(रुद्रसंहिता, तृतीय (पार्वती) खण्ड)
Shiv puran rudra samhita Parwati khand chapter 13 (शिव पुराण रुद्रसंहिता पार्वती खंड अध्याय 13 पार्वती और शिवका दार्शनिक संवाद, शिवका पार्वतीको अपनी सेवाके लिये आज्ञा देना तथा पार्वतीद्वारा भगवान्की प्रतिदिन सेवा)
(अध्याय 13)
:-भवानीने कहा- योगिन् ! आपने तपस्वी होकर गिरिराजसे यह क्या बात कह डाली ? प्रभो ! आप ज्ञानविशारद हैं, तो भी अपनी बातका उत्तर मुझसे सुनिये । शम्भो ! आप तपःशक्तिसे सम्पन्न होकर ही बड़ा भारी तप करते हैं। उस शक्तिके कारण ही आप महात्माको तपस्या करनेका विचार हुआ है। सभी कर्मोंको करनेकी जो वह शक्ति है, उसे ही प्रकृति जानना चाहिये।
प्रकृतिसे ही सबकी सृष्टि, पालन और संहार होते हैं। भगवन् ! आप कौन हैं? और सूक्ष्म प्रकृति क्या है ? इसका विचार कीजिये। प्रकृतिके बिना लिंगरूपी महेश्वर कैसे हो सकते हैं? आप सदा प्राणियोंके लिये जो अर्चनीय, वन्दनीय और चिन्तनीय हैं, वह प्रकृतिके ही कारण हैं। इस बातको हृदयसे विचारकर ही आपको जो कहना हो, वह सब कहिये।
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! पार्वतीजीके इस वचनको सुनकर महती लीला करनेमें लगे हुए प्रसन्नचित्त महेश्वर हँसते हुए बोले।
महेश्वरने कहा- मैं उत्कृष्ट तपस्याद्वारा ही प्रकृतिका नाश करता हूँ और तत्त्वतः प्रकृतिरहित शम्भुके रूपमें स्थित होता हूँ। अतः सत्पुरुषोंको कभी या कहीं प्रकृतिका संग्रह नहीं करना चाहिये। लोकाचारसे दूर एवं निर्विकार रहना चाहिये।
नारद ! जब शम्भुने लौकिक व्यवहारके अनुसार यह बात कही, तब काली मन- ही-मन हँसकर मधुर वाणीमें बोलीं।कालीने कहा-कल्याणकारी प्रभो ! योगिन् ! आपने जो बात कही है, क्या वह वाणी प्रकृति नहीं है? फिर आप उससे परे क्यों नहीं हो गये ? (क्यों प्रकृतिका सहारा लेकर बोलने लगे ?) इन सब बातोंको विचार करके तात्त्विक दृष्टिसे जो यथार्थ बात हो, उसीको कहना चाहिये। यह सब कुछ सदा प्रकृतिसे बँधा हुआ है। इसलिये आपको न तो बोलना चाहिये और न कुछ करना ही चाहिये; क्योंकि कहना और करना – सब व्यवहार प्राकृत ही है।
आप अपनी बुद्धिसे इसको समझिये। आप जो कुछ सुनते, खाते, देखते और करते हैं, वह सब प्रकृतिका ही कार्य है। झूठे वाद-विवाद करना व्यर्थ है। प्रभो ! शम्भो ! यदि आप प्रकृतिसे परे हैं तो इस समय इस हिमवान् पर्वतपर आप तपस्या किसलिये करते हैं? हर ! प्रकृतिने आपको निगल लिया है। अतः आप अपने स्वरूपको नहीं जानते। ईश ! आप यदि अपने स्वरूपको जानते हैं तो किसलिये तप करते हैं? योगिन् ! मुझे आपके साथ वाद-विवाद करनेकी क्या आवश्यकता है? प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध होनेपर विद्वान् पुरुष अनुमान प्रमाणको नहीं मानते। जो कुछ प्राणियोंकी इन्द्रियोंका विषय होता है, वह सब ज्ञानी पुरुषोंको बुद्धिसे विचारकर प्राकृत ही मानना चाहिये। योगीश्वर ! बहुत कहनेसे क्या लाभ ? मेरी उत्तम बात सुनिये। मैं प्रकृति हूँ। आप पुरुष हैं। यह सत्य है, सत्य है।
इसमें संशय नहीं है। मेरे अनुग्रहसे ही आप सगुण और साकार माने गये हैं। मेरे बिना तो आप निरीह हैं। कुछ भी नहीं कर सकते हैं। आप जितेन्द्रिय होनेपर भी प्रकृतिके अधीन हो सदा नाना प्रकारके कर्म करते रहते हैं। फिर निर्विकार कैसे हैं? और मुझसे लिप्त कैसे नहीं ? शंकर ! यदि आप प्रकृतिसे परे हैं और यदि आपका यह कथन सत्य है तो आपको मेरे समीप रहनेपर भी डरना नहीं चाहिये।
ब्रह्माजी कहते हैं-पार्वतीका यह सांख्य- शास्त्रके अनुसार कहा हुआ वचन सुनकर भगवान् शिव वेदान्तमतमें स्थित हो उनसे यों बोले।
श्रीशिवने कहा-सुन्दर भाषण करनेवाली गिरिजे ! यदि तुम सांख्य-मतको धारण करके ऐसी बात कहती हो तो प्रतिदिन मेरी सेवा करो; परंतु वह सेवा शास्त्रनिषिद्ध नहीं होनी चाहिये। गिरिजासे ऐसा कहकर भक्तोंपर अनुग्रह और उनका मनोरंजन करनेवाले भगवान् शिव हिमवान्से बोले।
शिवने कहा- गिरिराज ! मैं यहीं तुम्हारे अत्यन्त रमणीय श्रेष्ठ शिखरकी भूमिपर उत्तम तपस्या तथा अपने आनन्दमय परमार्थस्वरूपका विचार करता हुआ विचरूँगा। पर्वतराज ! आप मुझे यहाँ तपस्या करनेकी अनुमति दें। आपकी अनुज्ञाके बिना कोई तप नहीं किया जा सकता।
देवाधिदेव शूलधारी भगवान् शिवका यह कथन सुनकर हिमवान्ने उन्हें प्रणाम करके कहा – ‘महादेव! देवता, असुर और मनुष्योंसहित सम्पूर्ण जगत् तो आपका ही है। मैं तुच्छ होकर आपसे क्या कहूँ ?’
ब्रह्माजी कहते हैं- नारद ! गिरिराज हिमवान्के ऐसा कहनेपर लोककल्याणकारी भगवान् शंकर हँस पड़े और आदरपूर्वक उनसे बोले- ‘अब तुम जाओ।’ शंकरकी आज्ञा पाकर हिमवान् अपने घर लौट गये। वे गिरिजाके साथ प्रतिदिन उनके दर्शनके लिये आते थे। काली अपने पिताके बिना भी दोनों सखियोंके साथ नित्य शंकरजीके पास जातीं और भक्तिपूर्वक उनकी सेवामें लगी रहतीं। नन्दीश्वर आदि कोई भी गण उन्हें रोकता नहीं था।
तात ! महेश्वरके आदेशसे ही ऐसा होता था। प्रत्येक गण पवित्रतापूर्वक रहकर उनकी आज्ञाका पालन करता था। जो विचार करनेसे परस्पर अभिन्न सिद्ध होते हैं, उन्हीं शिवा और शिवने सांख्य और वेदान्त-मतमें स्थित हो जो कल्याणदायक संवाद किया, वह सर्वदा सुख देनेवाला है। वह संवाद मैंने यहाँ कह सुनाया। इन्द्रियातीत भगवान् शंकरने गिरिराजके कहनेसे उनका गौरव मानकर उनकी पुत्रीको अपने पास रहकर सेवा करनेके लिये स्वीकार कर लिया।
काली अपनी दो सखियोंके साथ चन्द्रशेखर महादेवजीकी सेवाके लिये प्रतिदिन आती-जाती रहती थीं। वे भगवान् शंकरके चरण धोकर उस चरणामृतका पान करती थीं। आगसे तपाकर शुद्ध किये हुए वस्त्रसे (अथवा गरम जलसे धोये हुए वस्त्रके द्वारा) उनके शरीरका मार्जन करतीं, उसे मलती-पोंछती थीं। फिर सोलह उपचारोंसे विधिवत् हरकी पूजा करके बारंबार उनके चरणोंमें प्रणाम करनेके पश्चात् प्रतिदिन पिताके घर लौट जाती रहीं।
मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार ध्यानपरायण शंकरकी सेवामें लगी हुई शिवाका महान् समय व्यतीत हो गया, तो भी वे अपनी इन्द्रियोंको संयममें रखकर पूर्ववत् उनकी सेवा करती रहीं। महादेवजीने जब फिर उन्हें अपनी सेवामें नित्य तत्पर देखा, तब वे दयासे द्रवित हो उठे और इस प्रकार विचार करने लगे- ‘यह काली जब तपश्चर्याव्रत करेगी और इसमें गर्वका बीज नहीं रह जायगा, तभी मैं इसका पाणिग्रहण करूंगा।’
ऐसा विचार करके महालीला करनेवाले महायोगीश्वर भगवान् भूतनाथ तत्काल ध्यानमें स्थित हो गये। मुने ! परमात्मा शिव जब ध्यानमें लग गये, तब उनके हृदयमें दूसरी कोई चिन्ता नहीं रह गयी। काली प्रतिदिन महात्मा शिवके रूपका निरन्तर चिन्तन करती हुई उत्तम भक्तिभावसे उनकी सेवामें लगी रही। ध्यानपरायण भगवान् हर शुद्धभावसे वहाँ रहती हुई कालीको नित्य देखते थे। फिर भी पूर्व चिन्ताको भुलाकर उन्हें देखते हुए भी नहीं देखते थे।
इसी बीचमें इन्द्र आदि देवताओं तथा मुनियोंने ब्रह्माजीकी आज्ञासे कामदेवको वहाँ आदरपूर्वक भेजा। वे कामकी प्रेरणासे कालीका रुद्रके साथ संयोग कराना चाहते थे। उनके ऐसा करनेमें कारण यह था कि महापराक्रमी तारकासुरसे वे बहुत पीड़ित थे (और शंकरजीसे किसी महान् बलवान् पुत्रकी उत्पत्ति चाहते थे)।
कामदेवने वहाँ पहुँचकर अपने सब उपायोंका प्रयोग किया, परंतु महादेवजीके मनमें तनिक भी क्षोभ नहीं हुआ। उलटे उन्होंने कामदेवको जलाकर भस्म कर दिया। मुने ! तब सती पार्वतीने भी गर्वरहित हो उनकी आज्ञासे बहुत बड़ी तपस्या करके शिवको पतिरूपमें प्राप्त किया। फिर वे पार्वती और परमेश्वर परस्पर अत्यन्त प्रेमसे और प्रसन्नतापूर्वक रहने लगे। उन दोनोंने परोपकारमें तत्पर रहकर देवताओंका महान् कार्य सिद्ध किया।
(अध्याय १३)