ, कृत- कृत्य हूँ। मेरा जीवन सफल हो गया। मैं लोकमें बहुत-से तीर्थोंकी भाँति दर्शनीय बन गया; क्योंकि आप-जैसे विष्णुरूपी महात्मा मेरे घर पधारे हैं। आपलोग पूर्णकाम हैं। हम दीनोंके घरोंमें आपका क्या काम हो सकता है। तथापि मुझ सेवकके योग्य यदि कोई कार्य है तो कृपापूर्वक उसे अवश्य कहें। उसे पूर्ण करनेसे मेरा जीवन सफल हो जायगा।
ऋषि बोले- शैलराज ! भगवान् शिवको जगत्का पिता कहा गया है और शिवा जगन्माता मानी गयी हैं। अतः तुम्हें महात्मा शंकरको अपनी कन्या देनी चाहिये। हिमालय ! ऐसा करके तुम्हारा जन्म सफल हो जायगा तथा तुम जगद्गुरुके भी गुरु हो जाओगे, इसमें संशय नहीं है।
मुनीश्वर ! सप्तर्षियोंका यह वचन सुनकर हिमवान्ने दोनों हाथ जोड़ उन्हें प्रणाम करके इस प्रकार कहा। हिमालय बोले- महाभाग सप्तर्षियो ! आपलोगोंने जो बात कही है, उसे शिवकी इच्छासे मैंने पहलेसे ही मान रखा था; किंतु प्रभो ! इन दिनों एक वैष्णवधर्मी ब्राह्मणने आकर भगवान् शिवके प्रति प्रसन्नतापूर्वक बहुत-सी उलटी बातें बतायी हैं। तभीसे शिवाकी माताका ज्ञान भ्रष्ट हो गया है। वे अपनी बेटीका विवाह उस योगी रुद्रके साथ नहीं करना चाहतीं।
ब्राह्मणो ! वे बड़ा भारी हठ करके मैले कपड़े पहन कोपभवनमें चली गयी हैं और समझानेपर भी समझ नहीं रही हैं। मैं भी उस वैष्णव ब्राह्मणकी बात सुनकर ज्ञानभ्रष्ट हो गया हूँ। आपसे सच कहता हूँ, भिक्षुकरूपधारी महेश्वरको बेटी देनेकी मेरी भी अब इच्छा नहीं है।
ब्रह्माजी कहते हैं- नारद ! मुनियोंके बीचमें बैठे हुए शैलराज शिवकी मायासे मोहित हो उपर्युक्त बात कहकर चुप हो रहे। तब उन सभी सप्तर्षियोंने शिवकी मायाकी प्रशंसा करके मेनकाके पास अरुन्धतीको भेजा। पतिकी आज्ञा पाकर ज्ञानदायिनी अरुन्धतीदेवी तुरंत उस घरमें गयीं, जहाँ मेना और पार्वती थीं। जाकर उन्होंने देखा, मेना शोकसे आकुल होकर पृथ्वीपर पड़ी हैं। तब उन साध्वी देवीने बड़ी सावधानीके साथ मधुर एवं हितकर बात कही।
अरुन्धती बोलीं- साध्वी रानी मेनके ! उठो, मैं अरुन्धती तुम्हारे घरमें आयी हूँ तथा दयालु सप्तर्षि भी पधारे हैं। अरुन्धतीका स्वर सुनकर मेनका शीघ्र उठ गयीं और लक्ष्मी-जैसी तेजस्विनी उन पतिव्रता देवीके चरणोंमें मस्तक रखकर बोलीं।
मेनाने कहा-अहो ! हम पुण्यजन्मा जीवोंको आज यह किस पुण्यका फल प्राप्त हुआ है कि हमारे इस घरमें जगत्त्रष्टा ब्रह्माजीकी पुत्रवधू और महर्षि वसिष्ठकी पत्नी पधारी हैं। देवि ! आप किसलिये आयी हैं? यह मुझे बताइये। मैं और मेरी पुत्री आपकी दासीके समान हैं। आप हमपर कृपा कीजिये।
मेनकाके ऐसा कहनेपर साध्वी अरुन्धतीने उनको बहुत अच्छी तरह समझाया-बुझाया और उन्हें साथ ले वे प्रसन्नतापूर्वक उस स्थानपर आयीं, जहाँ वे सप्तर्षि विद्यमान थे। सप्तर्षिगण बात- चीतमें बड़े निपुण थे। उन सबने भगवान् शिवके युगल चरणारविन्दोंका स्मरण करके शैलराजको समझाना आरम्भ किया।
ऋषि बोले- शैलेन्द्र ! हमारा शुभकारक वचन सुनो। तुम पार्वतीका विवाह शिवके साथ कर दो और संहारकर्ता रुद्रके श्वशुर हो जाओ। शम्भु सर्वेश्वर हैं। वे किसीसे याचना नहीं करते। स्वयं ब्रह्माजीने तारकासुरके विनाशके लिये एक वीरपुत्र उत्पन्न करनेके उद्देश्यको लेकर भगवान् शिवसे यह प्रार्थना की है कि वे विवाह कर लें। भगवान् शंकर तो योगियोंके शिरोमणि हैं।
वे विवाहके लिये उत्सुक नहीं हैं। केवल ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे ही वे महादेव तुम्हारी कन्याका पाणिग्रहण करेंगे। तुम्हारी पुत्रीने जब तपस्या की थी, उस समय उसके सामने उन्होंने उससे विवाहकी प्रतिज्ञा कर ली थी। इन्हीं दो कारणोंसे वे योगिराज शिव विवाह करेंगे।
ऋषियोंकी यह बात सुनकर हिमालय हँस पड़े और कुछ भयभीत हो विनय- पूर्वक बोले। हिमालयने कहा- मैं शिवके पास कोई राजोचित सामग्री नहीं देखता हूँ। उनका न कोई घर है, न ऐश्वर्य है और न कोई स्वजन या बन्धु-बान्धव ही है। मैं अत्यन्त निर्लिप्त योगीको अपनी बेटी देना नहीं चाहता। आपलोग वेदविधाता ब्रह्माजीके पुत्र हैं; अतः अपना निश्चित विचार कहिये।
जो पिता कामसे, मोहसे, भयसे अथवा लोभसे किसी अयोग्य वरके हाथमें अपनी कन्या दे देता है, वह मरनेके बाद नरकमें जाता है। अतः मैं स्वेच्छासे भगवान् शूलपाणिको अपनी कन्या नहीं दूंगा। इसलिये महर्षियो ! जो उचित विधान हो, उसे आपलोग कीजिये ।
मुनीश्वर नारद ! हिमाचलके इस वचनको सुनकर बातचीत करनेमें निपुण महर्षि वसिष्ठने उनसे यों कहा। वसिष्ठ बोले- शैलेश्वर ! मेरी बात सुनो। यह सर्वथा तुम्हारे लिये हितकारक, धर्मके अनुकूल, सत्य तथा इहलोक और परलोकमें सुखदायक है। शैलराज ! लोक तथा वेदमें तीन प्रकारके वचन उपलब्ध होते हैं। शास्त्रज्ञ पुरुष अपनी निर्मल ज्ञानदृष्टिसे उन सब प्रकारके वचनोंको जानता है।
एक तो वह वचन है, जो तत्काल सुननेमें बड़ा सुन्दर (प्रिय) लगता है, परंतु पीछे वह असत्य एवं अहितकारक सिद्ध होता है। ऐसा वचन बुद्धिमान् शत्रु ही कहता है, उससे कभी हित नहीं होता। दूसरा वह है, जो आरम्भमें अच्छा नहीं लगता; उसे सुनकर अप्रसन्नता ही होती है। परंतु परिणाममें वह सुख देनेवाला होता है। इस तरहका वचन कहकर दयालु धर्मशील बान्धवजन ही कर्तव्यका बोध कराता है।
तीसरी श्रेणीका वचन वह है जो सुनते ही अमृतके समान मीठा लगता है और सब कालमें सुख देनेवाला होता है। सत्य ही उसका सार होता है। इसलिये वह हितकारक हुआ करता है। ऐसा वचन सबसे श्रेष्ठ और सबके लिये अभीष्ट है। शैलराज ! इस तरह नीतिशास्त्रमें तीन प्रकारके वचन कहे गये हैं। इन तीनोंमेंसे तुम्हें कौन-सा वचन अभीष्ट है? बताओ, मैं तुम्हारे लिये वैसा ही वचन कहूँगा।
भगवान् शंकर सम्पूर्ण देवताओंके स्वामी हैं। उनके पास बाह्य सम्पत्ति नहीं है, इसका कारण यह है कि उनका चित्त एकमात्र ज्ञानके महासागरमें मग्न रहता है। जो ज्ञानानन्दस्वरूप और सबके ईश्वर हैं, उन्हें लौकिक – बाह्य वस्तुओंकी क्या इच्छा होगी ? गृहस्थ पुरुष राज्य और सम्पत्तिसे सुशोभित होनेवाले वरको अपनी पुत्री देता है; क्योंकि किसी दीन-दुःखीको कन्या देनेसे पिता कन्याघाती होता है-उसे कन्याके वधका पाप लगता है। कौन जानता है कि भगवान् शंकर दुःखी हैं?
कुबेर जिनके किंकर हैं, जो अपनी भ्रूभंगकी लीलामात्रसे संसारकी सृष्टि और संहार करनेमें समर्थ हैं, जिन्हें गुणातीत, परमात्मा और प्रकृतिसे परे परमेश्वर कहा गया है, सृष्टि, पालन और संहार करनेवाली जिनकी त्रिविध मूर्ति ही ब्रह्मा, विष्णु और हर नाम धारण करती है, उन्हें कौन निर्धन अथवा दुःखी कह सकता है ? ब्रह्मलोकमें निवास करनेवाले ब्रह्मा, क्षीरसागरमें रहनेवाले विष्णु तथा कैलासवासी हर – ये सब शिवकी ही विभूतियाँ हैं।
शिवसे प्रकट हुई प्रकृति भी अपने अंशसे तीन प्रकारकी मूर्तियोंको धारण करती है। जगत्में लीलाशक्तिसे प्रेरित हो वह अपनी कलासे बहुत-सा रूप धारण करती है। समस्त वाङ्मयकी अधिष्ठात्री देवी वाणी उनके मुखसे प्रकट हुई हैं और सर्वसम्पत्स्वरूपिणी लक्ष्मी वक्षःस्थलसे आविर्भूत हुई हैं तथा शिवाने देवताओंके एकत्र हुए तेजसे अपनेको प्रकट किया था और सम्पूर्ण दानवोंका वध करके देवताओंको स्वर्गकी लक्ष्मी प्रदान की थी।
देवी शिवा कल्पान्तरमें दक्षपत्नीके उदरसे जन्म ले सती नामसे प्रसिद्ध हुईं और हरको उन्होंने पतिके रूपमें प्राप्त किया। दक्षने स्वयं ही भगवान् शिवको अपनी पुत्री दी थी। सतीने पतिकी निन्दा सुनकर योगबलसे अपने शरीरको त्याग दिया था। वे ही कल्याणमयी सती अब तुम्हारे वीर्य और मेनाके गर्भसे प्रकट हुई हैं। शैलराज ! ये शिवा जन्म-जन्ममें शिवकी ही पत्नी होती हैं। प्रत्येक कल्पमें बुद्धिरूपा दुर्गा ज्ञानियोंकी श्रेष्ठ माता होती हैं।
ये सदा सिद्ध, सिद्धिदायिनी और सिद्धिरूपिणी हैं। भगवान् हर चिताभस्मके रूपमें सतीके अस्थिचूर्णको ही स्वयं प्रेमपूर्वक अपने अंगोंमें धारण करते हैं। अतः गिरिराज ! तुम स्वेच्छासे ही अपनी मंगलमयी कन्याको भगवान् हरके हाथमें दे दो। तुम यदि नहीं दोगे तो वह स्वयं प्रियतमके स्थानमें चली जायगी। देवेश्वर शिव तुम्हारी पुत्रीका अनन्त क्लेश देखकर ब्राह्मणके रूपमें इसकी तपस्याके स्थानपर आये थे और इसके साथ विवाहकी प्रतिज्ञा करके इसे आश्वासन एवं वर देकर अपने आवासस्थानको लौट गये थे। गिरे !
पार्वतीकी प्रार्थनासे ही शम्भुने तुम्हारे पास आकर इसके लिये याचना की और तुम दोनोंने शिवभक्तिमें मन लगाकर उनकी उस याचनाको स्वीकार कर लिया था। गिरीश्वर ! बताओ, फिर किस कारणसे तुम्हारी बुद्धि विपरीत हो गयी ? भगवान् शिवने देवताओंकी प्रार्थनासे प्रभावित होकर हम सब ऋषियोंको और अरुन्धतीदेवीको भी तुम्हारे पास भेजा है।
हम तुम्हें यही शिक्षा देते हैं कि तुम पार्वती-को रुद्रके हाथमें दे दो। गिरे ! ऐसा करनेपर तुम्हें महान् आनन्द प्राप्त होगा। शैलेन्द्र ! यदि तुम स्वेच्छासे अपनी बेटी शिवाको शिवके हाथमें नहीं दोगे तो भावीके बलसे ही इन दोनोंका विवाह हो जायगा। तात ! भगवान् शंकरने तपस्यामें लगी हुई पार्वतीको ऐसा ही वर दिया है।
ईश्वरकी की हुई प्रतिज्ञा कभी पलट नहीं सकती। गिरिराज ! ईश्वरके वशमें रहनेवाले समस्त साधु पुरुषोंकी भी प्रतिज्ञाका संसारमें किसीके द्वारा उल्लंघन होना कठिन है। फिर साक्षात् ईश्वरकी प्रतिज्ञाके लिये तो कहना ही क्या है?
(अध्याय ३२-३३)