रुद्रसंहिता, तृतीय (पार्वती) खण्ड)
Shiv puran rudra samhita Parwati khand chapter 29 (शिव पुराण रुद्रसंहिता पार्वती खंड अध्याय 29 शिव और पार्वतीकी बातचीत, शिवका पार्वतीके अनुरोधको स्वीकार करना)
(अध्याय 29)
:-ब्रह्माजी कहते हैं- नारद ! परमात्मा हरकी यह बात सुनकर और उनके आनन्द- दायी रूपका दर्शन पाकर पार्वतीको बड़ा हर्ष हुआ। उनका मुख प्रसन्नतासे खिल उठा। वे बहुत सुखका अनुभव करने लगीं। फिर उन महासाध्वी शिवाने अपने पास ही खड़े हुए भगवान् शिवसे कहा।
पार्वती बोलीं- देवेश्वर ! आप मेरे स्वामी हैं। प्रभो! पूर्वकालमें आपने जिसके लिये हर्षपूर्वक दक्षके यज्ञका विनाश किया था, उसे क्यों भुला दिया था ! वे ही आप हैं और वही मैं हूँ। देवदेवेश्वर ! इस समय मैं तारकासुरसे दुःख पानेवाले देवताओंके कार्यकी सिद्धिके लिये रानी मेनाके गर्भसे उत्पन्न हुई हूँ।
देवेश! यदि आप प्रसन्न हैं और यदि मुझपर कृपा करते हैं तो मेरे पति हो जाइये। ईशान ! प्रभो! मेरी यह बात मान लीजिये, आपकी आज्ञा लेकर मैं पिताके घर जाती हूँ। अब आप अपने विवाहरूप परम उत्तम विशुद्ध यशको सर्वत्र विख्यात कीजिये। नाथ ! प्रभो !
आप तो लीला करनेमें कुशल हैं। अतः मेरे पिता हिमवान्के पास चलिये और याचक बनकर उनसे मेरी याचना कीजिये। लोकमें मेरे पिताके यशको फैलाते हुए आपको ऐसा ही करना चाहिये। इस तरह आप मेरे सम्पूर्ण गृहस्थाश्रमको सफल बनाइये। जब आप प्रसन्नतापूर्वक ऋषियोंसे मेरे पिताको सब बातोंकी जानकारी करायेंगे, तब मेरे पिता अपने भाई-बन्धुओंके साथ आपकी आज्ञाका पालन करेंगे- इसमें संदेह नहीं है।
जब मैं पहले प्रजापति दक्षकी कन्या थी और मेरे पिताने आपके हाथमें मेरा हाथ दिया, उस समय आपने शास्त्रोक्त विधिसे विवाहका कार्य पूरा नहीं किया। मेरे पिता दक्षने ग्रहोंकी पूजा नहीं की। अतः उस विवाहमें ग्रहपूजनविषयक बड़ी भारी त्रुटि रह गयी। इसलिये प्रभो ! महादेव ! अबकी बार देवताओंके कार्यकी सिद्धिके लिये आप शास्त्रोक्त विधिसे विवाहकार्यका सम्पादन करें। विवाहकी जैसी रीति है, उसका पालन आपको अवश्य करना चाहिये।
मेरे पिता हिमवान्को यह अच्छी तरह ज्ञात हो जाना चाहिये कि मेरी पुत्रीने शुभकारक तपस्या की है।पार्वतीकी ऐसी बात सुनकर भगवान् सदाशिव बड़े प्रसन्न हुए और उनसे हँसते हुए-से प्रेमपूर्वक बोले ।
शिवने कहा- देवि ! महेश्वरि ! मेरी यह उत्तम बात सुनो, यह उचित, मंगलकारक और निर्दोष है। इसे सुनकर वैसा ही करो। वरानने ! ब्रह्मा आदि जितने भी प्राणी हैं, वे सब अनित्य हैं। भामिनि ! यह सब जो कुछ दिखायी देता है, इसे नश्वर समझो। मैं निर्गुण परमात्मा ही गुणोंसे युक्त हो एकसे अनेक हो गया हूँ। जो अपने प्रकाशसे प्रकाशित होता है, वही परमात्मा मैं दूसरेके प्रकाशसे प्रकाशित होनेवाला हो गया।
देवि ! मैं स्वतन्त्र हूँ, परंतु तुमने मुझे परतन्त्र बना दिया। समस्त कर्मोंको करनेवाली प्रकृति एवं महामाया तुम्हीं हो। यह सम्पूर्ण जगत् मायामय ही रचा गया है। मुझ सर्वात्मा परमात्माने अपनी उत्तम बुद्धिके द्वारा इसे धारणमात्र कर रखा है। सर्वत्र परमात्मभाव रखनेवाले सर्वात्मा पुण्यवानोंने इसे अपने भीतर सींचा है तथा यह तीनों गुणोंसे आवेष्टित है। देवि ! वरवर्णिनि ! कौन मुख्य ग्रह हैं? कौन-से ऋतुसमूह हैं? अथवा कौन दूसरे-दूसरे उपग्रह हैं?
इस समय तुमने शिवके लिये क्या कहा है-किस कर्तव्यका विधान किया है? गुण और कार्यके भेदसे हम दोनोंने इस जगत्में भक्तवत्सलताके कारण भक्तोंको सुख देनेके हेतु अवतार ग्रहण किया है। तुम्हीं रजःसत्त्व-तमोमयी (त्रिगुणात्मिका) सूक्ष्म प्रकृति हो, सदा व्यापारकुशल सगुणा और निर्गुणा भी हो। सुमध्यमे ! मैं यहाँ सम्पूर्ण भूतोंका आत्मा, निर्विकार एवं निरीह हूँ। भक्तकी इच्छासे मैंने शरीर धारण किया है।
शैलजे ! मैं तुम्हारे पिता हिमालयके पास नहीं जा सकता तथा भिक्षुक होकर किसी तरह तुम्हारी उनसे याचना भी नहीं कर सकता। गिरिराजनन्दिनि ! महान् गुणोंसे अत्यन्त गौरवशाली महात्मा पुरुष भी अपने मुँहसे ‘देहि’ (दो) यह बात निकालनेपर तत्काल लघुताको प्राप्त हो जाता है। कल्याणि ! ऐसा जानकर हमारे लिये क्या कहती हो ? भद्रे ! तुम्हारी आज्ञासे मुझे सब कुछ करना है। अतः जैसी तुम्हारी इच्छा हो, वैसा करो।
महादेवजीके ऐसा कहनेपर भी सती- साध्वी कमललोचना महादेवी शिवाने उन भगवान् शंकरको बारंबार भक्ति-भावसे प्रणाम करके कहा। पार्वती बोलीं- नाथ! आप आत्मा हैं और मैं प्रकृति। इस विषयमें विचार करनेकी कोई बात नहीं है। हम दोनों स्वतन्त्र और निर्गुण होते हुए भी भक्तोंके अधीन होनेके कारण सगुण हो जाते हैं।
शम्भो ! प्रभो ! आपको प्रयत्नपूर्वक मेरी प्रार्थनाके अनुसार कार्य करना चाहिये। शंकर ! आप मेरे लिये याचना करें और हिमवान्को दाता बननेका सौभाग्य प्रदान करें। महेश्वर ! मैं सदा आपकी भक्ता हूँ, अतः मुझपर कृपा कीजिये। नाथ! सदा जन्म-जन्ममें मैं ही आपकी पत्नी होती रही हूँ।
आप परब्रह्म परमात्मा हैं, निर्गुण हैं, प्रकृतिसे परे हैं, निर्विकार, निरीह एवं स्वतन्त्र परमेश्वर हैं; तथापि भक्तोंके उद्धारमें संलग्न होकर यहाँ सगुण भी हो जाते हैं, स्वात्माराम होकर भी लीलाविहारी बन जाते हैं; क्योंकि आप नाना प्रकारकी लीलाएँ करनेमें कुशल हैं। महादेव ! महेश्वर ! मैं सब प्रकारसे आपको जानती हूँ। सर्वज्ञ ! अब बहुत कहनेसे क्या लाभ ? मुझपर दया कीजिये।
नाथ ! महान् अद्भुत लीला करके लोकमें अपने सुयशका विस्तार कीजिये, जिसे गा-गाकर लोग अनायास ही भवसागरसे पार हो जायँ।ब्रह्माजी कहते हैं- नारद ! ऐसा कहकर गिरिजाने महेश्वरको बारंबार प्रणाम किया और मस्तक झुकाकर हाथ जोड़ वे चुप हो गयीं। उनके ऐसा कहनेपर महात्मा महेश्वरने लोकलीलाका अनुसरण करनेके लिये वैसा करना स्वीकार कर लिया।
पार्वतीने जो कुछ कहा था, उसीको प्रसन्नतापूर्वक करनेके लिये उद्यत होकर वे हँसने लगे। तदनन्तर हर्षसे भरे हुए शम्भु अन्तर्धान हो कैलासको चले गये। उस समय कालीके विरहसे उनका चित्त उन्हींकी ओर खिंच गया था। कैलासपर जाकर परमानन्दमें निमग्न हुए महेश्वरने अपने नन्दी आदि गणोंसे वह सारा वृत्तान्त कह सुनाया। वे भैरब आदि सभी गण भी वह सब समाचार सुनकर अत्यन्त सुखी हो गये और महान् उत्सव करने लगे।
नारद ! उस समय वहाँ महान् मंगल होने लगा। सबके दुःख नष्ट हो गये तथा रुद्रदेवको भी पूर्ण आनन्द प्राप्त हुआ।
(अध्याय २९)