Shiv puran rudra samhita Parwati khand chapter 3 (शिव पुराण रुद्रसंहिता पार्वती खंड अध्याय 3 देवताओंका हिमालयके पास जाना और उनसे सत्कृत हो उन्हें उमाराधनकी विधि बता स्वयं भी एक सुन्दर स्थानमें जाकर उनकी स्तुति करना)

(रुद्रसंहिता, तृतीय (पार्वती) खण्ड)

Shiv puran rudra samhita Parwati khand chapter 3 (शिव पुराण रुद्रसंहिता पार्वती खंड अध्याय 3 देवताओंका हिमालयके पास जाना और उनसे सत्कृत हो उन्हें उमाराधनकी विधि बता स्वयं भी एक सुन्दर स्थानमें जाकर उनकी स्तुति करना)

(अध्याय 3)

:-नारदजी बोले – महामते ! आपने मेनाके पूर्वजन्मकी यह शुभ एवं अद्भुत कथा कही है। उनके विवाहका प्रसंग भी मैंने सुन लिया। अब आगेके उत्तम चरित्रका वर्णन कीजिये।

ब्रह्माजीने कहा-नारद ! जब मेनाके साथ विवाह करके हिमवान् अपने घरको गये, तब तीनों लोकोंमें बड़ा भारी उत्सव मनाया गया। हिमालय भी अत्यन्त प्रसन्न हो मेनाके साथ अपने सुखदायक सदनमें निवास करने लगे।

 

मुने ! उस समय श्रीविष्णु आदि समस्त देवता और महात्मा मुनि गिरिराजके पास गये। उन सब देवताओंको आया देख महान् हिमगिरिने प्रशंसापूर्वक उन्हें प्रणाम किया और अपने भाग्यकी सराहना करते हुए भक्तिभावसे उन सबका आदर-सत्कार किया। हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर वे बड़े प्रेमसे स्तुति करनेको उद्यत हुए।

 

शैलराजके शरीरमें महान् रोमांच हो आया। उनके नेत्रोंसे प्रेमके आँसू बहने लगे। मुने ! हिमशैलने प्रसन्नमनसे अत्यन्त प्रेमपूर्वक प्रणाम किया और विनीतभावसे खड़े हो श्रीविष्णु आदि देवताओंसे कहा।

हिमाचल बोले-आज मेरा जन्म सफल हो गया, मेरी बड़ी भारी तपस्या सफल हुई। आज मेरा ज्ञान सफल हुआ और आज मेरी सारी क्रियाएँ सफल हो गयीं। आज मैं धन्य हुआ। मेरी सारी भूमि धन्य हुई। मेरा कुल धन्य हुआ।

 

मेरी स्त्री तथा मेरा सब कुछ धन्य हो गया, इसमें संशय नहीं है; क्योंकि आप सब महान् देवता एक साथ मिलकर एक ही समय यहाँ पधारे हैं। मुझे अपना सेवक समझकर प्रसन्नता- पूर्वक उचित कार्यके लिये आज्ञा दें।

हिमगिरिका यह वचन सुनकर वे सब देवता बड़े प्रसन्न हुए और अपने कार्यकी सिद्धि मनाते हुए बोले ।देवताओंने कहा-महाप्राज्ञ हिमाचल !हमारा हितकारक वचन सुनो। हम सब लोग जिस कामके लिये यहाँ आये हैं, उसे प्रसन्नतापूर्वक बता रहे हैं।

 

गिरिराज ! पहले जो जगदम्बा उमा दक्षकन्या सतीके रूपमें प्रकट हुई थीं और रुद्रपत्नी होकर सुदीर्घकालतक इस भूतलपर क्रीडा करती रहीं, वे ही अम्बिका सती अपने पितासे अनादर पाकर अपनी प्रतिज्ञाका स्मरण करके यज्ञमें शरीर त्याग अपने परम धामको पधार गयीं।

 

हिमगिरे ! वह कथा लोकमें विख्यात है और तुम्हें भी विदित है। यदि वे सती पुनः तुम्हारे घरमें प्रकट हो जायें तो देवताओंका महान् लाभ हो सकता है।

ब्रह्माजी कहते हैं- श्रीविष्णु आदि देवताओंकी यह बात सुनकर गिरिराज हिमालय मन-ही-मन प्रसन्न हो आदरसे झुक गये और बोले- ‘प्रभो! ऐसा हो तो बड़े सौभाग्यकी बात है।’ तदनन्तर वे देवता उन्हें बड़े आदरसे उमाको प्रसन्न करनेकी विधि बताकर स्वयं सदाशिव- पत्नी उमाकी शरणमें गये।

 

एक सुन्दर स्थानमें स्थित हो समस्त देवताओंने जगदम्बाका स्मरण किया और बारंबार प्रणाम करके वे वहाँ श्रद्धापूर्वक उनकी स्तुति करने लगे।देवता बोले-शिवलोकमें निवास करनेवाली देवि ! उमे ! जगदम्बे ! सदाशिव- प्रिये ! दुर्गे ! महेश्वरि ! हम आपको नमस्कार करते हैं।

 

आप पावन शान्तस्वरूप श्रीशक्ति हैं, परमपावन पुष्टि हैं। अव्यक्त प्रकृति और महत्तत्त्व-ये आपके ही रूप हैं। हम भक्तिपूर्वक आपको नमस्कार करते हैं। आप कल्याणमयी शिवा हैं। आपके हाथ भी कल्याणकारी हैं। आप शुद्ध, स्थूल, सूक्ष्म और सबका परम आश्रय हैं।

 

अन्तर्विद्या और सुविद्यासे अत्यन्त प्रसन्न रहनेवाली आप देवीको हम प्रणाम करते हैं। आप श्रद्धा हैं। आप धृति हैं। आप श्री हैं और आप ही सबमें व्याप्त रहनेवाली देवी हैं। आप ही सूर्यकी किरणें हैं और आप ही अपने प्रपंचको प्रकाशित करनेवाली हैं। ब्रह्माण्डरूप शरीरमें और जगत्के जीवोंमें रहकर जो ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त सम्पूर्ण जगत्‌की पुष्टि करती हैं, उन आदिदेवीको हम नमस्कार करते हैं।

 

आप ही वेदमाता गायत्री हैं, आप ही सावित्री और सरस्वती हैं। आप ही सम्पूर्ण जगत्‌के लिये वार्ता नामक वृत्ति हैं और आप ही धर्मस्वरूपा वेदत्रयी हैं। आप ही सम्पूर्ण भूतोंमें निद्रा बनकर रहती हैं। उनकी क्षुधा और तृप्ति भी आप ही हैं।

 

आप ही तृष्णा, कान्ति, छबि, तुष्टि और सदा सम्पूर्ण आनन्दको देनेवाली हैं। आप ही पुण्यकर्ताओंके यहाँ लक्ष्मी बनकर रहती हैं और आप ही पापियोंके घर सदा ज्येष्ठा (लक्ष्मीकी बड़ी बहिन दरिद्रता)- के रूपमें वास करती हैं। आप ही सम्पूर्ण जगत्की शान्ति हैं।

 

आप ही धारण करने- वाली धात्री एवं प्राणोंका पोषण करनेवाली शक्ति हैं। आप ही पाँचों भूतोंके सारतत्त्वको प्रकट करनेवाली तत्त्वस्वरूपा हैं। आप ही नीतिज्ञोंकी नीति तथा व्यवसायरूपिणी हैं। आप ही सामवेदकी गीति हैं। आप ही ग्रन्थि हैं।

 

आप ही यजुर्मन्त्रोंकी आहुति हैं। ऋग्वेदकी मात्रा तथा अथर्ववेदकी परम गति भी आप ही हैं। जो प्राणियोंके नाक, कान, नेत्र, मुख, भुजा, वक्षःस्थल और हृदयमें धृतिरूपसे स्थित हो सदा ही उनके – लिये सुखका विस्तार करती हैं।

 

जो निद्राके – रूपमें संसारके लोगोंको अत्यन्त सुभग प्रतीत – होती हैं, वे देवी उमा जगत्‌की स्थिति एवं • पालनके लिये हम सबपर प्रसन्न हों।इस प्रकार जगज्जननी सती-साध्वी महेश्वरी उमाकी स्तुति करके अपने हृदयमें – विशुद्ध प्रेम लिये वे सब देवता उनके दर्शनकी इच्छासे वहाँ खड़े हो गये।

(अध्याय ३)

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