Shiv puran rudra samhita Parwati khand chapter 30 (शिव पुराण रुद्रसंहिता पार्वती खंड अध्याय 30 पार्वतीका पिताके घरमें सत्कार, महादेवजीकी नटलीलाका चमत्कार, उनका मेना आदिसे पार्वतीको माँगना और माता-पिताके इनकार करनेपर अन्तर्धान हो जाना)

(रुद्रसंहिता, तृतीय (पार्वती) खण्ड)

Shiv puran rudra samhita Parwati khand chapter 30 (शिव पुराण रुद्रसंहिता पार्वती खंड अध्याय 30 पार्वतीका पिताके घरमें सत्कार, महादेवजीकी नटलीलाका चमत्कार, उनका मेना आदिसे पार्वतीको माँगना और माता-पिताके इनकार करनेपर अन्तर्धान हो जाना)

(अध्याय 30)

:-ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! भगवान् शंकरके अपने स्थानको चले जानेपर सखियोंसहित पार्वती भी अपने रूपको सफल करके महादेवजीका नाम लेती हुई पिताजीके घर चली गयीं। पार्वतीका आगमन सुनकर मेना और हिमाचल दिव्य रथपर आरूढ़ हो हर्षसे विह्वल होकर उनकी अगवानीके लिये चले। पुरोहित, पुरवासी, अनेकानेक सखियाँ तथा अन्य सब सम्बन्धी भी आ पहुँचे। पार्वतीके सारे भाई मैनाक आदि बड़े हर्षके साथ जय-जयकार करते हुए उन्हें घर ले आनेके लिये गये।

इसी बीचमें पार्वती अपने नगरके निकट आ गयीं। नगरमें प्रवेश करते समय शिवा देवीने माता-पिताको देखा, जो अत्यन्त प्रसन्न और हर्षसे विह्वलचित्त होकर दौड़े चले आ रहे थे। उन्हें देखकर हर्षसे भरी हुई कालीने सखियोंसहित प्रणाम किया। माता- पिताने पूर्णरूपसे आशीर्वाद दे पुत्रीको छातीसे लगा लिया और ‘ओ, मेरी बच्ची !’ ऐसा कहकर प्रेमसे विह्वल हो रोने लगे। तत्पश्चात् अपने घरकी दूसरी दूसरी स्त्रियों तथा भाभियोंने भी बड़ी प्रसन्नताके साथ प्रेमपूर्वक उन्हें भुजाओंमें भरकर भेंटा।

 

‘देवि ! तुमने अपने कुलका उद्धार करनेवाले उत्तम कार्यको अच्छी तरह सिद्ध किया है। तुम्हारे सदाचरणसे हम सब लोग पवित्र हो गये’ ऐसा कहकर सब लोग हर्षके साथ पार्वतीकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उन्हें प्रणाम करने लगे। लोगोंने चन्दन और सुन्दर फूलोंसे शिवादेवीका सानन्द पूजन किया। उस अवसरपर विमानपर बैठे हुए देवताओंने पार्वतीको नमस्कार करके उनपर फूलोंकी वर्षा करते हुए स्तुति की।

 

नारद ! उस समय तुम्हें भी एक सुन्दर रथपर बिठाकर ब्राह्मण आदि सब लोग नगरमें ले गये। फिर ब्राह्मणों, सखियों तथा दूसरी स्त्रियोंने बड़े आदरके साथ शिवाका घरके भीतर प्रवेश कराया। स्त्रियोंने उनके ऊपर बहुत-सी वस्तुएँ निछावर कीं। ब्राह्मणोंने आशीर्वाद दिये। मुनीश्वर ! पिता हिमवान् और माता मेनकाको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने अपने गृहस्थ-आश्रमको सफल माना और यह अनुभव किया कि कुपुत्रकी अपेक्षा सुपुत्री ही श्रेष्ठ है। गिरिराजने ब्राह्मणों और वन्दीजनोंको धन दिया और ब्राह्मणोंसे मंगलपाठ करवाया।

 

मुने ! इस प्रकार पार्वतीके साथ हर्षभरे माता-पिता, भाई तथा भौजाइयाँ भी घरके आँगनमें प्रसन्नतापूर्वक बैठीं।तदनन्तर हिमवान् प्रसन्नचित्तसे सबका आदर-सत्कार करके गंगा-स्नानके लिये गये। इसी बीचमें सुन्दर लीला करनेवाले भक्तवत्सल भगवान् शम्भु एक अच्छा नाचनेवाला नट बनकर मेनकाके पास गये। उन्होंने बायें हाथमें सींग और दाहिने हाथमें डमरू ले रखा था। पीठपर कथरी रख छोड़ी थी। लाल वस्त्र पहने वे भगवान् रुद्र नाच और गानमें अपनी निपुणताका परिचय दे रहे थे।

 

सुन्दर नटका रूप धारण किये हुए भगवान् शिवने मेनकाके पास बैठी हुई स्त्रियोंकी टोलीके समीप सुन्दर नृत्य किया और अत्यन्त मनोहर नाना प्रकारके गीत गाये। उन्होंने वहाँ सुन्दर ध्वनि करनेवाले श्रृंग और डमरूको भी बजाया तथा नाना प्रकारकी बड़ी मनोहारिणी लीला की। नटराजकी उस लीलाको देखनेके लिये नगरके सभी स्त्री-पुरुष एवं बालक और वृद्ध भी सहसा वहाँ आ पहुँचे।

 

मुने ! उस सुमधुर गीतको सुनकर और उस मनोहर उत्तम नृत्यको देखकर वहाँ आये हुए सब लोग तत्काल मोहित हो गये। मेना भी मोही गयीं। उधर पार्वतीने अपने हृदयमें भगवान् शंकरका साक्षात् दर्शन किया। वे त्रिशूल आदि चिह्न धारण किये अत्यन्त सुन्दर दिखायी देते थे। उनका सारा अंग विभूतिसे विभूषित था। वे हड्डियोंकी मालासे अलंकृत थे। उनका मुख सूर्य, चन्द्र एवं अग्निरूप तीन नेत्रोंसे उद्भासित था। उन्होंने नागका यज्ञोपवीत धारण किया था। उनके उस सुरम्य रूपको देखकर दुर्गा प्रेमावेशसे मूच्छित हो गयीं।

 

गौरवर्णविभूषित दीन- बन्धु दयासिन्धु और सर्वथा मनोहर महेश्वर पार्वतीसे कह रहे थे कि ‘वर माँगो।’ अपने हृदयमें विराजमान महादेवजीको इस रूपमें देखकर पार्वतीदेवीने उन्हें प्रणाम किया और मन-ही-मन यह वर माँगा कि ‘आप मेरे पति हो जाइये।’ प्रीतियुक्त हृदयसे शिवाको वैसा कल्याणकारी वर देकर वे पुनः अन्तर्धान हो गये और वहाँ पूर्ववत् भिक्षा माँगनेवाला नट बनकर उत्तम नृत्य करने लगे।

उस समय मेना सोनेकी थालीमें रखे हुए बहुत-से सुन्दर रत्न ले उन्हें प्रसन्नतापूर्वक देनेके लिये गयीं। उनका वह ऐश्वर्य देखकर भगवान् शंकर मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। परंतु उन्होंने उन रत्नोंको स्वीकार नहीं किया। वे भिक्षामें उनकी पुत्री शिवाको ही माँगने लगे और पुनः कौतुकवश सुन्दर नृत्य एवं गान करनेको उद्यत हुए। मेना उस भिक्षुक नटकी बात सुनकर अत्यन्त कुपित हो उठीं और उसे डाँटने-फटकारने लगीं। उनके मनमें उसे बाहर निकाल देनेकी इच्छा हुई। इसी बीचमें गिरिराज हिमवान् गंगाजीसे नहाकर लौट आये।

 

उन्होंने अपने सामने उस नराकार भिक्षुकको आँगनमें खड़ा देखा। मेनाके मुखसे सारी बातें सुनकर उनको भी बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने अपने सेवकोंको आज्ञा दी कि इस नटको बाहर निकाल दो। मुनिश्रेष्ठ ! वे नटराज विशालकाय अग्निकी भाँति अपने उत्तम तेजसे प्रज्वलित हो रहे थे। उन्हें छूना भी कठिन था। इसलिये कोई भी उन्हें बाहर न निकाल सका। तात ! फिर तो नाना प्रकारकी लीलाओंमें विशारद उन भिक्षुशिरोमणिने शैलराजको अपना अनंत प्रभाव  दिखाना आरम्भ किया।

 

हिमवान्ने देखा, भिक्षुने वहाँ तत्काल ही भगवान् विष्णुका रूप धारण कर लिया है। उनके मस्तकपर किरीट, कानोंमें कुण्डल और शरीरपर पीतवस्त्र शोभा पाते हैं। उनके चार भुजाएँ हैं। हिमवान्ने पूजाके समय गदाधारी श्रीहरिको जो-जो पुष्प आदि चढ़ाये थे, वे सब उन्होंने भिक्षुके शरीर और मस्तकपर देखे। तत्पश्चात् गिरिराजने उन भिक्षुशिरोमणिको जगत्स्रष्टा चतुर्मुख ब्रह्माके रूपमें देखा। उनके शरीरका वर्ण लाल था और वे वैदिक सूक्तका पाठ कर रहे थे।

 

तदनन्तर शैलराजने उन कौतुककारी नटराजको एक क्षणमें जगत्‌के नेत्ररूप सूर्यके आकारमें देखा। तात! इसके बाद वे महान् अद्भुत रुद्रके रूपमें दिखायी दिये। उनके साथ देवी पार्वती भी थीं। वे उत्तम तेजसे सम्पन्न रमणीय रुद्र धीरे-धीरे हँस रहे थे। फिर वे केवल तेजोमय रूपमें दृष्टिगोचर हुए। उनका वह स्वरूप निराकार, निरंजन, उपाधिशून्य, निरीह एवं अत्यन्त अद्भुत था। इस प्रकार हिमवान्ने उनके बहुत-से रूप देखे। इससे उन्हें बड़ा विस्मय हुआ और वे तुरंत ही परमानन्दमें निमग्न हो गये।

 

तदनन्तर सुन्दर लीला करनेवाले उन भिक्षुशिरोमणिने हिमवान् और मेनासे दुर्गाको ही भिक्षाके रूपमें माँगा। दूसरी कोई वस्तु ग्रहण नहीं की। परंतु शिवकी मायासे मोहित होनेके कारण शैलराजने उनकी उस प्रार्थनाको स्वीकार नहीं किया। फिर भिक्षुने कोई वस्तु नहीं ली और वे वहाँसे अन्तर्धान हो गये। तब मेना और शैलराजको उत्तम ज्ञान हुआ और वे सोचने लगे – ‘भगवान् शिव हमें अपनी मायासे छलकर अपने स्थानको चले गये।’

 

यह विचारकर उन दोनोंकी भगवान् शिवमें पराभक्ति हुई, जो महान्मो क्षकी प्राप्ति करानेवाली, दिव्य तथा सम्पूर्ण आनन्द प्रदान करनेवाली है।

(अध्याय ३०)

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